श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
महाकवि भास के अभिषेकनाटक में श्रीरामकथा
भारतीय साहित्य की परम्परा में रामायण को काव्यों की श्रेणी में ‘आदि काव्यÓ माना जाता है। रामायण की कथा आज भी भारत में झुग्गी-झोपड़ियों से लेकर विशाल भवनों, गली-गली, महानगरों से लेकर छोटे से छोटे गाँव और आँगन में हमें बड़ी सरलता से सुनने को मिल जाती है। प्राचीन संस्कृत, प्राकृत भाषा के अतिरिक्त प्राय: सभी भारतीय प्रादेशिक भाषा में श्रीरामकथा का अपने प्रदेश के रीति रिवाज और संस्कृति में रंगा हुआ वर्णन इनमें मिल जाता है। रामायण और महाभारत काल के उपरान्त अद्यावधि ज्ञात सन्दर्भों में श्रीरामकथा को अपने साहित्य में गढ़ने-रचनेवाले सबसे प्राचीन और सबसे पहले महाकवि भास ही दिखाई देते हैं। महाकवि भास के नाटकों में प्रसिद्ध नाटक अभिषेकनाटक तथा प्रतिमानाटक श्रीरामकथा पर आधारित है। अत: सर्वप्रथम अभिषेक नाटक की श्रीरामकथा की कथावस्तु संक्षिप्त में नई पीढ़ी को दी जा रही है।
अभिषेकनाटक में श्रीरामकथा की संक्षिप्त कथावस्तु
अभिषेकनाटक की कथावस्तु का प्रारम्भ किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड एवं युद्धकाण्डों में वर्णित कथानक के कुछ अंशों को लेकर किया गया है। इस नाटक की विशेषता यह है कि पुरुष पात्रों की संख्या लगभग मात्र तेईस से अधिक है तो दूसरी तरफ कुछ प्रमुख राक्षसियों को छोड़कर जिनकी संख्या अनिश्चित है। स्त्री पात्र के रूप में केवल सीताजी तथा तारा (बालि की पत्नी) ही मंच पर दिखाई गई है। सूत्रधार पारिपार्श्विक के बहाने दर्शकों को सूचित करता है कि सीताजी के अपहरण से संतृप्त श्रीराम तथा अयोध्या के राज्य से वंचित एवं पत्नी पर बलपूर्वक अधिकार से दु:खी वानरपति सुग्रीव परस्पर सहायता के लिए मिलकर सुग्रीव के अग्रज बालि को मारने का प्रयास करत रहे हैं।
सूत्रधार कहता है-
इदानीं राज्यविभ्रष्टं सुग्रीवं रामलक्ष्मणौ।
पुन स्थापर्यितुं प्राप्ताविन्द्रं हरिहराविव।।
प्रथम अंक में इसी सूचना के साथ ही स्थापना सम्पन्न होती है। श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव और हनुमानजी के प्रवेश से नाटक का प्रारम्भ होता है। उपस्थित पात्रों के कथोपकथन से यह लगता है कि किष्किन्धा के प्रदेश में आ पहुँचे हैं तथा सुग्रीव श्रीराम की सहायता से बालि से युद्ध के लिए तैयार हो जाता है। दूसरी तरफ तारा अपने पति बालि को युद्ध करने से रोकती है तथा बालि उसको छोड़कर अन्त:पुर में लौटने के लिए विवश करता है। बालि सुग्रीव पर प्रहार करता है और दोनों का युद्ध प्रारम्भ हो जाता है। इस द्वन्द्व युद्ध में श्रीराम, लक्ष्मण और हनुमान् मात्र दर्शक के रूप में भूमिका में रहते हैं। तदनन्तर बालि के प्रहार से आहत होकर सुग्रीव भूमि पर गिरते हैं। हनुमान्जी परिस्थिति के अनुरूप श्रीराम को उचित कदम उठाने के लिये कहते हैं। क्षणभर में ही श्रीराम के बाण से आहत बालि भूमि पर गिर पड़ता है। बालि बाण पर श्रीराम का नाम देखकर श्रीराम के अनुचित प्रहार की निन्दा करता है। वह इस श्रीराम के प्रहार को धर्म-विरुद्ध बताता है। श्रीराम बालि को दण्डनीय अपराधी निरूपित करते हुए अपने कृत्य को न्यायपूर्ण एवं उचित बताते हैं। नेपथ्य से स्त्रियों के विलाप की आवाज आती है, बालि उन्हें रोकने के लिये सुग्रीव से कहता है। सुग्रीव हनुमान्जी को भेजता है। हनुमान्जी अंगद को साथ लेकर आते हैं। अंगद अपने पिता की इस अवस्था को देखकर गिर पड़ता है। बालि सुग्रीव को राज्यभार अर्पित करते हुए अंगद को उसके हाथों में सौंपता है तथा श्रीराम से यह प्रार्थना करता है कि वे इन दोनों (अंगद तथा सुग्रीव) पर दया दृष्टि बनाए रखें। बालि अपने गले से वंश की प्रतिष्ठा की प्रतीक स्वर्णमाला उतारकर सुग्रीव को अर्पित कर देता है। बालि हनुमान्जी को जल लाने का कहता है और जल से आचमन कर मंच पर ही प्राण त्याग देता है। श्रीराम सुग्रीव को बालि के अंतिम संस्कार की और लक्ष्मण को सुग्रीव के राज्याभिषेक की आज्ञा देते हैं तथा इस के साथ यहाँ पहला अंक समाप्त होता है।
द्वितीय अंक के प्रारम्भ में एक संस्कृत भाषी पात्र ककुभ तथा एक प्राकृत भाषी पात्र बिलमुख के द्वारा प्रथम तथा द्वितीय अंकों के मध्यवर्ती कथानक की सूचना के लिए विष्कम्भक की नाट्य योजना का प्रयोग किया गया है। ककुभ कहता है कि सभी संकल्पित कार्य पूरे कर वानर भोजन कर रहे हैं। अतएव वह भी भोजन के लिए बैठ जाता है। थोड़े अन्तराल में बिलमुख आता है और सूचित करता है कि महाराज सुग्रीव के द्वारा सीताजी की खोज के लिए सभी दिशाओं में भेजे गए वानर लौट आए हैं। दक्षिण की ओर अंगद जो समाचार लाए हैं उसकी सूचना महाराज (सुग्रीव) तक पहुँचानी है और इसलिए वह कुमार अंगद से मिलना चाहता है। ककुभ से उसे यह समाचार ज्ञात होता है कि सीताजी के अन्वेषण का आधा कार्य सम्पन्न हो गया है। गृघ्रराज सम्पाति से लंका में सीताजी का समाचार जानकर पवनसुत हनुमान्जी लंका पहुँचने के लिए महेन्द्र पर्वत पर चढ़कर वायुमार्ग से समुद्र को पार कर चुके हैं। इसी सूचना के साथ दोनों पात्र अंगद के पास चले जाते हैं। विष्कम्भक के उपरान्त द्वितीय अंक का दृश्य-विधान लंका में राक्षसी-वृन्द के मध्य बैठी हुई सीताजी के प्रवेश से होता है। सीताजी अपनी दुर्दशा और श्रीराम की वर्तमान स्थिति पर चिन्ता करती है। इसी बीच हाथ में अँगूठी लिए हनुमान्जी का प्रवेश होता है। हनुमान्जी को अभी तक कहीं भी सीताजी नहीं मिली है। वे प्रमद-वन की ओर जाते हैं और राक्षसियों के मध्य सीताजी को देखते हैं। अभी भी हनुमान्जी को सीताजी को पहचानने का अवसर ही नहीं प्राप्त होता है तथा इसी तरह जलती मशालों के प्रकाश में उन्हें रावण आता हुआ दिखाई पड़ता है। हनुमान्जी अशोक वृक्ष की कोटर में छिप कर रावण की बातें सुनते हैं। रावण के वार्तालाप से हनुमान्जी को एक ओर तो सीताजी का ठीक ठीक परिचय मिल जाता है और दूसरी ओर सीताजी के पातिव्रत्य तेज से भयभीत रावण की अभी तक सीताजी को अपनी ओर आकृष्ट करने में प्राप्त असफलता और विवशता का बोध हो जाता है। रावण नेपथ्य से स्नानवेला की घोषणा सुनकर वहाँ से चला जाता है।
रावण के चले जाने के बाद हनुमान्जी सीताजी को अपना परिचय देते हैं। सीताजी पहले तो रावण की राक्षसी माया ही समझती है किन्तु बाद में हनुमान्जी की बातों से उन्हें कुछ विश्वास हो जाता है। हनुमान्जी श्रीराम को लंका लाने का वचन देते हैं और सीता इस कार्य में उनकी सफलता के लिए आशीर्वाद प्रदान करती है। किसी प्रकार से हनुमान्जी अपने लंका आगमन की सूचना रावण तक पहुँचाने के उद्देश्य से लंकापति के सुन्दर कानन को नष्ट करने का निर्णय लेते हैं और इसी के साथ द्वितीय अंक समाप्त हो जाता है।
तृतीय अंक अशोक वाटिका के उजड़ने के समाचार से प्रारम्भ होता है। शंकुकर्ण द्वारपालिका विजया से वाटिका विध्वंस की सूचना तुरन्त महाराज तक पहुँचाने के लिए कहता है और देखता है कि विजया के जाने के बाद स्वयं रावण वहीं आ जाता है। रावण शंकुकर्ण से सारा वृत्तांत जानना चाहता है। शंकुकर्ण बतलाता है कि किसी अज्ञात वानर ने अशोक वाटिका को उजाड़ दिया है। वह वानर बड़ा शक्तिशाली होना चाहिए क्योंकि उसने बड़े-बड़े साल के वृक्ष कमलनाल की भाँति एकाएक उखाड़ फेंक दिए हैं तथा दारू पर्वत को मुष्टि प्रहार से ही विध्वंस कर दिया है। ऐसी दशा में वह उस वानर को पकड़ने के लिए रावण से समुचित सैनिक व्यवस्था के लिए निवेदन करता है। हनुमान्जी को पकड़ने के लिए भेजे गए एक हजार सैनिक मारे जाते हैं। तदनन्तर रावण अक्षयकुमार को भेजता है। उसके साथ पाँच सेनापति भी जाते हैं। हनुमान्जी को पकड़ने गए पाँचों सेनापति सहित अक्षयकुमार हनुमान्जी के हाथों मारे जाते हैं। तदनन्तर इन्द्रजित वानर को पकड़ने के लिए जाते हैं। अन्त में रावण को यह समाचार मिलता है कि तुमुल युद्ध के उपरान्त वानर बाँध लिया गया है तब रावण दु:खी मन से विभीषण को बुलवाता है।
रावण के आदेशानुसार विभीषण चिन्तातुर अवस्था में उपस्थित होता है। उसे इस बात का अत्यन्त दु:ख होता है कि रावण ने सीताजी को लौटा देने की सलाह नहीं मानी। विभीषण इसी को वर्तमान संकट की जड़ (मूल) मानता है। वानर लाने के लिए रावण विभीषण को भेजता है और राक्षसों से चारों ओर घिरे हुए पाशबद्ध हनुमान्जी का प्रवेश होता है। हनुमान्जी दर्शकों को बताते हैं कि रावण से मिलने की तीव्र उत्कण्ठा के कारण उन्होंने स्वयं ही बन्धन को स्वीकार किया है। हनुमान्जी अपना परिचय देकर श्रीराम का सन्देश सुनाते हैं। रावण को किसी मनुष्य की आज्ञा स्वीकार करने में आपत्ति है। हनुमान्जी रावण से पूछते हैं कि ऐसी स्थिति में उसने छिपकर सीताजी का हरण क्यों किया? विभीषण हनुमान्जी की बातों का समर्थन करता है। रावण सर्वप्रथम तो हनुमान्जी की पूँछ में आग लगाकर छोड़ने की आज्ञा देता है परन्तु उसी क्षण अपना निर्णय बदलकर हनुमान्जी के द्वारा श्रीराम को युद्ध का निमन्त्रण भेजता है। हनुमान्जी के प्रस्थान के बाद रावण और विभीषण में परस्पर चर्चा होती है। विभीषण श्रीराम को अधिक शक्तिशाली बताता है जो रावण के लिए असह्य हो जाता है। रावण विभीषण को निर्वासित करना चाहता है परन्तु विभीषण राक्षस कुल के उद्धार के लिए स्वयं ही रावण को त्यागकर श्रीराम की शरण में जाने की घोषणा करता है। विभीषण के प्रस्थान के उपरान्त रावण भी नगर रक्षा का प्रबन्ध करने के लिए प्रस्थान करता है तथा यहीं तृतीय अंक समाप्त हो जाता है।
चतुर्थ अंक के प्रारम्भ में नियोजित विष्कम्भक के द्वारा काञ्चकीय और सुग्रीव के सेनापति के संवाद से रावण पर आक्रमण के लिए सैनिक तैयारी की सूचना मिलती है। श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव एवं हनुमान्जी के प्रवेश से ज्ञात होता है कि वे सघन वन पर्वतमाला और नदियों को पारकर समुद्र तट तक आ गए हैं किन्तु आगे का मार्ग समुद्र के कारण अवरुद्ध हो गया है। इस बीच सुग्रीव को आकाश से उतरता हुआ और राक्षस दिखाई देता है। हनुमान्जी वानर सेना को तुरन्त सावधान करते हैं। श्रीराम हनुमान्जी को उत्तेजित होने से रोकते हैं। इसी बीच विभीषण का प्रवेश होता है। हनुमान्जी उन्हें पहचान कर श्रीराम को सूचित करते हैं कि धर्मात्मा विभीषण शरणागत के रूप में उपस्थित हुआ है।
विभीषण समुद्र पार करने के लिए श्रीराम को दिव्यास्त्र के प्रयोग का परामर्श देता है। श्रीराम उसका परामर्श मान लेते हैं किन्तु अस्त्र प्रयोग के पहले ही जल देवता वरुण का प्रवेश होता है। वरुण श्रीराम के समक्ष प्रणत होकर समुद्र का मार्ग प्रदान करते हैं। समुद्र के द्वारा प्रदत्त मार्ग से समूची सेना के साथ सभी लंका पहुँचते हैं।
श्रीराम की आज्ञा से सुग्रीव सुवेल पर्वत पर सेना-निदेश के लिए नील को निर्देश देता है। सेना निदेश से नील दो ऐसे वानरों को पकड़ लाता है जिनकी पहचान सिद्ध नहीं हो पाती है। विभीषण इन दोनों वानरों को पहचान लेता है और बतलाता है कि ये दोनों न वानर हैं और न सैनिक है। ये रावण के विश्वास प्राप्त मन्त्री शुक और सारण है। श्रीराम विभीषण के प्रस्ताव पर उन्हें दण्डित करने की अपेक्षा उनके द्वारा रावण को सन्देश भेजते हैं कि युद्ध के लिए राम रावण के द्वार पर उपस्थित हो गए हैं। इसी समय सूर्यास्त होने के कारण चतुर्थ अंक यही पर समाप्त हेा जाता है।
पंचम अंक के प्रारम्भ में भी एक विष्कम्भक की योजना है। विष्कम्भक का प्रारम्भ लंकापति रावण के काञ्चुकीय के प्रवेश से होता है। काञ्चुकीय राक्षक प्रतीहारी को बुलाता है और उसके द्वारा विद्युज्रिह को बुला भेजता है। काञ्चुकीय रावण के व्यवहार पर दु:खी प्रतीत होता है। वह देख रहा है कि श्रीराम के हाथों कुम्भकर्ण आदि अनेक वीर मारे गए हैं, फिर भी रावण सीता के लिए अपने दुराग्रह को छोड़ नहीं रहा है। विद्युज्रिह के आने पर काञ्चुकीय उसे लंकापति रावण की ओर से आज्ञा देता है कि वह शीघ्र ही राम लक्ष्मण के सिरों के दो पुतले पहले बनाकर महाराज रावण के पास पहुँचा दे। विद्युजिन्ह को यह आज्ञा देकर वह रावण से मिलने के लिए प्रस्थान करता है और इसी के साथ विष्कम्भक समाप्त हो जाता है।
पंचम अंक का मुख्य दृश्य चिंतामग्न सीताजी के प्रवेश से होता है। सीताजी नाना प्रकार की आशंकाओं से खिन्न अवस्था में है और इसी बीच रावण वहाँ दिखाई देता है। रावण राज्य लक्ष्मी का पीछा कर रहा है। रावण की राज्यलक्ष्मी रावण को छोड़कर श्रीराम के पास जाना चाहती है। रावण उसे पुन: बलपूर्वक ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त करते हुए उसका पीछा छोड़कर सीताजी की ओर मुड़ जाता है। वह सीताजी को अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास करता है। सीताजी उसका उपहास करती है और वहीं श्रीराम और लक्ष्मण के कटे हुए सिर हाथ में लिए एक राक्षस का प्रवेश होता है। वह राक्षस श्रीराम और लक्ष्मण के कटे हुए सिर देखकर सीताजी रावण से कहती है कि जिस तलवार से ये सिर काटे गए हैं उसी से उसकी भी हत्या कर दी जाएं। इस पर रावण सीताजी से कहता है कि जब इन्द्रजित ने युद्ध में लक्ष्मण और उसके भाई को मार डाला तब तुम्हारी रक्षा कौन करेगा? उसी समय नेपथ्य से आवाज आती है- राम! राम! और एक घबराया हुआ राक्षस प्रवेश करता है। वह सीताजी के समक्ष ही रावण को सूचित करता है कि श्रीराम ने इन्द्रजित का वध कर दिया है। इतना सुनते ही रावण मूर्च्छित हो जाता है। नेपथ्य से आवाज आती है कि श्रीराम रावण से युद्ध के लिए आगे बढ़ रहे हैं। रावण उसी क्षण सीताजी को मार डालना चाहता है किन्तु अनुचर राक्षस के कहने पर स्त्री-वध का दुस्साहस छोड़ कर युद्ध के लिए रथ लाने का आदेश देता है। रथ के उपस्थित होने पर वह रथ पर बैठकर सीता से यह कहते हुए प्रस्थान करता है कि वह शीघ्र ही राम को मरा हुआ देखेगी। सीताजी ईश्वर से प्रार्थना करती है कि यदि उसने अपने कुल शील परम्परा के अनुसार केवल श्रीराम का ही अनुसरण किया हो तो युद्ध में श्रीराम को ही विजय प्राप्त हो। इसी के साथ ही पंचम अंक यहाँ समाप्त होता है।
षष्ठ अंक का मुख्य दृश्य विजयी श्रीराम के प्रवेश से होता है। श्रीराम सीताजी को आश्वस्त करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं, इसी बीच लक्ष्मण का प्रवेश होता है, वह सीताजी के आगमन की सूचना देता है। श्रीराम कुछ आशंकित होकर कहते हैं कि- हरण के बाद शत्रु के घर में रही सीता को देखकर क्रोध से मेरा धैर्य नष्ट हो जाएगा। यह सुनकर लक्ष्मण जाता है और विभीषण का प्रवेश होता है। श्रीराम विभीषण को रोकते हुए कहते हैं कि राक्षसों के स्पर्श से दूषित इक्ष्वाकु वंश के लिए कलंकभूत सीता का मेरे समक्ष आना उचित नहीं है। अकरणीय कार्यों की ओर उन्मुख व्यक्ति को रोकने वाला ही मित्र होता है, अन्यथा वह शत्रु है। यह सुनकर विभीषण दया की प्रार्थना करता है और लक्ष्मण यह सूचना लेकर उपस्थित होता है कि आप के विचारों को जानकर आर्या सीता अग्नि में प्रवेश के लिए आपके आदेश की प्रतीक्षा कर रही है। यह सुनकर श्रीराम कहते हैं कि उनकी इच्छा पूरी करो। किंकर्त्तव्य विमूढ़ लक्ष्मण जाता है और घबराकर इस सूचना के साथ लौटता है कि सीताजी श्रीराम के सारे परिश्रम को विफल कर अग्नि में प्रवेश कर रही है।
इधर पीछे से हनुमान्जी आते हैं और सूचित करते हैं कि सीताजी कहीं अधिक प्रभामण्डित होकर अग्रि में से ज्यों की त्यों निकल कर आई हैं। श्रीराम आश्चर्यचकित होकर पूछते हैं- कहाँ कहाँ? और सुग्रीव आकर सूचित करता है कि कोई दिव्य पुरुष जीवित जानकी को साथ लेकर धधकती अग्रि से निकलकर आ रहा है। श्रीराम देखकर अग्रिदेव को पहचानते हैं और अग्रिदेव के पास पहुँच जाते हैं। अग्रिदेव श्रीराम से कहते हैं कि जनक तनया साक्षात् लक्ष्मी है और मनुष्य रूप में आपके पास आई है। श्रीराम अग्रिदेव के इस अनुग्रह को स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि सीता की शुद्धता को जानते हुए भी लोगों के विश्वास के लिए ही उन्होंने सब कुछ कहा था। नेपथ्य से देव, गन्धर्व आदि का स्तुति गायन सुनाई देता है और अग्रिदेव श्रीराम को अभिषेक के लिए आमंत्रित करते हैं। श्रीराम की जय जयकार की ध्वनि होती है और अग्रिदेव सूचित करते हैं कि इन्द्र के आदेश से भरत, शत्रुघ्न और प्रजाजन सभी उपस्थित हो गए हैं। यहीं भरतवाक्य के साथ षष्ठ अंक और नाटक समाप्त हो जाता है।
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता