हेमंत मुक्तिबोध
कुत्ते दहशत में हैं । देश के प्रति उनकी वफादारी पर सवाल उठाए जा रहे हैं । सड़क से संसद तक उन्हें शक की निगाह से देखा जा रहा है । कुत्ता समुदाय में भयंकर रोष है। आक्रोश व्याप्त है । वो आहत भी है और उदास भी । उसे सत्ता की राजनीति में आखेट बनाया जा रहा है। एक राजनीतिक दल के बड़े नेता ने दूसरे दल पर अपने कुत्तों को शहादत के पुण्यलाभ से वंचित रखने का इल्जाम लगा दिया है । कुत्ते इस नस्लीय भेदभाव से भी आहत हैं कि वफादारी की गौरवशाली परंपरा के बावजूद न सिर्फ उन पर संदेह किया जा रहा है बल्कि शहादत की अपेक्षा भी सिर्फ कुत्तों से ही की जा रही है और पार्टियों के घोड़ों, गधों और खच्चरों को बख्श दिया गया है । सभी दलों के कुत्तों की जान सांसत में है । पॉलिटिकल डैमेज कंट्रोल के चक्कर में न जाने किसे कब फरमान मिल जाए और शहादत के लिए पूंछ पर कफ़न बांध कर निकलना पड़े । बेशक ये अन्याय है, लेकिन कुत्तों के लिए ये कोई नई बात नहीं है । उनकी वफादारी का ये सिला इंसान उन्हें सदियों से देता आया है। अब देखिए न । बेचारे एकलव्य वाले मासूम कुत्ते का भला क्या दोष था ? वह तो जंगल के आपने इलाके में राजपुत्रों की संदिग्ध गतिविधियों के खतरों से अपने वनमित्र एकलव्य को आगाह करने के लिए ही भौंक रहा था । लेकिन उसी ने उसका मुंह बाणों से भर कर उसकी बोलती बंद कर दी । ये सिलसिला तभी से जारी है । कुत्तों से द्वेष करने वाले किसी फिल्मी संवाद लेखक ने अपने धरम प्राजी के मुंह से कहलवा दिया कि ” कुत्ते, मैं तेरा खून पी जाऊंगा” और ये सुनते ही कुत्ता समुदाय में दहशत फैल गई । डर का आलम ये कि जैसे ही हेमापति धर्मेंद्र बीकानेर में चुनावी पर्चा दाखिल करने पहुंचे, सुना है कि बीकानेर कुत्तों से खाली हो गया । विकृत विमर्श ऐसे ही स्थापित किए जाते हैं । श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी में भारतीय शिक्षा प्रणाली को चौराहे पर पड़ी एक ऐसी मरी हुई कुतिया की उपमा दे दी जिसे हर कोई आते जाते ठोकर मारता रहता है । सोचिए, कुत्ता प्रजाति इससे कितनी आहत हुई होगी ? अल्प शिक्षित राजनेता और उच्च शिक्षित अफसरों के साथ शिक्षा माफिया के गठजोड़ ने शिक्षा को बदहाल कर दिया तो इसमें कुत्तों का क्या दोष? लेकिन ठीकरा उन्हीं के सिर । मुल्क छोड़ कर पाकिस्तान चले जाने का संकल्प जाहिर करने वालें एक बड़े शायर की बात पर एक धुरंधर कविकुमार ने कह दिया कि चलिए “दो पैसे की प्याली गई पर कुत्ते की जात पहचानी गई” । कुत्तों को इस बात पर कड़ी आपत्ति है कि जात तो आदमी की पहचानी गई लेकिन हमारी औकात दो पैसे की कर दी गई । अब कुत्तों का भला जातिवाद से क्या लेना देना है ? पर इंसान की भी तो अपनी फितरत और अपने पैमाने हैं । क्या किया जाए ?
जाति हो न हो, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि कुत्तों में स्तरभिन्नता, या वर्गीकरण या उच्चनीचता नहीं होती । कुछ गलियों में भौंकते रहते हैं, कुछ ग्लोबल हो जाते हैं । कुत्तों में भी सेलिब्रिटीज होते हैं जनाब । हॉलीवुड, बॉलीवुड, टॉलीवुड की कई फिल्मों में कुत्ते सितारा अभिनेता की श्रेणी में दिखाई दिये हैं । कुछ तो इतने किस्मत वाले निकले कि अंतरिक्ष यात्रा भी कर आए । कुत्तों के नामों से भी उनके लिविंग स्टैंडर्ड और सोशल स्टेटस का पता चलता है । गली में रहने वाले कुत्ते शेरू, भूरा, राजा जैसे ई डबल्यू एस टाइप के नामों से पुकारे जाते हैं । मध्यवर्गीय घरों के औसत भाग्य वाले कुत्ते टॉमी, टफी, टैजो जैसे नामों से जाने जाते हैं । उच्च वर्गीय अति धनाढ्य घरों के सुपर भाग्यशाली कुत्ते बिल्बो, बिंगो, अल्फ्रेड, एल्विन, स्पार्टन, क्लिफोर्ड जैसे जटिल नामों को धारण करते हैं ।
नाम कुछ भी हों और स्तर कोई भी हो, मगर वे प्रथमतः और अंततः होते तो कुत्ते ही हैं । इनमें कुछ वफादार होते हैं और कुछ समझदार । जो वफादार होते हैं उन्हें शहादत मिलती है और जो समझदार होते हैं उन्हें जन्नत । जिंदगी के साथ भी, जिंदगी के बाद भी । वह भी सदेह । भरोसा न हो तो इतिहास पढ़ लीजिए । जो अपनी नैसर्गिक फितरत में वफादार था , एकलव्य ने उसका मुंह बाणों से भर दिया । जो समझदार था वो युधिष्ठिर के साथ हो लिया और सदेह स्वर्ग के द्वार पहुंच गया । द्वापर से कलयुग तक यही सत्य है । वफादारों को शहीद कराने में आलाकमानों को भी कोई खास एतराज नहीं होता । वे डरते हैं कि समझदारों की सोहबत में कहीं वफादार भी समझदार हो गए तो मुश्किल हो जाएगी । इससे बेहतर है कि वे शहीद ही हो जाएं । एक राजनीतिक दल के नेताजी ने शब्दों की खड्ग से वफादार कुत्तों को ही पूंछ पर कफ़न बांध कर शहादत देने के लिए ललकारा है। उन्हें खतरा विरोधी दलों के वफादारों के जिंदा रहने से ही है। वे जानते हैं, जो समझदार होंगे वे तो वक्त बदलने पर समझदारी दिखाते हुए अपने नए युधिष्ठिर को पहचान ही लेंगे ।
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