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उच्चतम न्यायालय की गरिमा हनन का दोषी कौन?: आम जनता या स्वयं माननीय

*उच्चतम न्यायालय की गरिमा हनन का दोषी कौन?: आम जनता या स्वयं माननीय*
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दिनांक: ०१/०७/२०२२
स्थान: उच्चतम न्यायालय

*जज साहेब* :हाँ जी बताएं!

*अधिवक्ता महोदय* : मीलॉर्ड! मेरी मुवक्किला *नूपुर शर्मा* के खिलाफ विभिन्न  राज्यों के थानों में मुकदमे दर्ज हैं। मैं मीलॉर्ड से निवेदन करता हूँ कि मेरी मुवक्किला को बलात्कार,जान से मारने की धमकी मिल रही है और उन्हें खुद को *जान से मार दिए की गम्भीर आशंका है,अतः सभी मुकदमों को किसी एक जगह स्थानांतरित कर दिया जाय।*

*जज साहेब* : अधिवक्ता महोदय! *आपकी मुवक्किला को मैजिस्ट्रेट कोर्ट में जाना चाहिए? क्या वो निचली अदालतों को तुच्छ समझती हैं? आप सुप्रीम कोर्ट में सीधे क्यों चले आये?*

*अधिवक्ता महोदय* : मीलॉर्ड! मेरी मुवक्किला एक महिला हैं और बहुत ही भयभीत हैं क्योंकि *उदयपुर में सिर्फ उनको समर्थन करने वाले एक व्यक्ति की बर्बरता पूर्वक हत्या कर दी गयी।*

इतना सुनते तेजोमय *उच्चतम न्यायालय के जज साहेब का उच्च रक्तचाप,उच्चता को पार करते हुए उच्चतम होता गया और परिणाम स्वरूप आक्रोश भी उच्चतम हो गया। जज साहेब इतने  प्रखर आक्रोश के गुरुत्व बल को प्राप्त करने के बाद दुर्वासा ऋषि की मानसिक भूमिका में परिवर्तित होते गए और उसके बाद उनके प्रवचन का एक एक शब्द उच्चतम न्यायालय की गरिमा धारदार खांड की तरह खंडित करता गया।* शाम होते होते भारत के आम जनमानस ने जितना अपमान जज साहब,उच्चतम न्यायालय का किया उतना तो क्या उसका 1 प्रतिशत भी  शायद 75 सालों में न हुआ होगा। देश की 1 करोड़ से अधिक जनता ने सड़कों से सोशल मीडिया पर जो अभद्र,अपमानजनक टिप्पणियां की उच्चतम न्यायालय के विरुद्ध,आमजन का जो भरोसा टूटा उसका जिम्मेवार जज साहेब को ठहराने के लिए मुख्य न्यायाधीश महोदय तैयार होंगे।

*अब संक्षेप में पढ़ें जज साहब ने क्या कहा:*
*”अधिवक्ता महोदय! प्रार्थिनी राजनैतिक दल की प्रवक्ता हैं।उन्हें सोच समझ कर बोलना चाहिए। वो सोचती हैं कि वो सत्ता में हैं तो उन्हें कुछ भी बोलने का अधिकार है,प्रार्थिनी सत्ता मद में है,निचली अदालतों को तुच्छ समझती हैं और सीधा सुप्रीम कोर्ट आ गईं। आज देश विदेश में जो भी दंगा,हिंसा हो रहा है उसकी “एकमात्र जिम्मेवार” प्रार्थिनी हैं। “उदयपुर” में जिस व्यक्ति की हत्या हुई वो भी “प्रार्थिनी के उकसावे वाले वक्तव्य” के कारण हुई है। प्रार्थिनी “बेशर्म” हैं,उन्हें टीवी पर माफी मांगनी चाहिए। पुलिस ने उनको अब तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया?*

इसके बाद प्रार्थिनी की याचिका Dismiss as Withdrawn हो गयी।
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जज साहब के इस राजनैतिक भाषण को मीडिया वालों ने जस का तस परोस दिया और पूरे देश में शाम होते होते भूचाल आ गया। *जब आदेश की प्रति आयी तो जज साहब के गरिमाहीन राजनैतिक प्रवचन का एक भी शब्द नहीं था परन्तु,जो गरिमा पर चोट लगनी थी लग चुकी थी। नूपुर शर्मा ही नहीं उनके समर्थकों की हत्या,बलात्कार की गंभीर सम्भावना बढ़ गयी।*

*अब जज साहब से कुछ सवाल:*

1.माननीय! बतौर अधिवक्ता जितना अल्पज्ञान है मुझे,उसके अनुसार स्थानांतरण याचिका की सुसंगत जगह उच्चतम न्यायालय ही है।

2.माननीय! क्या आपने नवभारत चैनल पर हुई बहस का वीडियो क्लिप देखने के बाद गैर आवश्यक टिप्पणी किया था? यदि नहीं तो, आपकी टिप्पणी आपके गरिमा व संविधान के प्रतिकूल थी। यदि हां तो मान्यवर क्या आपने ये नहीं देखा कि तस्लीम रहमानी किस प्रकार शिवलिंग पर भद्दा व अपमानजनक टिप्पणी करते हुए शिवलिंग को शिश्न(पुरुष जननेंद्रिय) बता रहा था,जबकि नूपुर ने हदीस बुखारी के हदीस 1534 का हवाला देते हुए अपनी बात कही। अब आप बताएं कि हिंदुओं की धर्मिक भावनाओं का कुछ नहीं और आपने अपनी अनावश्यक टिप्पणी से हिन्दू जनमानस को आक्रोशित कर दिया।

3.माननीय! क्या आपने तमाम दंगों व पत्थरबाजी के दौरान लगाए जा रहे नारों यथा “गुस्ताखे रसूल की एक ही सजा”
“सर तन से जुदा सर तन से जुदा”
को नहीं सुना? क्या आपने मुस्लिम उलमाओं,मौलवियों द्वारा नूपुर का बलात्कार,हत्या के लिए जारी फतवों को नहीं सुना?

4. माननीय! आपकी घोर आपत्तिजनक टिप्पणी में एक महिला को भरी अदालत में “बेशर्म” कहना क्या आपके द्वारा पारित आदेशों की अनदेखी नहीं है।

5. *माननीय! क्या आपको नहीं लगता कि,आपकी इस अनावश्यक अलिखित टिप्पणी का पुलिस,निचली अदालतों पर दुष्प्रभाव होगा?*
6.*माननीय! क्या आपको नहीं लगता कि आपकी टिप्पणी जेहादी हत्यारों का मनोबल बढ़ाएगी और उनको लगेगा कि उनके द्वारा की गई हत्या उचित है?*

मैं मानता हूँ कि आपने न्याय के सर्वोच्च मंदिर में बैठ कर अनुचित कार्य किया है और इसकी गरिमा को धूल धूसरित किया है। *रही बात न्यायालयों में भ्रष्टाचार की तो आप ने खुद ही समय समय पर इस बात को माना है। मैं रुपये पैसे के भ्रष्टाचार से इतर, समय पर मुकदमों का फैसला न हो पाना ही सबसे बड़ा भ्रष्टाचार मानता हूँ। बड़े बड़े वकीलों को आप घण्टा घण्टा भर सुनते हैं और वैसे मामलों को भी सुनते हैं जो पहले ट्रायल कोर्ट,हाई कोर्ट से निर्णीत होने के बाद ही आपके पास आना चाहिए। “हमारे जैसे वकीलों के मामले तो रजिस्ट्री में ही धक्के खाते फिरते हैं,और जब मशक्कत के बाद आपके तक पहुंचते हैं तो ऐसा लगता है हम लालबत्ती के भिखारी हैं जिनके लिए कोई अपने कार के शीशे तक नहीं खोलता मान्यवर!”*

इस प्रकार की गैर जरूरी अदालती टिप्पणियां मीडिया के लिए बड़ी खबर व आमजन के आक्रोश का कारण बन जाती हैं, और चूंकि *लिखित आदेश न होने के कारण ऐसी टिप्पणियों के लिए समीक्षा(Review) व परिष्करण(Refinement or Amendment) का कोई उपाय व रास्ता ही नहीं बचता है।*

*कोई कुछ भी कहता रहे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई ऐसी टिप्पणियों को लोग ब्रह्म वाक्य मान लेते हैं और उसके आधार पर पक्ष विपक्ष में अवधारणा(Perception) व कथ्य(Narrative) का निष्पादन करने लगते हैं। यहां तक कि देश के उच्च न्यायालय व निचली अदालतें इस प्रकार अनावश्यक टिप्पणियों को गंभीरता से देखती है और घातक परिणाम ये होता है कि निष्पक्ष फैसलों पर भी लोग सन्देह करते हैं।*

*19वीं सदी के मध्य में दास प्रथा से सम्बंधित मुकदमा देज़्ड स्कॉट बनाम सैंडफोर्ड मामले में अमेरिकी उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रोजर टेनी के एक टिप्पणी की वजह से अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ गया और अमेरिका ने 13वें व 14वें संविधान संशोधन के द्वारा दास प्रथा को समाप्त किया तथा अमेरिका में रहने वाले सभी को नागरिकता का अधिकार दिया। अब्राहम लिंकन की हत्या का एक कारण जज की टिप्पणी भी रही।*

माननीय! आप अपनी आलोचना से इतना व्यथित हो गए कि कल आपने सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की सरकार से निवेदन कर डाला।

*माननीय! देशद्रोह,आतंकियों,नक्सलियों, कश्मीरी अलगाववादियों  के मानवाधिकार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उन्हें आप ही हर मर्यादा व लक्ष्मण रेखा लांघने की इजाज़त देते हैं, लेकिन,कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार पर,गोधरा में ट्रेन में जिंदा जलाए जाने पर,2020 के दिल्ली दंगों पर,बंगाल में धार्मिक हिंसा पर,नवनीत राणा  के हनुमान चालीसा पढ़ने पर देशद्रोह का मुकदमा,इन पर आपकी कोई टिप्पणी नहीं सुना मैंने।*

उपसंहार ये है कि माननीय, आपकी गैर जरूरी टिप्पणी ने पूरे देश की जनता को, मीडिया को इस न्याय मंदिर के प्रति अभद्रता पूर्ण व्यवहार करने का एक मौका दे दिया। *माननीय क्या आपको लगता नहीं कि, अगर आमजन को लक्ष्मण रेखा नहीं लांघना चाहिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर तो क्या आपका व्यवहार लोकाचार के सबसे वृहद रूप प्रभु मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की तरह नहीं होना चाहिए?* आपकी टिप्पणी ने हमें भी तो शर्मसार किया है। क्या आपको नहीं लगता कि,हम अधिवक्ता गण इस संस्थान के वैसे ही स्तम्भ हैं जैसे आप? *हम अधिवक्ता तमाम मौकों पर ज़लील किये जाते हैं आपके द्वारा इसके बाद भी Highly Obliged बोल कर ही जाते हैं।* क्या हमारी मान मर्यादा का भान आपको रहता है माननीय?*  *क्या आपको नहीं महसूस हुआ कि आक्रोशितआमजन व अधिवक्ताओं की आपके प्रति निष्ठा में घनघोर गिरावट आई है?*

न्याय मंदिर की मर्यादा की अक्षुण्णता की शुभेच्छा रखते हुए अपनी वाणी को विराम देता हूँ।
धन्यवाद!

सन्तोष पांडेय

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