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जय भीम , जय मीम का नैरेटिव सिर्फ़ और सिर्फ़ फ्राड है

दयानंद पांडेय

जय भीम , जय मीम के पैरोकारों को इस्लाम और मुस्लिम समाज पर एक बार आंबेडकर के विचार ज़रूर जान लेना चाहिए । इस एक लेख में अम्बेडकर की एक किताब पाकिस्तान के निर्माण की बेचैनी के मार्फत बहुत सी बातें स्पष्ट कही गई हैं । मुस्लिम समाज के जातीय संघर्ष , सामाजिक मुद्दों , राष्ट्रीय अवसाद आदि पर खुल कर लिखा है आंबेडकर ने । 1857 के विद्रोह तक को आंबेडकर हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक नहीं मानते । वह उसे मुसलमानों द्वारा ‘ छीनी गई ‘ शासक की भूमिका को फिर से पाने के लिए अंग्रेजों से छेड़ा गया विद्रोह मानते हैं । आंबेडकर ने मुस्लिम समाज और उन की विसंगतियों को ले कर यह एक किताब ही नहीं और भी बहुत कुछ लिखा है ।

आंबेडकर मुस्लिम समाज को अभिशाप शब्द से याद करते हैं । पाकिस्तान बंटवारे के बाबत इस किताब छपने के पंद्रह साल बाद लिखे एक लेख में आंबेडकर लिखते हैं कि जब विभाजन हुआ , तब मुझे ऐसा लगा , मानो ईश्वर ने इस देश को दिया हुआ ‘अभिशाप ‘ वापस ले लिया है , और अब अपने देश को , एक रखने का , महान और समृद्धशाली बनाने का रास्ता साफ़ हो गया है ।

आंबेडकर की स्पष्ट धारणा है कि इस्लामी जनता से अलग हो कर ही भारत का विकास हो सकता है । अम्बेडकर यह भी लिखते हैं कि , कितना भी तुष्टिकरण किया जाए , आक्रांता की कितनी भी अनुनय-विनय की जाए , उन की मांगों का अंत नहीं होता । मुस्लिम समाज के बाबत आंबेडकर की कही यह बात आज भी जस की तस है । हमारे मुस्लिम दोस्तों को आंबेडकर के विचारों को जान कर , उस आलोक में भी अपने भीतर बदलाव के लिए , अब से सही ज़रूर सोचना चाहिए ।

हालां कि हमारे मुस्लिम दोस्तों का जो मदरसा माइंड सेट है , तालिबानी प्रवृत्ति है , आंबेडकर की इन बातों को ठंडे दिमाग से सोच कर , स्वीकार कर अपने बीच सुधार करने के बजाय उन्हें भड़कने के सिवाय कुछ नहीं सूझेगा । इस लिए कि वह अपने भीतर बदलाव के लिए किसी सूरत तैयार नहीं हैं । मज़हबी कट्टरता , मदरसा की पढ़ाई , तालिबानी प्रवृत्ति उन्हें इस बात की इज़ाज़त नहीं देती तो नहीं देती । मेरा मानना है कि तालिबानी प्रवृत्ति और कुछ नहीं , अपने को सुप्रीमो समझने की बीमारी है , कुछ और नहीं । आक्रमणकरी बन कर भारत आने और खून खराबे के बूते सैकड़ों साल के मुगलों के शासन ने इस प्रवृत्ति को पैदा किया है ।

मुस्लिम समाज में सुधार और शिक्षा की सोचने के बजाय वह तो बिना आंबेडकर को पढ़े दलितों को मिले आरक्षण की बैसाखी को पाने की लालसा में मुस्लिम समाज में इन दिनों आंबेडकर जैसा नेता पा लेने की तमन्ना भी रखते हैं । सुविधा पाने और शासक बनने की यह तमन्ना भी बुरी नहीं है । लेकिन तुष्टिकरण के कंधे पर बैठ कर , इफ्तार खा कर खुश होने , तिहरे तलाक़ , हलाला , शरिया क़ानून की बिना पर , कश्मीर जैसे जन्नत को जहन्नुम बना कर तो किसी सूरत नहीं ।

दुनिया अब शरीफ शहरी को स्वीकार करती है , क़ानून के राज को स्वीकार करती है । लेकिन आप तो समान नागरिक संहिता से ही डरते हैं । आप को तो क़ानून का राज नहीं , मज़हबी कट्टरता और शरिया का क़ानून चाहिए । शहर-दर-शहर चाहिए । नहीं दे सकते तो फिर पाकिस्तान जैसा मुसलमानों के लिए एक और नया देश चाहिए। अगर मुस्लिम समाज को ऐसा नहीं चाहिए था तो इस शरिया कानून के विरोध में कहीं कोई जुलूस , कोई प्रदर्शन मुझे तो अभी तक नहीं दिखा कहीं । ख़ामोशी की एक लंबी सुरंग ज़रूर मिली । यह वही मुस्लिम दोस्त हैं जो फ़्रांस में भी एक कार्टून छपता है तो हिंदुस्तान में आग लगा देते हैं । सीरिया में भी कुछ होता है तो हिंदुस्तान सुलगा देते हैं । रोहिंगिया के लिए जान लड़ा देते हैं । इसी लिए इस्लाम और मुस्लिम समाज के अंतर्विरोधों की नब्ज़ जानने के लिए आंबेडकर को पढ़ना आज भी प्रासंगिक है और ज़रूरी भी है , मुस्लिम दोस्तों को । जय भीम , जय मीम का नारा लगाने के पहले तो ज़रूर ही ।

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