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टुकड़ों में कटता प्रेम और रिश्तों का संबंध – सिद्गार्थ शंकर गौतम

इन दिनों एक से एक वीभत्स हत्याओं की खबर आ रही हैं। ऐसी घटनाओं में हत्या ही नहीं की जा रही बल्कि हत्या के बाद वीभत्स तरीके से शवों को ठिकाने भी लगाया जा रहा है।

नई दिल्ली में प्रेमी आफताब पूनावाला द्वारा श्रद्धा वॉकर की निर्ममतापूर्ण हत्या के बाद शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके फेंकने का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ था कि झारखण्ड के साहिबगंज में दिलदार अंसारी ने आदिवासी लड़की रुबिका पहाड़ी की हत्या कर शव के 50 टुकड़े किए और उन्हें जंगलों में फेंक दिया।

उधर जयपुर में एक भतीजे ने अपनी चाची का खून किया और उनके शव को 10 टुकड़ों में काटकर उसे सूटकेस में भरकर जंगलों में फेंक आया। इससे पहले उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद के मोदी नगर इलाके में मकान मालिक उमेश ने अपने किरायेदार पीएचडी स्कॉलर अंकित खोकर की गला दबाकर हत्या करने के बाद उसके शव को टुकड़ों में काट कर फेंक दिया।

दिल्ली में ही एक महिला पूनम ने अपने बेटे दीपक के साथ मिलकर अपने पति अंजन दास की हत्या की, पति के शव के टुकड़े करके फ्रीज में रखे और फिर उन टुकड़ों को एक-एक कर जंगल व नाले में फेंकने जाने लगे।

ऐसा ही एक हृदयविदारक समाचार बिहार के नालंदा से आया जहाँ शादीशुदा प्रेमिका ज्योति से मिलने पहुंचे युवक विकास की बेरहमी से हत्या कर दी गई और उसके शव के 6 टुकड़े करके उन्हें अलग-अलग जगहों पर फेंक दिया गया। आश्चर्य तो इस बात का हुआ जब पता चला कि इस घटना को ज्योति ने डर के कारण अपने ही पति के साथ मिलकर अंजाम दिया।

ये कुछ घटनाएं हैं जो मीडिया और पुलिस की तत्परता के कारण देश के सामने आ सकीं, जिन्होंने जनता को झकझोर कर रख दिया। सन्न कर देने वाली ये वारदातें साबित करती हैं कि इंसान अब पहले से अधिक क्रूर, निर्मम तथा असंवेदनशील हो चुका है। लिंग-भेद से परे, सभी इस प्रकार के जघन्य हत्याकांडों को अंजाम देते जा रहे हैं तथा पकड़े जाने पर किसी भी अपराधी को अपने किये पर पछतावा नहीं है।

आखिर यह कैसा मनोविज्ञान है जो इन कातिलों पर हावी है? इतने वीभत्स हत्याकांड को कैसे अंजाम दिया जा रहा है? हत्या करने के अनोखे तरीके लोग कैसे सीखते जा रहे हैं? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर जानना बहुत आवश्यक है।

फिल्म और वेब सीरीज असली मुलजिम हैं?

आफताब ने श्रद्धा की जिस बर्बरता से हत्या की और उसके शव को टुकड़ों में ठिकाने लगाया, कमरे में पड़ा खून धोया; इन सबकी प्रेरणा एक अमेरिकी वेब सीरीज डेक्सटर थी जिसे देखकर उसने हत्या से लेकर पुलिस को गुमराह करने तक का प्लान बनाया। 90 के दशक में अभिनेता शाहरुख़ खान की एक फिल्म आई थी ‘बाजीगर’ जिसमें वे अपनी प्रेमिका की हत्या के बाद सबूत मिटाने निकलते हैं और उसकी महिला मित्र का खून करके उसकी लाश को सूटकेस में भरकर समुद्र में फेंक आते हैं। फिल्म में की गई अदाकारी ने शाहरुख़ को भले ही प्रसिद्धि दी हो किन्तु इसके बाद से लेकर आज तक महिलाएं, पुरुष सूटकेस में मृत पाये जाते हैं।

भारत में लव जिहाद का शिकार हुई हिन्दू लड़कियां बहुतायत में या तो सूटकेस में मृत मिली हैं अथवा उनके टुकड़े-टुकड़े हुए हैं। हाल ही में वध नामक एक फिल्म में एक पिता पैसों की उगाही करने वाले गुंडे की हत्या कर उसके शव के टुकड़ों को फेंक आता है, कपड़ों को जला देता है और उसकी हड्डियों को आटा-चक्की में पीस देता है ताकि सबूत ही न बचे।

कहते हैं, फिल्में समाज का आइना होती हैं और जो समाज में होता है वे उसी का प्रस्तुतीकरण करती हैं किन्तु समय बदल गया है और अब फिल्में और समाज दोनों एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं। समाज फिल्मों से सीख ले रहा है और फिल्में समाज में घट रही घटनाओं को मसाला लगाकर परोस रही हैं। स्थिति चिंताजनक ही नहीं, विस्फोटक है।

वीभत्स हत्याओं के पीछे का मनोविज्ञान

एक आम नागरिक जो अच्छी जिंदगी जी रहा है, अपने रिश्ते में खुश है, नौकरी करता है, आर्थिक रूप से संपन्न है, उससे यदि गुस्से में कोई घातक कदम उठे तो इसे गलती से उठा कदम मान सकते हैं किन्तु सोची-समझी रणनीति व षड़यंत्र के तहत पहले हत्या, फिर शव के टुकड़े करना, उन्हें धोना, फ्रिज में रखना, जंगलों-नालों में फेंकना और फिर पुलिस को भी गुमराह करना किसी मानसिक विकार के ही लक्षण हैं।

इतनी वीभस्तता के बाद एक सामान्य व्यक्ति डर जाता है किन्तु उपरोक्त जितने भी उदाहरण दिए गए हैं उनके किसी भी गुनाहगार को अपने किये का पछतावा नहीं है। निःसंदेह यह एक ऐसा मानसिक रोग है जिसमें व्यक्ति डर से ऊपर उठकर हर वो बर्बरता करता है जो आम व्यक्ति सपने में भी नहीं सोच सकता।

सामान्य व्यक्ति इतना वहशी नहीं हो सकता। एक अपराधी की साइकोलॉजिकल कंडीशन कैसी है, वह नार्मल है या एबनार्मल; यह पता लगाना पुलिस का काम है किन्तु हमारे देश में साइकोलॉजिस्ट का अपराध सुलझाने में बहुत कम प्रतिशत है जबकि विदेशों में छोटे से छोटे अपराध को सुलझाने में पुलिस के साथ साइकोलॉजिस्ट घटनास्थल तक जाते हैं। ऐसे में जघन्य अपराधों को अंजाम देने वाले अपराधियों के मनोविज्ञान पर बहुत कम शोध हुए हैं देश में।

अभी नेट्फ्लिक्स पर इंडियन प्रीडेटर नामक एक वेब सीरीज आ रही है जिसके हर एपिसोड में भारत के सबसे जघन्य हत्याकांडों और उनके पीछे अपराधी के मनोविज्ञान को समझाने का प्रयास किया जा रहा है किन्तु यह थोड़ा नाटकीय हो रहा है।

अच्छा होता कि पुलिस अपराध को अंजाम दिए जाने के समय ही अपराधी का मनोविज्ञान समझती और उसके शोध को पुलिस में शामिल होने वाले हर अधिकारी-कर्मचारी को पढ़ने को दिया जाता ताकि इतने जघन्य अपराधों में अपराधी के मनोविज्ञान को समझने में सहायता मिलती। साथ ही, पुलिस भविष्य के लिए भी चौकस होती। फिलहाल तो ऐसी वारदातों से देश दहल उठा है और लोगों में भी डर का माहौल है।

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