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भारतीय ज्ञान परंपरा के लोप का अधिकार शासक और शासन को नहीं है

-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
सभी प्राणी और सभी मनुष्य अपने-अपने कर्तव्य का पालन करें। वे सब स्वधर्म में निरत रहें, इसमें राजा को व्यवधान नहीं डालना चाहिये। प्रजा को स्वधर्म में प्रवृत्त रखने से प्रजा भी सुखी रहती है और शासक भी सुखी रहता है। दोनों इस लोक में भी सुखी रहते हैं और परलोक में भी सद्गति प्राप्त करते हैं। आर्य मर्यादा को व्यवस्थित रखना और वर्णों और आश्रमों की व्यवस्था सुचारू चलती रहे यह देखना शासन का काम है। जो शासन और जो प्रजा इस प्रकार अपनी मर्यादा में रहते हैं, वे कभी दुखी नहीं होते। सदा आनन्दित ही रहते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि राजा का काम समाज का अपने मन से पुनर्गठन करना नहीं है। ऐसा पुनर्गठन पाप है। परंतु लोगों की सर्वसम्मति से तथा व्यापक संवाद के द्वारा और शिष्ट परिषदों तथा विद्वत् परिषदों में सम्पन्न विमर्श एवं निर्णयों के द्वारा पुनर्गठन होता रह सकता है।
किसी भी स्थिति में भारतीय ज्ञानपरंपरा का लोप करने का अधिकार शासक को नहीं है। क्योंकि परमब्रह्म ने ही समस्त प्राणियों को और तत्वांे को रचा है, वे ही उसके पोषक हैं। अतः उस ज्ञान परंपरा का लोप परमब्रह्म की रचना का अनादर है जो महापाप है। सत्य ज्ञान के लिये शास्त्र ही उपकरण हैं। वेदांत सूत्र में शास्त्रों को ही ब्रह्म और ज्ञान की योनि कहा है। उस सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान के सही स्वरूप को जानना शास्त्रों द्वारा ही संभव है। अतः शास्त्र के अध्ययन, अध्यापन की परंपरा का लोप करने वाला शासन पापी है। वह स्वयं ब्रह्म की ही अवज्ञा कर रहा है। ब्रह्म और जगत में अभिन्नता है और सृष्टि की परंपरा को बाधित करना ब्रह्म की सत्ता में हस्तक्षेप का दुस्साहस है। वेदों और उपनिषदों में ही सृष्टि एवं मूलतत्व से संबंधित सिद्धांत निरूपित हैं। अतः उनके अध्ययन की व्यवस्था करना शासन का अनिवार्य कर्तव्य है। पुराणों में जगत का विवरण विस्तार से दिया गया है और उसमें पृथ्वी के भागों, वर्षों, पर्वतों, नदियों, समुद्रों तथा देशों का विस्तृत वर्णन है। काल की गति तथा सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की गति का भी पुराणों में विस्तृत प्रतिपादन है। सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में सनातन धर्म के रक्षक राजाओं का ही शासन था और भारतीय राजाओं का शासन सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में रहे ऐसा प्रयास करना शासन का कर्तव्य है, यह शास्त्रों का कथन है। अशोक के रूपनाथ प्रस्तरलेख में जम्बूद्वीप शब्द का उल्लेख है। अतः स्पष्ट है कि ईसा से कई शताब्दियों पहले सम्पूर्ण जम्बूद्वीप भारतीय राजाओं के शासन का क्षेत्र था। विष्णु पुराण, वामन पुराण और वायु पुराण में विस्तार से यह बताया है कि समस्त पृथ्वी पर भारतीय राजा शासन करते रहे हैं। वायु पुराण में यह भी कहा है कि मनु ने सम्पूर्ण विश्व का भरण पोषण किया। इसीलिये उन्हें भरत कहा गया और जिस क्षेत्र में उनका निवास था, वह क्षेत्र भारतवर्ष कहा गया। मनु के बाद ऋषभ पुत्र भरत भी चक्रवर्ती सम्राट हुये और दुष्यंत पुत्र भरत भी। इस प्रकार भरत नाम की निरन्तरता बनी रही और इसीलिये भारतवर्ष के चक्रवर्ती सम्राट को भारत कहने की परंपरा भी बनी रही। यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बार-बार भारत कहते हैं क्योंकि युधिष्ठिर के शासन का आधार अर्जुन का शौर्य ही है।
-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

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