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गरमाता राजनैतिक पारा

अमित त्यागी और एस.पी. सिंह

धारात्मक परिवर्तन एक समय चक्र में पूर्ण होता है। बदलाव धीरे धीरे दिखाई देता है। उत्तर प्रदेश सरकार एक साल पूरा होने की तरफ बढ़ रही है। सरकार के द्वारा नीतिगत फैसलों से जनता में अच्छा संदेश जा रहा है। कानून व्यवस्था में सुधार ऊपरी स्तर पर भी दिख रहा है और अंदरूनी स्तर पर भी एंकाउंटर द्वारा सफाई अभियान जारी है। ऐसे ही एंकाउंटर राजनैतिक दलों द्वारा अपने अपने भीतर भी किए जा रहे हैं। भाजपा को समझ आ चुका है कि संघटन में बाहरी नेताओं से नुकसान होता है। वह अब अपने पुराने नेताओं को संगठन में वरीयता देने जा रही है। बूथ लेवेल पर मजबूती की तैयारी की जा रही है। हर माह मण्डल स्तरीय बैठकों में बूथ टोली को मतदाताओं से करीब रिश्ता बनाने का कहा गया है। मण्डल स्तर भाजपा में ब्लॉक स्तर की इकाई होता है। भाजपा में संगठनात्मक रूप से कुल 1471 मण्डल हैं। भाजपा के प्रदेश पदाधिकारियों से लेकर क्षेत्रीय और जिले के वरिष्ठ पदाधिकारी इस पर काम करना शुरू कर चुके हैं। लगभग ढाई सौ से ज्यादा पदाधिकारियों को चार से छह मण्डल आवंटित किए जा चुके हैं। अमित शाह बूथों को मजबूत करने की रणनीति बनाते रहे हैं। विधानसभा चुनावों में इसी रणनीति के द्वारा उन्होनें प्रचंड जीत हासिल की थी। सहकारिता पर भी अमित शाह का विशेष ध्यान है।

सहकारिता चुनाव से ग्रामीण बूथ पर भाजपा

2017 के विधानसभा और नगर निकाय चुनावों में परचम लहराने के बाद भाजपा का सहकारिता चुनावों पर ध्यान केन्द्रित किए है। सहकारिता के चुनाव हाई प्रोफाइल चुनाव नहीं होते हैं। उत्तर प्रदेश में अब तक सपा सहकारिता पर कब्जा जमाती रही थी। सपा के सत्ता में पंहुचने में सहकारिता का बड़ा योगदान रहा है। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह गुजरात में सहकारिता से आज भी जुड़े हैं। वह इसका महत्व जानते हैं। उन्होंने ही उत्तर प्रदेश में सहकारिता चुनावों में भाजपा को योजनाबद्ध तरीके से उतारा है। सहकारिता की जड़ें ग्रामीण क्षेत्रों में पार्टी का कैडर मजबूत करती है। फरवरी में होने जा रहे इन चुनावों में इस बार भाजपा की दावेदारी मजबूत भी है और दमदार भी।

सपा में शिवपाल यादव को सहकारिता का मास्टर माइंड कहा जाता है। मुलायम सिंह यादव की राजनीति भी सहकारिता मंत्री का पद मिलने के बाद परवान चढ़ी थी। जब तक उत्तर प्रदेश में क्षेत्रीय दल बसपा एवं सपा की सरकारें रहीं, तब तक सहकारिता पर सपा का कब्जा रहा। अब सपा में फूट सड़क पर आ चुकी है। अखिलेश और शिवपाल की लड़ाई ने सपा को कमजोर किया है। सहकारिता चुनावों में इसका खामियाजा सपा को भुगतना पड़ेगा। चूंकि सहकारिता चुनावों में सपा के कमजोर होने का अर्थ है शिवपाल खेमे का कमजोर होना, इसलिए अखिलेश यादव इन चुनावों में विशेष रुचि नहीं दिखा रहे हैं।

शिवपाल बना सकते हैं नया दल :

हालांकि, ऐसी चर्चाएँ पिछले एक साल से चल रहीं थीं। कई बार शिवपाल ने तारीख भी मुकर्रर कर दी थी। पर लगता है इस बार शिवपाल यादव अपना आत्मसम्मान बचाने का निश्चय कर चुके हैं। अपने भतीजे अखिलेश यादव से मात खाये एवं अपने भाई मुलायम सिंह यादव का चक्रव्यूही साथ पाये शिवपाल यादव इस समय सबसे खराब दौर में हैं। शिवपाल यादव का कहना है कि फरवरी में वह राजनैतिक रूप से कोई बड़ा निर्णय ले लेंगे। अगर उनके भाई मुलायम सिंह यादव साथ आते हैं तो वह समाजवादी लोकदल नाम से नए दल का आगाज कर देंगे। अगर उनके भाई साथ नहीं आते हैं तो वह अपने साथियों के साथ कांग्रेस का दामन थाम लेंगे।

शिवपाल यादव का कहना है कि अब बहुत हो चुका है। सभी अपने पराए साफ हो चुके हैं। जितना समय देना था उतना दे दिया है। नेताजी का आशीर्वाद तो सदा मिलेगा। सुनने में यहाँ तक आ रहा है कि अपनी बात न माने जाने के कारण नेता जी भी अखिलेश यादव से नाराज चल रहे हैं। अगर वह खुलकर अखिलेश के विरोध में आ जाते हैं तो शीघ्र ही समाजवादी लोकदल नाम के नए राजनैतिक दल का उदय दिखाई देगा जिसमें सभी पुराने समाजवादी एकजुट दिखेंगे। पर नेताजी तो नेताजी हैं। उनके दांव आखिरी समय तक नहीं खुलते हैं। अभी तक तो वह दिखते शिवपाल यादव के साथ हैं पर साथ अखिलेश यादव का देते रहे हैं।

मायावती को दलित वोट बैंक की है चिंता

उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रहने वाली मायावती इस समय वनवास की तरह जी रही हैं। जबसे उनका दलित वोट बैंक भाजपा ने हथियाया है तबसे उनका रुतबा कम हुआ है। इस वर्ष उनके जन्मदिन की सादगी और नीरसता इस बात को स्पष्ट कर गयी कि उनका ग्राफ काफी गिरा है। उनके कई बड़े नेता उनके साथ अब नहीं हैं। वह अकेली दिखती हैं। दलितों में जाटव को छोड़कर बाकी दलित उनसे कट गया है। मायावती को चिंता इस बात की है कि भाजपा नवंबर में लोकसभा चुनाव करा सकती है। बसपा के पास तब तक अपना कैडर वोट इक_ा रखना बहुत मुश्किल है। मायावती किसी दल के साथ गठबंधन की पक्षधर नहीं है। वह अकेले बूते चुनाव लडऩा चाहती हैं।

इसके दूसरी तरफ अखिलेश यादव का कहना है कि वह आज भी कांग्रेस के साथ गठबंधन में हैं। इसका सीधा अर्थ है कि उत्तर प्रदेश में आगे भी दोनों युवाओं की जोड़ी जारी रहेगी। अगर शिवपाल यादव कांग्रेस के साथ जुड़ते हैं तो सपा को ज्यादा नुकसान नहीं होगा। क्योंकि सपा और कांग्रेस में गठबंधन है और एक तरफ के नुकसान की भरपाई दूसरी तरफ से पूरी हो जाएगी।

राहुल-अखिलेश को नसीहत देते योगी

योगी आदित्यनाथ ने राहुल और अखिलेश को दो टूक शब्दों में कह दिया है कि ये दोनों नकारात्मक राजनीति छोड़कर अपने अपने क्षेत्र का विकास देखें। राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद पहले दौरे पर योगी आदित्यनाथ ने राहुल गांधी से कहा कि वह इधर उधर की बातें छोड़कर पहले अपने संसदीय क्षेत्र का विकास करें। सकारात्मक राजनीति करें। अखिलेश यादव को योगी जी नसीहत दे रहे हैं कि वह अपने गुर्गों को खुले में विचरण न करने दें। उनका इशारा आजमगढ़ में जहरीली शराब से ग्रामीणों की मौत एवं हरदोई में सपा नेताओं का शराब बनाने में पकड़े जाने को लेकर था। इसके साथ ही जिस तरह से समाजवादियों ने मुख्यमंत्री आवास के आस पास आलू फैलाये थे उस पर भी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से नाराज दिख रहे हैं। वह इसे सपा के द्वारा माहौल खराब करने की साजिश बता रहे हैं।

कांग्रेस को संजीवनी देने की कोशिश में राज बब्बर

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल विस्तार के बाद राज बब्बर उत्साहित दिखने लगे हैं। उनको लगता है कि अगर कांग्रेस ने निकाय चुनावों में बेहतर प्रबंधन किया होता तो उनके लिए बेहतर परिणाम आ सकते थे। अब राज बब्बर ने बेहतर प्रबंधन क्यों नहीं किया था इसका जवाब तो वह ही दे सकते हैं। कांग्रेस को मजबूत करने के क्रम में राज बब्बर अब हर जिले में तीन दिवसीय कार्यकर्ता सम्मेलन करने जा रहे हैं। राज बब्बर के साथ एक मुश्किल यह है कि कांग्रेस कार्यकर्ता बार बार उनसे तीन तलाक पर पार्टी का स्टैंड पूछते हैं। अब चूंकि कांग्रेस इस समय तीन तलाक के मुद्दे पर पसोपेश में है इसलिए इसका कोई स्पष्ट जवाब किसी कांग्रेसी के पास नहीं है। वह सिर्फ यह कह कर पल्ला झाड़ रहे हैं कि कांग्रेस शरीयत का सम्मान करती है। एक कमजोर दल के प्रदेश अध्यक्ष के लिए अपने कार्यकर्ताओं को एक जुट रखना सबसे बड़ी चुनौती होता है। अपने ग्लैमर के बावजूद राज बब्बर के लिए कांग्रेसियों को एकजुट रखना बड़ी चुनौती है।

जिस तरह से दलित और मुस्लिमों के मन में भाजपा के प्रति आकर्षण बढऩे लगा है उसके लिए आजादी के बाद की कांग्रेसी सरकारें ही जिम्मेदार हैं। भाजपा अगर आज इतनी मजबूत बन कर उभरी है तो उसकी वजह सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति है। जिस हथियार के द्वारा कांग्रेस भाजपा को पस्त करना चाहती थी। भाजपा ने उसे अपना सबसे बड़ा चुनाव जिताऊ हथियार बना लिया है। हिन्दू वोट बैंक को एक जुट करने के बाद अब वह मुस्लिम वोटों में सेंध लगाने का बड़ा इंतजाम कर चुके हैं।

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