Shadow

भारत के गाँव : भगवान के भरोसे चिकित्सा

 राकेश दुबे 

भारत के गाँव : भगवान के भरोसे चिकित्सा

हमारा देश भारत आज़ादी की शताब्दी की ओर अग्रसर  है, भारत गावों का देश है। देश की बड़ी आबादी गाँव में बसती है। गाँव में चिकित्सा ढाँचे के बुरे हाल है । आँकड़े कहते हैं, ग्रामीण चिकित्सा ढांचे में आवश्यकता की तुलना में 83.2 प्रतिशत सर्जनों, 74.2 प्रतिशत प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञों, 79.1 प्रतिशत  चिकित्सकों और 81.6 प्रतिशत बाल रोग विशेषज्ञों की कमी है। मृतकाल से गुजर रहे देश के ग्रामीण अंचलों की स्वास्थ्य सेवाओं पर नजर डालने से साफ हो जाता है कि इन पिचहत्तर सालों में हमने बेहद जरूरी स्वास्थ्य सेवाओं पर कितना ध्यान दिया गया? वह भी तब जब हम पिछले कुछ सालों में एक सदी बाद आई कोरोना की वैश्विक महामारी से बुरी तरह लड़खड़ाए हैं। यही वजह है कि आज देश के चोटी के चिकित्सा संस्थान ग्रामीण इलाकों से आने वाले मरीजों से पटे हुए हैं। 

जिनको शहर और ज़िले के बड़े सरकारी अस्पतालों में जगह नहीं मिल पाती, वे उलटे उस्तरे से मूंडने वाले डॉक्टरों के भरोसे ठीक होने की उम्मीद पाले रहते हैं। देश के ग्रामीण चिकित्सालय आज डॉक्टरों व चिकित्सा सुविधाओं की कमी से बुरी तरह जूझ रहे हैं। हाल ही में ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2022 के जो आंकड़े सामने आए हैं वे ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की तस्वीर उकेर देते हैं। इन आँकड़ों के आधार पर कह सकते हैं, गांवों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को सुचारु रूप से चलाने के लिये जरूरी दस विशेषज्ञों में सिर्फ दो की ही की सेवाएं मिल रही हैं। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि तमाम सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों यानी सीएचसी में स्वीकृत पद बड़ी संख्या में खाली हैं।

 सीएचसी में विशेषज्ञों की मौजूदा स्थिति पर नजर डालें तो बीते साल मार्च के अंत तक स्वीकृत पदों में 71 प्रतिशत से अधिक सर्जन, 63 प्रतिशत प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ, 67.5 प्रतिशत  चिकित्सक और 69.7 प्रतिशत  बाल रोग विशेषज्ञों के पद रिक्त हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब इतनी बड़ी तादाद में चिकित्सकों के पद खाली हैं तो ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था किसके भरोसे  चल रही है? ऐसे में हमारे गाल बजाने वाले नेता सिर्फ़ सोये हुए हैं या किसी ऐसे काम में मशगूल है जो उनका असली काम नहीं है।यहाँ सवाल यह है कि पांच साल जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले आखिर इस मुद्दे पर अब क्या करते रहे हैं?

विडंबना यह रही है कि चिकित्सा सुविधाओं में सुधार हमारे नेताओं की प्राथमिकता कभी नहीं रही है। मुफ्त के प्रलोभन देकर नेता छोटी-मोटी सुविधा या चीजों के जरिये वोट जुटाने में कामयाब हो जाते हैं। जनकल्याण की दीर्घकालीन सेवाओं को उन्होंने कभी तरजीह नहीं दी, यदि दी होती तो ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था में बेहद जरूरी चिकित्सकों के पद यूं खाली न रह जाते। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित 5480 और शहरी क्षेत्रों में 584 सामुदायिक केंद्रों की बदहाली नेताओं की घोर उपेक्षा को ही दर्शाती है। कमोबेश यही स्थिति उप केंद्रों व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की भी है। ऐसे में पर्याप्त चिकित्सा सुविधा स्वास्थ्य केंद्रों में न मिलने के कारण ग्रामीण अपने मरीजों को लेकर बड़े शहरों के चिकित्सालयों व मेडिकल कॉलेजों के धक्के खाने को अभिशप्त हैं। 

विडंबना यह है कि ग्राम पंचायतों और ब्लॉक के चुने प्रतिनिधि भी स्वास्थ्य केंद्रों में पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिये शासन-प्रशासन पर दबाव नहीं बनाते। दरअसल, चुने प्रतिनिधि संपन्न वर्ग से आते हैं और चुनाव जीतकर कुछ समय में और संपन्न हो जाते हैं। उनके लिये शहरों में महंगा इलाज करवाना कठिन नहीं होता। मगर आम मरीजों को गुणवत्ता के इलाज के लिये शहरों के चक्कर लगाने को मजबूर होना पड़ता है। 

उम्मीद थी कोरोना संकट के दौरान उपजी बदहाली के बाद चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार सत्ताधीशों की प्राथमिकता बनेगी, लेकिन दुर्भाग्य से स्थिति वही ढाक के तीन पात बनी हुई है। चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने की जनता की मांग नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है। यही वजह है ग्रामीण क्षेत्रों में फर्जी डॉक्टरों की पौ बारह हो जाती है। गरीब तबके के मरीज फिर नीम-हकीमों के जाल में फंसते हैं। अशिक्षा और अज्ञानता इस संकट को और बढ़ा देती है। बेहतर हो ग्रामीण जनता अपने जनप्रतिनिधियों पर दबाव बनाये और गांवों के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में पर्याप्त चिकित्सकों की तैनाती को अपनी प्राथमिकता में रखे। इसको लेकर देशव्यापी मुहिम चलाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *