और मध्यप्रदेश में पूर्व मंत्री राजा पटेरिया को दूसरे प्रयास में हाईकोर्ट से ज़मानत मिल गई, दिल्ली में भी एक कांग्रेस प्रवक्ता को हवाई जहाज से उतारकर आनन-फानन में गिरफ्तार करना और सुप्रीम कोर्ट द्वारा राहत देने के इन प्रकरणों ने कई सवालों को जन्म दिया है। कहना कठिन है कि प्रधानमंत्री के खिलाफ की गई टिप्पणी जुबान फिसलने की घटना थी या इरादतन तंज किया गया था, लेकिन असम में दर्ज मुकदमे में दिल्ली पहुंचकर कार्रवाई करने की घटना में पुलिस की मुस्तैदी ने सबको चौंकाया है। सवाल उठा कि क्या अन्य गंभीर मामलों में भी पुलिस इतनी ही तत्परता दिखाती है?
ये घटनाक्रम फिर वही मुद्दा उठाते है कि देश में पुलिस सुधारों की आवश्यकता है। बहरहाल, हाल के दिनों में सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर जो तल्ख रवैया अपनाया जा रहा है उसकी गूंज अभी राजनीतिक हलकों में शिद्दत से महसूस की जा रही है। कांग्रेस के नेता आरोप लगा रहे हैं कि कांग्रेस प्रवक्ता द्वारा कथित रूप से जुबान फिसलने की घटना पर खेद जताने के बाद भी पुलिस की कार्रवाई करना लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने का प्रयास है। जो राजनीतिक असहिष्णुता का ही परिचायक है।
इसी तरह गुजरात दंगों पर डॉक्यूमेंट्री प्रसारित करने के बाद बीबीसी के दिल्ली व मुंबई दफ्तरों पर आयकर विभाग की छापेमारी को भी राजनीतिक दल सरकार की बदले की कार्रवाई के रूप में बताते रहे हैं। राजनीतिक पंडित भाजपा पर देश में आपातकाल के दौरान कांग्रेस सरकार की गलती दोहराने के आरोप लगा रहे हैं। उनका कहना है कि जनता की याददाश्त इतनी कमजोर भी नहीं होती कि वह सरकार की सख्ती को आसानी से भूल जाये। अभिव्यक्ति की आजादी पर बंदिशों की कीमत इमरजेंसी लगाने वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भी चुकाई थी। वैसे,सभी सत्ताधीशों को अभिव्यक्ति की गरिमा और सहिष्णुता की नीति का अनुसरण करना ही चाहिए।
इन मामलों में पुलिस की तुरत-फुरत कार्रवाई कई प्रश्नों को जन्म देती है। ऐसा क्यों होता है कि सत्तारूढ़ दल के तमाम नेताओं की बेलगाम बयानबाजी पर पुलिस हरकत में नहीं आती। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से लेकर राज्य स्तरीय नेता अकसर ऐसी तंज की भाषा बोलते हैं और व्यक्तिगत आक्षेप करते नजर आते हैं,लेकिन उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होती। निस्संदेह किसी भी सभ्य समाज में बेलगाम बयानबाजी के लिये कोई जगह नहीं होनी चाहिए, लेकिन कार्रवाई सभी दलों पर एक ही स्तर पर होनी चाहिए।
यहां तक कि संसद में सरकार के कई जिम्मेदार लोग तल्खी की भाषा बोलते नजर आते हैं। दल चाहे सत्तारूढ़ हो या विपक्षी, कार्रवाई के पैमाने सबके लिये बराबर ही होने चाहिए। उद्धरण है ‘लोकतंत्र में अधिनायकवाद के लिये कोई जगह नहीं होती’। जब हम ताल ठोककर कहते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, तो हमारा आचरण भी उसी के अनुरूप होना चाहिए। अकसर सवाल उठता है कि विपक्षी दलों को डराने के लिये सरकारी एजेंसियों ईडी, आयकर विभाग व सीबीआई का प्रयोग किया जाता है। यह हकीकत भी है कि सत्तारूढ़ दल वाले राज्यों में ऐसी तुरत-फुरत कार्रवाई होती नजर नहीं आती।
इन दिनों सत्ता पक्ष और विपक्ष के स्तर पर भी पिछले दिनों बिगड़े बोल बोलने का प्रचलन तेज ही हुआ है। टीवी बहसों व सार्वजनिक मंचों में बहस का स्तर इतना गिरावट लिये हुए होता है कि यह प्रश्न उठने लगता है कि क्या नई पीढ़ी के बच्चों को ऐसे नायकों से क्या सीखना चाहिए? सही मायनों में लोकतंत्र उदारता व सहिष्णुता की मांग करता है।