आर.के. सिन्हा
गांधी फिल्म को पिछली 30 नवंबर को रिलीज हुए चालीस साल हो गए। गांधी फिल्म बनी थी, अमेरिका में बसे महान यहुदी लेखक लुई फिशर द्वारा लिखी गांधी जी की जीवनी से प्रभावित और प्रेरित होकर। उनकी पुस्तक को गांधी जी की सर्वश्रेष्ठ जीवनी ग्रंथों में एक माना जाता है। वैसे तो गांधी जी की सैकड़ों जीवनियां लिखी जा चुकी हैं। गांधी फिल्म के रिलीज होने के चंद दिनों के बाद फ्रीडम एट मिडनाइट, फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल, सिटी ऑफ जॉय, ‘ओ‘जेरूसलम‘ और ‘इज पेरिस बर्निंग‘ जैसी किताबों के रचयिता डोमिनिक लापिएर चल बसे। आप पूछ सकते हैं कि गांधी फिल्म, लुई फिशर और लापिएर का क्या संबंध है? आपका सवाल वाजिब है। लुई फिशर तथा लापिएर जैसे विदेशी लेखकों का भारत प्रेम उन्हें खास बनाता है। वे भारत से हजारों मील दूर रहने पर भी भारत से सम्बंधित पर श्रेष्ठ रचनाएं लिखते रहे।
फ्रीडम एट मिडनाइट 1975 में प्रकाशित हुई थी। उसे बाजार में आते ही दर्शकों ने हाथों-हाथ ले लिया था। उसे लापिएर ने लैरी कॉलिंस के साथ मिलकर लिखा था। दोनों लेखकों ने फ्रीडम एट मिडनाइट के जरिए भारत के पाठकों को अनेक रोचक तथ्यों से पहली बार रु ब रु करवाया था। उदाहरण के रूप में मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान जाने से पहले अपना दिल्ली का बंगला उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया को ढाई लाख रुपये में बेचा था। डालमिया ने पूरे बंगले को खरीदने के बाद उसे गंगाजल से धुलवाया भी था। यह जानकारी पहली बार दुनिया ने फ्रीडम एट मिडनाइट को पढ़कर जानी थी।
पंडित जवाहरलाल नेहरू साधु-संतों से मिलने में भी परहेज नहीं करते थे। भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ तब वे 17 यार्क रोड ( अब मोतीलाल नेहरू रोड) में रहते थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू 15 अगस्त की तैयारियों में जुटे हुए हैं। फ्रीडम एट मिडनाइट में लैरी कॉलिंस तथा डोमिनिक लापियर लिखते हैं- “ देश के स्वतंत्र होने की खुशी को दिल्ली के चप्पे-चप्पे में महसूस किया जा सकता था। सड़कों पर साधु और सन्यासी भी प्रकट हो गए थे। नई दिल्ली में जगह-जगह पर शहनाई वादक शहनाई बजाने लगे थे। 14 अगस्त, 1947 को नेहरू जी के घर में कुछ साधू पहुंच गए। वे नेहरू जी से मिले। उन्होंने उन पर पवित्र गंगा जल छिड़का, माथे पर भभूत लगाई और हाथ में मौली बांधी। धार्मिक आडंबरों से दूर रहने वाले वाले नेहरू जी ने यह सब कुछ बड़े प्रेम से करवाया।” नेहरू जी इसी यार्क रोड के अपने बंगले से 14-15 अगस्त, 1947 की रात को काउंसिल हाउस (अब संसद भवन) में हुए गरिमामय कार्यक्रम में भाग लेने के लिए गए थे। उन्हें यह बंगला तब मिला था जब वे 1946 में अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री बने थे। वे तीन मूर्ति में तो सितंबर, 1947 में शिफ्ट हुए थे। इस तरह के तमाम तथ्यों को लिखकर लापिएर अपने पाठकों को अपना प्रशंसक बना लेते थे। यह तथ्य भी दुनिया ने इनकी किताब से ही जाना कि अगर भारत के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन को पता चल गया होता कि कैंसर ग्रस्त जिन्ना ‘सिर्फ कुछ महीनों के ही मेहमान’ है, तो वे बंटवारे की बजाय जिन्ना की मौत का इंतजार करते। हालांकि, यह बातें सिर्फ जिन्ना के हिंदू डॉक्टर को पता थी, जिसने अपने मरीज के साथ विश्वासघात नहीं किया।
लापिएर ने भोपाल गैस त्रासदी की कहानी को बेहद मार्मिक अंदाज में “फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल” से पेश किया था। वास्तव में विश्व की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना या विभीषिका पर यह कालजयी किताब है। इसे उन्होंने अपने साथी जेवियर मोरो के साथ मिलकर लिखा था। उन्होंने भोपाल विभीषिका पर लिखी गई पुस्तक की सारी रायल्टी‘ गैस पीड़ितों के कल्याण के लिये प्रकाशन के बाद से ही देने की घोषणा कर दी थी।
लापिएर ने “सिटी ऑफ जॉय” नाम का एक प्रसिद्ध उपन्यास भी लिखा। यह कोलकाता के जीवन, उसके सुख-दुख पर गहरी नजर डालता है। लापियर और उनकी पत्नी दोनों विशेष रूप से विकलांग बच्चों के लिए सहायता, प्रेम, सहानुभूति रखते थे। 1985 में आई उनकी किताब “सिटी ऑफ जॉय कलकत्ता” (आज का कोलकाता) के एक रिक्शा वाले की कहानी है जो भारत में बेहद लोकप्रिय हुई। उन्होंने अपनी किताब से हुई कमाई को भारत में टीबी तथा कोढ़ से ग्रस्त मरीजों के इलाज पर खर्च किया था।
अब बात उस महान लेखक लुर्ई फिशर की भी करें जिन्होंने बापू की कालजयी जीवनी लिखी। बेशक, गांधी फिल्म को देखने के बाद पूरी दुनिया ने महात्मा गांधी को कहीं ज्यादा करीब से जाना-समझा। रिचर्ड एटनबर्ग ने महान लेखक लुर्इ फिशर द्वारा लिखी गांधी जी की जीवनी दि लाइफ आफ महात्मा को आधार बनाकर ही गांधी का निर्देशन किया था। जरा सोचिए, कि अगर उन्होंने लुर्ई फिशर के काम को न पढ़ा होता तो क्या गांधी फिल्म बनती?
लुई फिशर ने जीवनी बिल्कुल उपन्यास शैली में लिखी है। इसे पढ़ते ही आप इससे जुड़ जाते हैं। इसका आप पर चुंबकीय तरीके से असर होता है। कहना न होगा कि गंभीर साहित्य अध्येताओं से लेकर विद्यार्थियों के लिए यह एक उपयोगी जीवनी है। लुई फिशर की लिखी जीवनी का पहला अध्याय बापू की हत्या से लेकर उनकी शव यात्रा पर आधारित है। यानी उन्होंने अंत को सबसे पहले ले लिया है। इस तरह का साहस फिशर ही कर सकते हैं। ये जीवनी गांधी जी के जीवन में गहरे से झांकती है। इसे पढ़ते हुए कहीं भी पाठक कहीं भी तनिक सा भी बोर नहीं होता। पाठक को ये नहीं लगता कि ये तथ्य तो उसे पहले से ही मालूम था। गांधी जी की हत्या से लेकर उनकी शव यात्रा का वे जिन तथ्यों के साथ विवरण देते हैं, वे उनकी जीवनी को बाकी से अलहदा बना देते हैं। वे लिखते हैं- “महात्मा गांधी 1918 में दिल्ली में आए तो सेंट स्टीफंस कॉलेज में ही रूके। यहां पर उनसे कॉलेज के छात्र ब्रज कृष्ण चांदीवाला ने मुलाकात की। वह पहली ही मुलाकात के बाद बापू के जीवनपर्यंत के लिए शिष्य बन गए। वह कॉलेज में रहते हुए ही स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गए। उन्होंने खादी के वस्त्र पहनने चालू कर दिए। ब्रज कृष्ण चांदीवाला दिल्ली के एक धनी परिवार से थे। वे ही बापू के लिए बकरी के दूध की व्यवस्था करते थे। गांधी जी का भी उनके प्रति बहुत स्नेह का भाव रहता था। गांधी जी की मृत्यु के बाद ब्रज कृष्ण चांदीवाला ने ही उन्हें अंतिम स्नान करवाया था।” उनके विवरण अतुलनीय हैं।
‘दि लाइफ आफ महात्मा गांधी’ में लुई फिशर लिखते हैं- “बापू को गोली लगने के कुछ देर बाद ही घटनास्थल पर डॉ. डी.पी भार्गव और डा.जीवाजी मेहता पहुंच गए थे। डॉ. मेहता ने ही बापू को मृत घोषित किया था।” अब बताइये कौन लिखेगा इस तरह की तथ्यपरक श्रेष्ठ किताबें?
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)