श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
हमने कई चित्र ऐसे देखे हैं कि हनुमानजी अपना सीना फाड़कर उसमें प्रभु श्रीराम सीताजी सहित दर्शन करा रहे हैं। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि हनुमानजी को ऐसा क्यों करना पड़ा? यह दृश्य कब का है? इत्यादि। इन सब प्रश्नों का उत्तर बंगला कृत्तिवास रामायण के लंकाकाण्ड के अंतर्गत श्रीराम के राज्याभिषेक के शुभ अवसर का बड़े ही रोचकतापूर्ण वर्णित है।
श्रीराम के अयोध्यापुरी में राज्याभिषेक के शुभ अवसर पर अदृश्य रूप से ब्रह्माजी ने स्वर्ण-कमलों की माला आकाश से समर्पित की, जो श्रीराम के गले की शोभा बढ़ाने लगी। नाना प्रकार के मणि-माणिक्य, पारस-पत्थर से बना कुबेर का हार श्रीराम के कंठ की शोभा में चार चाँद लगा रहा था। देवताओं के द्वारा भेंट किए गए आभूषणों से श्रीराम संसार में पूजित हुए। जिस भी मनुष्य में श्रीराम के राज्याभिषेक के बारे में सुना उसी की पार्थिव सम्पदा बढ़ी और स्वर्गलोक बन गया। करोड़ों ब्राह्मण श्रीराम के पास चल पड़े। जिसको जिस किसी वस्तु की अभिलाषा है, उसको वही वस्तु श्रीराम ने दान में दी। श्रीराम गाँव, भूमि, स्वर्ण आदि दान करते रहे, किसी को भी श्रीराम के पास जाने पर निराश होकर नहीं जाना पड़ा। सभी की अभिलाषाएँ पूर्ण की गईं। चैत का महीना और पुनर्वसु नक्षत्र का योग, शुभघड़ी पर श्रीरामजी ने दंड-छत्र को धारण किया। गले में स्वर्ण कमल की माला सूर्य सी चमचमा रही है। वह माला निकाल कर श्रीराम ने सुग्रीव के गले में पहना दी। अंगद के सम्मुख श्रीराम ने संकोच करते हुए उसको अनोखे आभूषणों से अलंकृत किया। छत्तीस करोड़ सेना को श्रीराम ने दान दिया। हनुमानजी रूठ कर चुप बने रहे। श्रीराम के दान से सभी सुखी हुए, केवल हनुमानजी ने दोनों आँखें मूँद ली। हनुमानजी मन ही मन में सोचने लगे कि उन्होंने ऐसा क्या अपराध किया कि प्रभु सबको सन्तुष्ट कर रहे हैं, किन्तु उन्हें नहीं।
बाहिर करेव सीता आपनार हार, कि कब ताहार मूल्य भुबनेर सार
से हार देखिया सबे चाहे परस्पर, नाना रत्न मणि ताहे परश पाथर
बड़ बड़े सेनापति परस्पर चाय, ना जानि सीतार हार कोनजन पाय
(बंगला कृतिवास रामायण लंका ७२१-२१)
सीताजी ने हार निकाल लिया। उसका मूल्य क्या कहा जाय, भुवन में वह अनमोल वस्तु थी। वह हार देखकर सब लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगे। उसमें तरह-तरह के मणि और रत्न जड़े हैं और पारस पत्थर भी है। बड़े-बड़े सेनापति एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। जाने किस व्यक्ति को सीताजी का यह अनमोल हार मिल जाए।
यह हार किसको दिया जाए, इस अभिप्राय से हाथों में हार लेकर सीताजी श्रीराम की ओर देखने लगी। यह समझ कर श्रीराम ने अपना मत (राय) दिया- जिसे जी चाहे तुम उसे दे दो। जब कहीं कोई पता नहीं चल रहा था, तब जिसने सब पता लगाया, जब हम सब मर चुके थे उस समय जिसने हम सबको बार-बार प्राण दिए- ऐसा समझ-बुझकर सीता इस हार को तुम दान करो। इससे किसी का मन छोटा नहीं होगा। सीताजी बार-बार हनुमानजी की ओर देखने लगी। दौड़कर हनुमानजी जानकीजी के पास पहुँच गए और गले में हार पहन लिया। हनुमानजी के गले में हार शोभित हो रहा था। सीताजी के चरणों में हनुमानजी ने प्रणाम किया। सीताजी ने कहा- जितने दिन तक यह पृथ्वी रहेगी- तुम रोग-शोक से रहित हो चिरंजीवी बने रहो। जब तक चन्द्र-सूर्य रहेगा, तब तक श्रीराम का नाम संसार में घोषित होता रहेगा, तब तक तुम अक्षय-अमर बने रहोगे। हनुमान, तुमको मैं यह वर देती हूँ। जिस किसी स्थान पर श्रीराम के नाम का प्रसंग (श्रीरामकथा) होगी- चाहे तुम कहीं भी रहो, वहीं पहुँच जाओगे।
हासिते हासिते हनू हार लये हाते, छिन्न भिन्न करे हार चिबाइया दाँते
देखिया हनूर कर्म्म हासेन लक्ष्मण, कुपित रहस्य-भावेबलेन तखन
लक्ष्मण बलेन, प्रभु करि निबेदन, मारूतिर गले हार दिला कि कारण
सहजे बानर गण्य पशुरमिशाले, रत्न-हार दिल केन बानरेर गले
श्रीराम बलेन, शुन प्राणेर लक्ष्मण, कि हेतु छिड़िल हार पवन-नन्दन
इहार वृतान्त हनूमान भाल जाने, जिज्ञासह हनूमाने सभा विद्यमाने।
बंगला कृत्तिवास रामायण लंकाकाण्ड ७२३, ७२४, ७२५
हाथों में हार लेकर हनुमानजी ने हँसते-हँसते उसको दाँतों से चबाकर तोड़ डाला। हनुमानजी का यह कार्य देखकर लक्ष्मण हँसने लगे। वह कोप (क्रोध) से मर्म भरे शब्दों में बोले। हे प्रभु, निवेदन करता हूँ कि हनुमान के गले में तुमने यह हार क्यों दिया? ये वानर स्वाभाविक रूप से पशुओं में गिने जाते हैं। यह रत्न हार वानर के गले में क्यों दिया? श्रीराम ने कहा, हे प्राणों के समान प्रिय लक्ष्मण सुनो। पवननन्दन ने हार क्यों तोड़ डाला। इसका विवरण हनुमान ही भलीभाँति जानते हैं- सारी सभा के सम्मुख हनुमान से ही पूछ लो।
हनुमानजी ने कहा हे महाराजा लक्ष्मणजी सुनिए- अनमोल समझकर मैंने यह हार ले लिया। तत्पश्चात् विचार कर देखा कि इस हार में श्रीराम का नाम नहीं है। ऐसा धन जिसमें श्रीराम का नाम न हो, उसको त्याग देना ही उचित है क्योंकि उसकी कोई आवश्यकता नहीं।
यह सुनकर लक्ष्मणजी ने कहा, हे पवनकुमार सुनो, तुम्हारे शरीर पर श्रीराम का नाम नहीं है, तब क्यों व्यर्थ में ही यह शरीर धारण किए हो। हे पवननन्दन, यह कलेवर त्याग दो। पवनकुमार ने बस इतना सुना तो नाखून से सीना चीरकर उसको सबके सामने कर दिया। सभा के भीतर वक्ष चीर कर उन्होंने दिखाया कि सारी हड्डियों पर लाख-लाख राम नाम लिखे हैं। सभा के सारे लोग यह देखकर आश्चर्य करने लगे और लक्ष्मणजी ने लज्जित होकर सिर झुका दिया।
लक्ष्मणजी ने कहा, हे वीर हनुमान सुनो। तुम्हारे समान श्रीराम का कोई दूसरा भक्त नहीं। तुम श्रीरामजी को जानते हो और श्रीराम तुमको जानते हैं। तुम्हारी महिमा का ओर-छोर भला मैं कैसे जान सकता हूँ। हनुमानजी ने कहा, मैं वन का वानर हूँ, श्रीराम का दासानुदास और तुम्हारा चाकर हूँ। हनुमानजी की बात पर श्रीराम हँस दिए।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर