भारत की प्रख्यात महिलाधिकार कार्यकर्ता, हार्वर्ड विश्वविद्यालय की अनुबद्ध प्रोफेसर और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया से जुड़ीं डॉ गीता सेन ने इस बात पर दुःख जताया कि कोविड-१९ महामारी के चलते एशिया पैसिफिक देशों (जिसमें भारत भी शामिल है) में महिलाओं/ किशोरियों से सम्बंधित अनेक प्रचलित हानिकारक प्रथाओं के जोखिम को बढ़ावा मिला है, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के यूएनएफपीए की स्टेट ऑफ द वर्ल्ड पापुलेशन रिपोर्ट २०२० में कहा गया है.
महामारी के दौरान महिला-हिंसा की समानांतर महामारी
करीब ४० सालों से महिलाधिकार के लिए समर्पित डॉ गीता सेन ने बताया कि महामारी के दौरान समाज में व्याप्त महिला असमानता में और अधिक वृद्धि हुई है. तालाबंदी के दौरान महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की एक समानांतर महामारी का भी सामना करना पड़ा है. जो महिलाएं दुर्व्यवहार करने वालों के संग घरों में कैद थीं उनको भी अत्याधिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी है. लैंगिक असमानता को कम करने के बजाय उसे बढ़ावा ही मिला. हमे वास्तव में इस संदर्भ में कुछ ठोस कदम उठाने होंगे.
हाल ही में संपन्न हुए एपीसीआरएसएचआर१० (१०वीं एशिया पैसिफिक कांफ्रेंस ऑन रिप्रोडक्टिव एंड सेक्सुअल हेल्थ एंड राइट्स) के दूसरे वर्चुअल सत्र में महिला-अधिकार पर काम करने वाली अनेक महिलाओं ने एशिया पैसिफिक में कोविड़- काल के पश्चात जनमानस के अधिकारों और विकल्पों को गतिशीलता प्रदान करने के विषय पर चर्चा करते हुए एशिया पैसिफिक में रहने वाली महिलाओं की समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया, जिनके अधिकारों के संबंध में केवल खानापूर्ति की गई है.
२०३० तक अपेक्षित ‘तीन शून्य लक्ष्य’
संयुक्त राष्ट्र के यूएनएफपीए द्वारा नियत और सरकारों द्वारा पारित किये गए २०३० तक अपेक्षित ‘तीन शून्य लक्ष्य’ को प्राप्त करने के लिए भारत को अभी काफी लंबा रास्ता तय करना होगा। ये तीन शून्य लक्ष्य हैं: शून्य अतृप्त गर्भ निरोधक की मांग; शून्य निवार्य मातृ मृत्यु दर; और शून्य लिंग आधारित हिंसा व कुप्रथाएं. यूएनएफपीए की रिपोर्ट के अनुसार भारत की मातृ मृत्यु-दर (१००,००० जीवित जन्म पर कुल मृत्यु) आज भी १४५ है जो काफी अधिक है, और १५-४९ आयु वर्ग की महिलाओं में आधुनिक गर्भ-निरोधक की प्रचलन दर मात्र ३८% है.
रिपोर्ट द्वारा इस बात की भी पुष्टि होती है कि अधिकाँश भारतीय महिलाओं को आज भी यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि वे अपने यौनिक और प्रजनन-स्वास्थ्य सम्बन्धी निर्णय स्वयं ले सकें और अपने गर्भधारण करने या बच्चे को जन्म देने की इच्छा (अथवा अनिच्छा) को प्रमुखता दे सकें. भारत के पुरुष-प्रधान समाज में आज भी अधिकाँश परिवारों में पुत्र जन्म को प्राथमिकता दी जाती है.
फैमिली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया (एफपीए इंडिया) की निदेशक डॉ कल्पना आप्टे ने अपने एक लेख में कहा है कि भारत में यौनिक स्वास्थ्य की अधिकतर उपेक्षा की जाती है और नीति में प्रजनन स्वास्थ्य को प्राथमिकता नही दी जाती है. एफपीए इंडिया की हाल की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए उन्होंने कुछ चौंका देने वाले आंकड़े साझा किये: १५ से १९ वर्ष की किशोरियों में ५०% मातृ-मृत्यु असुरक्षित गर्भपात के कारण होती है; २० से २४ वर्ष आयु की २६.८ % महिलाओं का विवाह १८ वर्ष की आयु से पूर्व हो गया था; ५-१२ वर्ष आयु वर्ग के ५०% से अधिक बच्चे यौन-उत्पीड़न का शिकार होते हैं और इन यौन उत्पीड़न और बलात्कार के ५०% प्रतिशत से अधिक मामलों की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं होती. ३४% विवाहित किशोरियों ने स्वीकार किया कि उन्हें शारीरिक, भावनात्मक या लैंगिक उत्पीड़न झेलना पड़ा.
फिलीपींस में गर्भपात आज भी गैर-कानूनी
दूसरे अन्य देशों की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं है. लिखान सेंटर फॉर वूमेन हेल्थ की निदेशक और परिवार नियोजन क्षेत्र की जानी-मानी हस्ती डॉ जूनिस मेलगर ने बताया कि फिलीपींस में गर्भपात आज भी गैर-कानूनी है और यौनिक व प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकार की समर्थकों को ‘डायन’ कहा जाता है.
डॉ जुनिस मेलगर ने सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) को यह भी बताया, “कोविड-१९ से निपटने के लिए की गयी तालाबंदी के चलते फिलीपींस की महिलाओं को यौनिक एवं प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करने के लिए गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ा. परिवहन साधनों के उपलब्ध न होने के कारण उन्हें इंजेक्शन व इंप्लांट (जो महामारी के दौरान उनके घरों के पास की दुकानों में उपलब्ध नहीं थे) प्राप्त करने हेतु क्लिनिक तक पहुंचने के लिए २-३ किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता था और फिर क्लिनिक में घंटों लाइन में खड़े होकर प्रतीक्षा करनी पड़ती थी. छोटे जच्चा-बच्चा केंद्र बंद होने के कारण और बड़े अस्पतालों में कोविड-१९ के डर से गर्भवती महिलाओं की भर्ती बंद होने के कारण गर्भवती महिलाओं को और भी अधिक चुनौतियों का मुकाबला करना पड़ा. इसके अलावा, घरेलू हिंसा झेल रही महिलाओं के लिए न तो कोई आश्रय-स्थल खुले थे और न ही उन्हें उनके रिश्तेदारों या मित्रों के पास एक सुरक्षित स्थान तक पहुँचाने के लिए कोई परिवहन साधन उपलब्ध था. उनके पास कोरोना वाइरस रोग महामारी समाप्त होने तक उसी हिंसात्मक वातावरण में रहने के अलावा कोई अन्य विकल्प ही नहीं था.
इंटरनेट असमानता समाप्त हो
कंबोडिया की कैथरीन हैरी, ‘ए डोज ऑफ कैथ’ नामक एक बहुत लोकप्रिय वीडियो ब्लॉग चलाती हैं जो कंबोडिया में प्रचलित लैंगिक असमानताओं को चुनौती देने वाले कार्यक्रम करता है. युवाओं तक आयु-उपयुक्त व्यापक यौनिक शिक्षा पहुँचाने की कैथरीन एक प्रमुख समर्थक हैं.
कैथरीन ने बताया कि “अपनी युवावस्था में मुझे स्कूल में न के बराबर यौनिक-सम्बन्धी शिक्षा प्राप्त हुई. शिक्षक समझते थे कि इस बारे में हम स्वयं ही जान जायेंगे (जो कदापि सत्य नहीं था) और अभिभावक सोचते थे कि इसके बारे में हमें कोई जानकारी होनी ही नहीं चाहिए. यौनिक और प्रजनन सम्बन्धी उचित जानकारी के अभाव के चलते अनेकों युवा अश्लील साहित्य और इंटरनेट की पोर्नोग्राफिक साइट्स की ओर अग्रसर हो जाते है, जहाँ से न उन्हें सही जानकारी मिलती है और न ही यौन संचारी रोगों और अनचाही गर्भावस्था से बचाव के बारे में पता चल पाता है. हाँ, इससे अत्यंत हानिकारक रूढ़िवादिता को बढ़ावा ज़रूर मिलता है.”
कोविड-१९ में हुई पूर्ण तालाबंदी ने इंटरनेट के माध्यम से दी जा सकने वाली ऑनलाइन जानकारी एवं शिक्षा के महत्त्व को उजागर किया है. स्कूल की कक्षाओं में मिलने वाली शिक्षा ऑनलाइन क्लासरुम में परिवर्तित हो गई. परन्तु यहाँ भी महिलाएं, किशोरियां तथा वंचित समुदाय के लोग मात खा रहे हैं और ऑनलाइन जानकारी प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं. कैथरिन इसको “इंटरनेट असमानता” कहती हैं. उनका मानना है कि, “जिन लोगों की पहुँच इंटरनेट तक नहीं होती, वे अनेक प्रकार की आवश्यक जानकारी से वंचित रह जाते हैं, और इनमें से अधिकांशतः महिलाएं ही होती हैं. यदि किसी घर में एक ही इंटरनेट-सुलभ फोन है तो वह फ़ोन घर के किसी पुरुष सदस्य को ही मिलता है, महिला को नहीं.”
जब तक महिलाओं को उचित जानकारी सुगमता से उपलब्ध नहीं होती और वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हो जाती, तब तक वे जानकारी-आधारित विकल्प चुनने में सक्षम नहीं हो पाएंगी। अतः यह अत्यंत आवश्यक है कि इंटरनेट की व्यापक सुविधा सभी को कम खर्चे में सुगमता से उपलब्ध हो और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र (जो अभी भी एक पुरुष प्रधान क्षेत्र है) में महिलाओं की भागीदारी बढ़े, यह कैथरीन का मानना है.
अब वक़्त आ गया है कि महिलाओं को एक उपभोग की वस्तु, या एक बोझ, या फिर एक सजावट की वस्तु के रूप में देखना और व्यवहार करना एक सामाजिक अपराध माना जाये. उसे अधिकार है एक इंसान के रूप में सम्मानित जीवन जीने का और अपनी उपलब्धियों के बल पर समाज में अपनी सही पहचान बनाने का