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अमेरिका—तालिबान समझौते से उपजे नए सवाल

क़तर की राजधानी दोहा में तालिबान के साथ अमेरिका ने जो समझौता किया है, यदि वह सफल हो जाए तो उसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति का सुखद आश्चर्य माना जाएगा। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि यदि तालिबान ने इस समझौते की शर्तों का पालन नहीं किया तो अफगानिस्तान में इतनी अमेरिकी फौजें भेज दी जाएंगी कि जितने पहले कभी नहीं भेजी गई हैं। बेचारे ट्रंप को क्या पता कि पिछले 200 साल में ब्रिटिश साम्राज्य और सोवियत रुस अफगानिस्तान में कई बार अपने घुटने तुड़ाकर सबक सीख चुके हैं, फिर भी उनके प्रतिनिधि जलमई खलीलजाद को बधाई देनी होगी कि वे अमेरिका के जानी दुश्मन अफगान तालिबान को समझौते की मेज तक खींच लाए।

यह समझौता अभी सिर्फ अमेरिका और तालिबान के बीच हुआ है, अफगान सरकार और तालिबान के बीच नहीं। अफगान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता शुरु होगी 10 मार्च को लेकिन भोजन के पहले ग्रास में ही मक्खी पड़ गई है। अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी जो इस समझौते की संभावना से बहुत उत्साहित थे, उन्होंने इस समझौते की इस शर्त को मानने से इंकार कर दिया है कि यदि तालिबान एक हजार कैदियों को रिहा करेंगे तो 10 मार्च तक काबुल सरकार पांच हजार तालिबान कैदियों को रिहा कर देगी। गनी ने कल काबुल की एक पत्रकार परिषद में साफ-साफ कहा कि वे इस शर्त को नहीं मानेंगे। उन्होंने पूछा कि अमेरिका ने यह वादा उनसे पूछे बिना कैसे कर दिया ? पहले तालिबान से बात होगी, फिर कैदियों की रिहाई के बारे में सोचा जाएगा। तालिबान के प्रवक्ता ने गनी की बात को रद्द कर दिया और कहा कि रिहाई पहले होगी। इस बीच खोस्त में तालिबान ने हमला बोलकर तीन लोगों की हत्या भी कर दी है।

इसका अर्थ क्या हुआ ? क्या यह नहीं कि अमेरिका ने तालिबान की जो भी शर्तें मानी हैं और जिन मुद्दों पर उन्हें सहमति दी है, वे सब उसने काबुल सरकार को नहीं बताए हैं ? जिन्हें तालिबान के नाम से सारी दुनिया जानती है, यह समझौता उनके नाम से नहीं हुआ है। यह हुआ है, संयुक्त राज्य अमेरिका और ‘इस्लामिक अमीरात-ए-अफगानिस्तान’ के बीच। याने अमेरिका ने तालिबान सरकार को अनौपचारिक मान्यता दे दी है जबकि तालिबान राष्ट्रपति अशरफ गनी और प्रधानमंत्री डाॅ. अब्दुल्ला की सरकार को सरकार ही नहीं मानते। उसे वे ‘अमेरिका की कठपुतली’ कहकर बुलाते हैं, जैसे बबरक कारमाल की सरकार को मुजाहिदीन ‘रुसी कठपुतली’ कहते थे।

यदि आप समझौते के मूल पाठ को पढ़ें तो आपको अंदाज लग जाएगा कि अमेरिकियों ने तालिबान को अफगानिस्तान का अगला शासक बना दिया है। समझौते में कहा गया है कि इस्लामिक अमीरात वादा करती है कि वह अमेरिका के विरोधियों को ‘‘वीज़ा, पासपोर्ट, यात्रा-पत्र और आश्रय’’ प्रदान नहीं करेगी। जो भी अगली इस्लामी सरकार बनेगी, अमेरिका के साथ उसके संबंध अच्छे रहेंगे। क्या इसका स्पष्ट संकेत यह नहीं है कि वर्तमान काबुल सरकार के दिन लद गए हैं ? वैसे भी इस्लामी सरकार के नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ने समझौते पर दस्तखत करने के बाद दोहा में कई देशों के राजदूतों से मुलाकातें शुरु कर दी हैं।

काबुल सरकार यों भी अधर में लटकी हुई है। 28 सितंबर 2019 में हुए राष्ट्रपति के चुनाव का फैसला अब पांच महिने बाद फरवरी 2020 में आया। इसे गनी के प्रतिद्वंदी अब्दुल्ला ने मानने से इंकार कर दिया है और कहा है कि असली राष्ट्रपति वे ही हैं और वे ही सरकार बनाएंगे। अभी तक नए राष्ट्रपति ने शपथ भी नहीं ली है। अमेरिकी दबाव में आकर इन दोनों के बीच कोई समझौता हो भी जाए तो क्या वे अमेरिकियों के कहने पर तालिबान को सत्ता सौंप देंगे ? इस समय अफगानिस्तान के आधे से ज्यादा जिलों में तालिबान का वर्चस्व है। क्या ये दोनों नेता अपनी आधी सत्ता अगले 14 माह तक तालिबान को दे सकेंगे और तालिबान, जो कि अफगान बहुसंख्यक पठानों का संगठन है, क्या वे इन ‘‘कठपुतली नेताओं’’ के मातहत सत्ता में भागीदारी कर पाएंगे ?

जहां तक अफगानिस्तान की फौज और पुलिस का संबंध है, उसकी संख्या दो लाख के ऊपर है। उसमें ताजिक, उजबेक, तुर्कमान, किरगीज और हजारा लोगों की संख्या पठानों के मुकाबले कम है और तालिबान मूलतः पठान संगठन है। जाहिर है कि अफगान फौज भी रातोंरात अपना पैंतरा बदल सकती है। अमेरिकी फौजों की वापसी के 14 महिनों के दौरान क्या ये पठान फौजी चुप बैठे रहेंगे ? अभी तो यही देखना है कि अगले 135 दिन में अमेरिका के 14000 और नाटो के 12500 सैनिकों में से कितनों की वापसी होती है ? होती भी है या नहीं ? अमेरिका ने वादा किया है कि यदि तालिबान शांति बनाए रखेंगे और अल-क़ायदा जैसे गिरोहों को नाकाम करेंगे तो वह अगले 135 दिन में अपने 8000 जवानों को वापस बुला लेगा।

लगभग इसी तरह का समझौता अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के समय 1973 में वियतनाम को लेकर हुआ था। पांच लाख अमेरिकी जवान दक्षिण वियतनाम से वापस बुला लिए गए लेकिन दो साल में ही उस देश का कबाड़ा हो गया और दक्षिण वियतनाम पर उत्तर वियतनाम का अधिकार हो गया। क्या अफगानिस्तान में यही नहीं होनेवाला है ? जो भी होना है, हो जाए, अमेरिका को तो अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाना है।  ट्रंप को चुनाव जीतना है। उन्हें यह बताना है कि जो ओबामा नहीं कर सके, वह मैंने कर दिखाया है। तालिबान के आश्वासन पर भी भरोसा करना आसान नहीं है। उनके कई स्वायत्त संगठन और नेता हैं। वे सब अपनेवाली चलाने के लिए विख्यात हैं।

यहां हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस मामले में भारत की नीति क्या हो ? यदि अफगानिस्तान में शांति रहती है तो भारत को कई आर्थिक और सामरिक लाभ होंगे। आतंकवाद का खतरा बहुत ज्यादा घटेगा। भारत के विदेश सचिव समझौते के एक दिन पहले काबुल गए, यह अच्छा हुआ लेकिन दोहा में हमारे विदेश मंत्री की गैर-हाजिरी मुझे खटकती रही। वहां अमेरिकी और पाकिस्तानी विदेश मंत्री तो थे लेकिन भारत के विदेश मंत्री नहीं थे। भारत ने अफगानिस्तान में अब तक लगभग 25 हजार करोड़ रु. लगाए हैं और सैकड़ों निर्माण-कार्य किए हैं। भारत ने जरंज-दिलाराम सड़क बनाकर अफगानिस्तान को फारस की खाड़ी और मध्य एशिया के राष्ट्रों से जोड़ दिया है।

भारत ने आंख मींचकर इस समझौते का स्वागत किया है। लेकिन उसने तालिबान के साथ भी कुछ तार जोड़े हैं या नहीं ? पिछले 25-30 साल में तालिबान और मुजाहिदीन नेताओं से मेरा सीधा संपर्क काबुल और पेशावर के अलावा कई देशों में हुआ है। वे पाकिस्तानपरस्त हैं, यह उनकी मजबूरी है लेकिन वे भारत-विरोधी नहीं हैं। उन्होंने भारत से मान्यता प्राप्त करने की गुपचुप कोशिश कई बार की है। उन्होंने 1999 में हमारे अपहत जहाज को कंधार से छुड़ाने में भी हमारी मदद की थी।  वे स्वायत्त स्वभाव के हैं। वे किसी की गुलामी नहीं कर सकते। भारत सरकार भविष्य के बारे में सतर्क रहे, यह बहुत जरुरी है।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं और भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

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