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आँकड़ो की जादूगरी है, दिल्ली की वायु गुणवत्ता सुधार के पीछे

निश्चित रूप से आपको भी यह खबर परेशान करती होगी कि भारत दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित देशों की सूची में आठवें स्थान पर है। यह स्थिति हमें दुनिया के तमाम पिछड़े व गरीब मुल्कों के करीब खड़ा करती है। साथ ही बताती है कि गाल बजाते नीति-नियंता जमीनी हकीकत के मामले में विफल साबित हुए हैं।

बीते मंगलवार को पूरी दुनिया में हवा की गुणवत्ता की जांच करने वाली स्विस एजेंसी आई.क्यू़ एअर ने वायु प्रदूषण की वैश्विक स्थिति पर रिपोर्ट जारी की। कुल 131 देशों की वायु गुणवत्ता की स्थिति के मूल्यांकन का आंकड़ा करीब तीस हजार ग्राउंड बेस मॉनिटरों के जरिये जुटाया गया। चिंताजनक स्थिति यह है कि दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित बीस शहरों में 19 एशिया के हैं। हमारे लिये बड़ी फिक्र की बात यह कि इन शहरों में 14 भारत के हैं।

भारत पिछले साल दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में पांचवें स्थान पर था। सुधार की एक वजह यह है कि प्रदूषण नापने की इकाई यानी पी.एम़ 2.5 में भी गिरावट आई है। इसके बावजूद भारत की वायु गुणवत्ता विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सेहत की सुरक्षा के मद्देनजर निर्धारित मानकों की तुलना में बहुत ज्यादा खराब है। इस बार दिल्ली दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित राजधानी नहीं है। इसकी वजह है नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली का मूल्यांकन अलग-अलग ढंग से किया गया। यदि तकनीकी तौर पर दिल्ली को दो भागों में न बांटा गया होता तो शायद यह दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषित राजधानी होती। दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों की सूची में दिल्ली चौथे नंबर पर और नई दिल्ली 9वें स्थान पर है। दरअसल, हम अनियोजित विकास की त्रासदियों का दंश झेल रहे हैं। इसमें जहां हमारे नेतृत्व की उदासीनता शामिल हैं, वहीं उद्योग व कारोबारियों का पर्यावरण के प्रति गैर-जिम्मेदार व्यवहार भी। निस्संदेह, लोगों की उदासीनता तथा उत्तरदायित्व का अभाव भी समस्या का एक घटक है।

वैसे हालिया सर्वे का सकारात्मक पक्ष यह भी है कि दिल्ली के मुकाबले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण कुछ सुधरा है। खासकर औद्योगिक शहरों गुरुग्राम, फरीदाबाद तथा उत्तर प्रदेश के शहरों नोएडा,गाजियाबाद आदि में वायु गुणवत्ता में सीमित सुधार देखा गया है। आगरा की स्थिति में भी सुधार हुआ। इसके बावजूद वैश्विक मानकों के अनुरूप स्थिति अच्छी नहीं है। कई रिपोर्टें लोगों की जीवन प्रत्याशा प्रदूषण से कम होने की बात कहती हैं। खासकर सांस की बीमारियों से पीड़ित लोगों और बच्चों को इससे ज्यादा खतरा बना हुआ है। वहीं बुजुर्गों को स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें बढ़ी हैं। दरअसल, वायु गुणवत्ता में गिरावट का यह ट्रेंड पूरे दक्षिण एशिया की तस्वीर उकेर देता है क्योंकि दुनिया के 100 प्रदूषित शहरों में 72 दक्षिण एशिया के हैं। खासकर भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश के हैं। यही वजह है कि स्विस एजेंसी अपनी रिपोर्ट में दक्षिण एशिया को वायु प्रदूषण का केंद्र बताती है। निस्संदेह यह स्थिति असहज करने वाली है।

सत्ताधीशों को इस दिशा में कारगर योजना के साथ आगे बढ़ना होगा कि प्रदूषण कटौती के लिये व्यावहारिक उपायों के लिये कैसे संसाधन जुटाये जाएं और कैसे योजना का क्रियान्वयन किया जाये। निस्संदेह, इस समस्या से निबटने के लिये वर्षपर्यंत तंत्र को सक्रिय रहना होगा। केंद्र व राज्यों को नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम की भी नये सिरे से समीक्षा करनी होगी। जिसमें प्रदूषण से निबटने के प्रयासों में स्थानीय निकायों की बड़ी भूमिका निर्धारित करनी होगी। नागरिक के तौर भी लोगों से जिम्मेदार व्यवहार की अपेक्षा की जानी चाहिए। उन्हें अहसास होना चाहिए कि हमारे गैर-जिम्मेदार व्यवहार से कई रोगियों, बुजुर्गों तथा बच्चों के जीवन का जोखिम बढ़ सकता है। इस बात की नये सिरे से समीक्षा होनी चाहिए कि कौन से घटक ज्यादा प्रदूषण पैदा करते हैं। साथ ही नीति-नियंताओं को आग लगने पर कुंआ खोदने की प्रवृत्ति से भी बचना होगा। अब चाहे वाहनों का कार्बन उत्सर्जन हो, निर्माण की धूल हो, फसलों-कचरे का निस्तारण हो या जीवाश्म ईंधन से बिजली उत्पादन का प्रश्न हो, समस्या को समग्र दृष्टि से देखने की जरूरत है। निस्संदेह, ठोस योजना के साथ प्रदूषण से लड़ने की दृढ़ इच्छाशक्ति जरूरी है।

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