कहते हैं राजनीति और साहित्य का विरोध और प्रतिरोध का संबंध होता है, जितना अधिक वह सत्ता का प्रतिरोधी होगा, साहित्य जनता की आवाज़ बनेगा। साहित्य और सत्ता परस्पर दो ध्रुव हैं, जिनका विपरीत होना ही दोनों के हित में है। अन्यथा समाज में अराजकता फैलने का भय होता है। प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति से आगे की मशाल कहा था। रामचंद्र शुक्ल ने कविता को लोक से जोड़ा। कहीं न कहीं यह एक मत से स्वीकार किया गया कि जहां लोक हैं, जन है वहीं साहित्य है। साहित्य को जन के सुख दु:ख से ही संबद्ध कर दिया गया। यदि देखा जाए तो रासो या रासो साहित्य छोड़कर अधिकतर साहित्य सत्ता के विरोध में ही लिखा गया है और आधुनिक काल में तो साहित्य का अर्थ सत्ता का विरोध ही मान लिया गया, या कहें प्रतिरोध का साहित्य रचा गया। यह साहित्य व्यवस्था के विरुद्ध था, यह साहित्य व्यवस्था की खामियों के विरोध में था। संस्थागत कमियों के विरोध में था। शायद साहित्य सरकार के गलत निर्णयों के खिलाफ जनता को जागरूक करने में एक महत्वपूर्ण उपकरण था। एक महत्वपूर्ण साधन था।
बदलते समय में जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले जो साहित्य रचा गया वह जनता की समस्याओं को समझने और उनकी बातों को सरकार तक पहुंचाने का माध्यम बना। ऐसा प्रचारित होता आया है और शायद कुछ मामलों में हम इसे सच मान भी सकते हैं। आखिर साहित्य सत्ता के गलत निर्णयों का विरोध नहीं करेगा तो क्या होगा? होना चाहिए, कहीं न कहीं तो सत्ता की मनमानी पर अंकुश लगाने के लिए कुछ होना चाहिए, यह भी बात सत्य है कि अधिकतर राजनीतिक दल कहीं न कहीं कुछ नीतियों पर एक मत हैं, तो जनता के बीच अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए कोई न कोई तो मोर्चा चाहिए ही क्योंकि हर समय की सत्ता का हर समीकरण धर्म, जाति आदि पर टिका होता है, मगर साहित्यकार की पृष्ठभूमि कोई भी हो, वह मानव समाज के कल्याण के लिए ही समर्पित रहा है।
साहित्य और समाज के इस परस्पर संबंध को यदि आज की राजनीति के आईने में देखें तो कहीं न कहीं प्रतिरोध का साहित्य व्यर्थ या विध्वंसक प्रतिरोध में परिवर्तित होते दिख रहा है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के उपरांत साहित्यकारों के एक बड़े वर्ग का एक ही उद्देश्य रहा, सत्ता का विरोध और केवल विरोध। यह उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण भी हो सकता है क्योंकि कांग्रेस सरकार से साहित्यकारों का प्रेम जगजाहिर है। जहां एक तरफ सत्ता में काफी लम्बे समय तक कांग्रेस रही तो यह समझा जा सकता है कि अधिकतर नियुक्तियां एवं सम्मान कांग्रेस के नेताओं के हाथ में रहे और नियुक्ति एवं सम्मान के लिए तिकड़मों की कहानियां साहित्यिक गलियारों में आज तक गूंजती हैं।
छोटी मोटी घटनाओं के लिए मोदी सरकार को दोषी ठहराने वाले साहित्यकारों की असलियत वैसे तो अख़लाक़ काण्ड के बाद सामने आ गयी थी, और पूरी दुनिया ने छद्म मुद्दों पर अवार्ड वापसी का तांडव देखा। कई रचनाकार तो ऐसे थे जिनके विषय में आम जनता को पता ही नहीं था। सोशल मीडिया पर जब इन साहित्यकारों की बेसिरपैर की कविताओं पर प्रश्न उठाए जाने लगे और उसके विरोध में किताब वापसी अभियान आरम्भ हुआ तब इन बातों पर विराम लगा।
परन्तु सत्ता के अंधविरोध या कहें भाजपा के अंधविरोध में कथित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा उठाने वाले साहित्यकारों की असलियत तब सामने आई जब 9 फरवरी वर्ष 2016 को संसद पर हमले के दोषी अफज़ल गुरु को फांसी दिए जाने के तीन वर्ष पूरे होने पर देश विरोधी नारे लगे और जब इन नारों के विरोध में कन्हैया और उमर खालिद पर कार्यवाही की गयी तो साहित्यकारों की एक जमात उन देशविरोधी छात्रों के समर्थन में आ गई। 9 फरवरी वर्ष 2016 को वाम विचारधारा के छात्रों के एक समूह ने साबरमती होस्टल के सामने शाम पांच बजे संसद पर हमले के आरोपी अफज़ल गुरु की याद के साथ साथ जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के सह संस्थापक मकबूल भट्ट की याद में कार्यक्रम का आयोजन किया था। इस कार्यक्रम में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे-इंशा अल्लाह’ और ‘कश्मीर मांगे आज़ादी’ जैसे नारे लगे। विवाद बढऩे पर छात्र संघ के नेताओं को हिरासत में लिया गया और उन पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया।
इस काण्ड के बाद जनता ने इस आज़ादी ब्रिगेड के पीछे बड़े बड़े साहित्यकारों ने सरकार को कोसना शुरू किया। किसी ने कहा कि सरकार अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंट रही है तो किसी ने कहा कि इस सरकार में कुछ भी बोलने की आज़ादी नहीं है। जबकि अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करने वालों ने शायद सत्ता के विरोध में इतनी काली पट्टी बांध ली थी कि वे राजद्रोह और देशद्रोह दोनों के बीच अंतर भूल गए। वे ये भूल गए कि सत्ता के हर कदम के विरोध का अर्थ देश का विरोध नहीं होता। कन्हैया को नायक बनाने के प्रयास होने लगे और ‘बिहार से तिहाड़ तक’ नाम से कन्हैया की एक किताब भी आ गयी है। एक लेखक, जो अपनी एक साहित्यिक वेबसाईट संचालित करते हैं, उन्होंने बाकायदा कन्हैया का प्रचार किया। ये सभी लेखक कहीं न कहीं कांग्रेस से जुड़े रह चुके हैं। ऐसी ही बहुत प्रसिद्ध साहित्यिक वेबसाईट शब्दांकन का संचालन करने वाले कथित लेखक को दिल्ली की हिंदी अकादमी ने सम्मानित किया है। उस वेबसाईट ने अवार्ड वापसी के पक्ष में एक बेहद ही संगठित आन्दोलन चलाया था। जिन दिनों यह कथित आन्दोलन चल रहा था तब भरत तिवारी रोज़ ही कुछ न कुछ अपनी वेबसाईट पर प्रकाशित कर रहे थे। अब सवाल यह है कि आखिर एक देशद्रोह के आरोपी या कहें छद्म अवार्ड वापसी आन्दोलन को इतना समर्थन क्यों? आखिर साहित्यकारों के एक वर्ग को भाजपा सरकार से इतना विरोध क्यों है? आखिर क्यों एक ऐसा वर्ग विकसित हो गया है, जिसने असहिष्णुता की आड़ लेकर अपने स्वार्थों को पूरा करने का बीड़ा उठा रखा है। क्यों साहित्यकार एक पार्टी विशेष का मुखपत्र बने जा रहे हैं? सरकार का विरोध करते करते क्या वे अपने मूल उद्देश्य से तो भटक नहीं रहे हैं अब यह सवाल उन्हें खुद से पूछना होगा।
अभी उत्तर प्रदेश के चुनावों में भाजपा की अप्रत्याशित जीत से यह पूरा वर्ग बहुत ही चकित है या कहें कि गहरे सदमे में है तो गलत नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में चुनाव से पहले साहित्यकारों का यह वर्ग खुलकर अखिलेश और राहुल के गठबंधन के समर्थन में उतर गया था, वहीं एक वर्ग ऐसा था जो मायावती के पक्ष में था। वे कहीं न कहीं से इस प्रयास में थे भाजपा न आने पाए। भाजपा के आने से ऐसे भय खाते हैं जबकि सामाजिक स्तर पर तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार का नारा देने वाली मायावती उनकी पहली पसंद बनकर उभरी थीं। ऐसा क्यों है कि सामाजिक स्तर पर बिहार के पूरे परिदृश्य को जातिगत जहर से दूषित कर देने वाले लालू प्रसाद यादव उनके आदर्श हैं। वे अपना आदर्श किसी को भी बना सकते हैं, मगर उन्हें यह तो देखना ही होगा कि वह आदर्श कहीं देश का विरोधी तो नहीं है। प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, जिसे भारत के बौद्धिक विमर्श के एक मुख्य स्तम्भ के रूप में जाना जाता है उसका वातावरण दूषित करने के बाद यह वर्ग दिल्ली विश्वविद्यालय के वातावरण को भी दूषित करने की फिराक में है। हाल ही में रामजस कॉलेज में एक सेमिनार के बहाने कश्मीर और बस्तर की आज़ादी के नारे लगे और इन नारों के समर्थन में फिर से साहित्यकारों का वह वर्ग सामने आया जो कन्हैया के समर्थन में आगे आया था।
एक सवाल इन घटनाओं के बाद बहुत ही मुखरित होकर आया कि आखिर क्या वजह है जिसके कारण बार बार यह वर्ग देशद्रोह की तरफ मुड़ जाता है जबकि देशद्रोह की परिभाषा में स्पष्ट कहा गया है कि कोई भी देश या विदेश का आदमी यदि देश (भारत) के खिलाफ लिखकर, बोलकर, सांकेतिक रुप से या फिर अभिव्यक्ति की आजादी के जरिये देश के खिलाफ विद्रोह करता है या फिर देश या कानून के खिलाफ नफरत फैलाता है या ऐसी कोशिश करता है तब मामले में आईपीसी की धारा-124 ए के तहत ‘देशद्रोह’ का केस बनता है। इस कानून के तहत दोषी पाए जाने पर व्यक्ति को अधिकतम उम्रकैद की सजा का प्रावधान है। वहीं यह बात एकदम स्पष्ट है कि इस कानून के दायरे में स्वस्थ आलोचना नहीं आती।
आगे बढ़ते हैं तो उत्तर प्रदेश के चुनावों के उपरान्त इसी वर्ग के कई साहित्यकारों के माथे पर चिंता के बल हैं कि उन्हें देशद्रोही क्यों समझा जा रहा है? वैसे इस विषय में बहुत अधिक अध्ययन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि पिछले एक वर्ष की घटनाओं पर नजऱ डालने से और निष्पक्ष आंकलन करने से यह बात पानी की तरह स्पष्ट हो जाएगी आखिर उन्हें इस श्रेणी में क्यों न रखा जाए। सत्ता के विरोध को कब वे देश के विरोध में ले गए, ये वे समझ नहीं पाए। नरेंद्र मोदी के प्रति नफरत उनकी बौद्धिकता पर इस कदर हावी हो गयी कि वे सब कुछ भूल गए और वे ये भी भूल गए कि उनकी इन हरकतों के कारण पड़ोसी पाकिस्तान को भी भारत सरकार पर उंगली उठाने का मौक़ा मिल गया। इसी तरह जब पड़ोसी देश पाकिस्तान में सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक की तो कई साहित्यकार केवल नरेंद्र मोदी के प्रति नफरत के चलते सेना पर ही उंगली उठाने लगे।
समय बदल रहा है, और बहुत तेजी से बदल रहा है। पिछले कुछ दशकों में हिंदी साहित्य जनता से दूर हुआ है। हिंदी बाज़ार में है, मगर हिंदी साहित्य की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। प्रतिरोध का साहित्य रचने वालों ने किस तरह प्रतिरोध की बात करते करते अपने लिए महल बना लिए और जिनके लिए प्रतिरोध की कविताएं लिखीं वे लोग वहीं के वहीं रहे। अब जनता इन सब झूठे रुदन से आगे बढ़कर देश के लिए कुछ करना चाहती है, अब वह केवल नारेबाजी नहीं चाहती, अब वह हल चाहती है। दरअसल जब साहित्य सत्ता का गुलाम बन जाता है तब उससे निष्पक्षता की उम्मीद करना बेमानी है। साहित्य को सत्ता और देश दोनों में फर्क करना आना चाहिए। जब भी सरकार शपथ लेती है तो वह अपने देश के हित में हर संभव कदम उठाती है, सवाल क्रियान्वयन पर होने चाहिए। मगर विचारधारा के पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर सरकार और सत्ता में भेद न कर पाना और मात्र अपने क्षुद्र लाभों के कारण देश को गृहयुद्ध की तरफ धकेल देना, अपनी बौद्धिकता के अहं में जातिगत सौहार्द को भंग करना और दो समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाना, यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि आपको देशद्रोही समझा जाए। जनता सरकार का विरोध स्वीकार करती है, जनता को यह बहुत ही भली भांति पता है कि सरकार किसी एक पार्टी की नहीं होती है, पांच साल तक ही रहती है, फिर चुनाव होते हैं और वह एक नई सरकार को चुनती है। यह सरकार जनता की चुनी हुई सरकार है और इसी सरकार के विरोध की आड़ में जब आप देश का विरोध करते हैं या देश के टुकड़े करने वालों का सर्मथन करते हैं तो आपको यह तो तय करना ही होगा कि आखिर आप कहां खड़े हैं? और किसके साथ खड़े हैं, सीमाएं आपने अपने लिए बनाई हैं और जनता ने आपकी छवि आपके कृत्यों के आधार पर ही बनाई है, जब आप बस्तर मांगे आज़ादी और कश्मीर मांगे आज़ादी की तरफदारी करते हैं तो जनता तो आपसे पूछेगी ही ‘क्यों न कहें आपको देशद्रोही?’
सोनाली मिश्रा