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आरक्षण के पैमाने ?

विगत 2 अप्रैल को सारा देश जलता रहा। कानून में बदलाव के विरोध में तथाकथित दलित संगठनों द्वारा भारत बंद के आहवान के दौरान दीनहीन,असहाय समझे और कहे जाने वाले दलित युवकों के नाम पर राजनीतिक रहनुमाओं द्वारा गुमराह उपद्रवियों ने जमकर तोड़-फोड़ की। उन्होंने जिस मुद्दे पर भारत बंद का आहवान किया था, वह तो सही या गलत कुछ भी हो सकता है जो विवेचना से ही मालूम होगा । उसपर विवाद भी नहीं है। हो सकता है आन्दोलनकारियों को विरोध और आक्रोश की अभिव्यक्ति का अधिकार भी हो, पर उन्हें सरेआम तोड़फोड़, मारपीट, हिंसा,आगजनी करने का तो कोई अधिकार नहीं है। उनके हिंसक बंद के दौरान अनेक निर्दोष लोगों की जानें गईं। नवजात बच्चे एम्बुलेंस में मर गये । कई मरीज अस्पताल पहुँचने के पहले ही स्वर्ग सिधार गये। वे सभी दलित नहीं थे । अगर बात यूपी के मेरठ की हो तो वहां हिंसा के पीछे बीएसपी नेता की साजिश का खुलासा हुआ है। मेरठ की एसएसपी मंजिल सैनी ने बताया है कि बीएसपी के पूर्व विधायक योगेश वर्मा इस पूरे तांडव के पीछे साजिशकर्ता हैं। योगेश वर्मा पर ही हिंसा के मुख्य साजिशकर्ता होने का आरोप है । योगेश वर्मा मेरठ की हस्तिनापुर से विधायक रह चुके हैं। योगेश वर्मा को मौके पर से गिरफ्तार भी कर लिया गया है।

जेलों में जाएं घृणा फैलाने वाले

अब वक्त आ गया है कि समाज में घृणा फैलाने वालों को जेलों में ठूंसा जाए। अब देश को बंद की सियासत करने वालों को भी खारिज करना ही होगा। एक बात और। कश्मीर में अलगाववादियों का बंद, शेष भारत में दलितों का भारत बंद। क्या अनोखी जुगलबंदी है। राष्ट्रविरोधी खुराफातियों की । देश और समाज इन के ठेंगे पर।देश और समाज जाए भाड़ में। हिंसा और आगजनी जैसे इन की बपौती है। इसी के बूते तो यह देश और समाज को ब्लैकमेल करते रहते हैं। इन्हें यह भी मालूम पड़ गया है कि अपने गुस्से की अभिव्यक्ति सरकारी संपत्ति को क्षति पहुंचा कर और निर्दोषों की जन लेकर ही की जा सकती है। अजीब विडंबना है कि बाबा साहब अंबेडकर ने संसार के सर्वाधिक अहिंसक और शांतिप्रिय धर्म में अपनी जिंदगी का सुकून तलाशा था, उनके तथा कथित अनुयायी उन्हीं के नाम पर खून-खराबे में सुकून तलाश रहे हैं। वे बाबा साहब की आत्मा को कष्ट पहुंचा रहे हैं ।

बंद छोड़ गया कई सवाल

दरअसल देश को शिक्षण संस्थानों से लेकर सरकारी नौकरियों में आरक्षण दीमक की तरह से चाटने लगा है। हालिया भारत बंद अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया है। सवाल यह है कि यह देश तो सबका है, तो फिर यहां पर सबको बराबर के अवसर क्यों ना मिले? यह सच है कि हिन्दू समाज जाति के कोढ़ से घिरा है। पर भारतीय संविधान जाति पर आधारित नहीं है। वह तो सभी नागरिकों के साथ हर स्तर पर समता और बराबरी की बात करता है। उसमें भेदभाव-असमानता के लिए कोई जगह नहीं है। संविधान धर्म, जाति, रंग, समाज वगैरह के स्तर पर भेदभाव नहीं करता। इस आलोक में आरक्षण के आधार पर नए सिरे से बहस हो जाए तो क्या बुराई है। इसमें किसी को क्या दिक्कत होगी ? इसकी जरूरत इसलिए महसूस हो रही है क्योंकि पटेल,जाट और गुर्जर जैसी संपन्न जातियां भी अपने लिए आरक्षण के नाम पर बंटने वाली सरकारी पंजीरी खाने के लिए आंदोलन के रास्ते पर उतर रही हैं। क्या कोई मानेगा कि इन तीनों मजबूत जातियों को आरक्षण की दरकार है? इनके पास जमीनें और धन है, फिर भी इन्हें अतिरिक्त की चाहत है। आख़िरकार, बाबा साहब ने भी तो दस वर्षों के लिए ही आरक्षण का प्रावधान किया था जिसे वोट बैंक की राजनीति ने सत्तर वर्षों तक खींच लिया ।

भारत का संविधान जातिविहिन

पंडित जवाहरलाल नेहरु ने 13 जून, 1951 को लोकसभा में एक बहस के दौरान कहा था, “भारत का संविधान एक जातिविहिन और वर्गविहिन समाज की तरफ बढ़ने का वादा करता है।और तो और, जिन दलितों ने ईसाई और इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया है, वे भी आरक्षण का लाभ लेने के संविधान में हक़दार नहीं माने गए।

बाबा साहब अंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा को संबोधित करते हुए बहुत साफ शब्दों में कहा था, “जाति तो राष्ट्र विरोधी है। … भारत में जातियों के असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जातियां राष्ट्र-विरोधी हैं। इनसे समाज बिखरता है। ये राष्ट्र-विरोधी इस मायने में हैं क्योंकि इनके (जातियों) के चलते विभिन्न जातियों में एक-दूसरे को लेकर कटुता का भाव पैदा होता है। इन उपद्रवियों को बाबा साहब भीमराव रामजी अम्बेडकर के उस रिसर्च थीसिस को पढना चाहिए जिसे बाबा साहब ने जाति प्रथा पर ही किया था और जिसपर उन्हें डाक्टरेट की उपाधि मिली थी । पर, हमारे राष्ट्रपुरुषों के जाति के जहर को लेकर रखे गए विचारों के बावजूद देश जाति के दलदल में धंसता ही चला जा रहा है। आरक्षण की नीति की बंदरबाट के चलते देश को बांटने का साजिश लगातार की जा रही है। विभिन्न समाज और समुदाय एक-दूसरे को लेकर कटुता का भाव रखने लगे हैं। आरक्षण समाज को जोड़ तो कतई नहीं रहा।आरक्षण का लाभ भी पिछड़ों और दलितों की दबंग जातियों को ही हो रहा है। आरक्षित वर्ग की कमजोर जातियां अभी भी लाभ से वंचित हैं।

मैंउत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छतीसगढ़, मध्य प्रदेश,राजस्थान के सामाजिक ताने-बाने को करीब से जानता हूं। इनमेंपिछले पांच दशकों से आना-जाना लगा हुआ इन प्रदेशों के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हूं। इन प्रदेशों के गांवों में रहने वाले ब्राहमण, ठाकुर,भूमिहार, कायस्थ, मारवाड़ी वगैरह अगड़ी जातियों के लोग भी घोर निर्धनता में जीवनयापन कर रहे हैं। इनकी जमीन की जोत भी निरंतर घट रही है। इनको सरकार के स्तर पर कोई मदद नहीं है। तोक्या इनका दुख-दर्द कोई नहीं सुनेगा क्योंकि इनका संबंध कथित अगड़ी जातियों से है। क्या ये देश के नागरिक नहीं।

राजनीतिक रोटी सेंकने वाले इस तरह की अफवाह फ़ैलाने में लगे हैं जैसे कि केंद्र सरकार आरक्षण विरोधी है । हालाँकि  सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के एक दलित कर्मचारी भास्कर गायकवाड़ के मुकदमें पर ही स्पुरिम कोर्ट ने 20 मार्च 2018 को यह फैसला दिया था कि किसी भी कानून के तहत चाहे वह एससी-एसटी कानून हो क्यों न हों बिना छानबीन के कोई गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए। वैसे तो केंद्र सरकार ने आनन-फानन में सुप्रीम कोर्ट में एक पुनर्विचार याचिका भी दायर कर दी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले को बदलने से इनकार कर दिया ।

जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और जस्टिस उदयउमेश ललित की पीठ ने मंगलवार को कहा कि जो लोग आन्दोलन कर रहे हैं, उन्होंने शायद हमारे फैसले को ठीक से पढ़ा ही नहीं है । उन्हें निहित स्वार्थी लोगों ने गुमराह कर दिया होगा । पीठ ने कहा, ‘हमने एससी –एसटी कानून के किसी भी प्रावधान को कमजोर नहीं किया है लेकिन सिर्फ निर्दोष व्यक्तियों को गिरफ्तारी से बचाने के लिए उनके हितों की रक्षा की है । शीर्ष अदालत ने एक घंटे तक केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा, एससी –एसटी कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल निर्दोषों को आतंकित करने के लिए नहीं किया जा सकता।

मजे की बात यह है कि आन्दोलनकारियों ने अनेक दलित  नेताओं और खासकर चुने हुए जनप्रतिनिधियों को भी अपने आक्रोश का शिकार बनाया जिसमें विभिन्न राज्यों के कई भाजपा के निर्वाचित दलित विधायक भी शामिल हैं ।

दलित व्यापारी राजेंद्र प्रेमी का कहना है कि गाँव में रहने वाले दलितों का जीवन यापन उधर के पैसों पर ही होता है । रिश्ते बिगड़ेंगे तो गरीब दलितों को उधार पैसा देने से भी लोग कतरायेंगे । महर्षि वाल्मीकि सेवा संघ के संयोजक मनोज वाल्मीकि का कहना है कि जिस एससी एसटी एक्ट के बढ़े दुरूपयोग पर सरकारें बदली हैं, अब उसको लेकर आन्दोलन की वजह समझ से परे है । बंद के दौरान जिस तरह सुनियोजित तरीके से आगजनी व् तोड़फोड़ की वारदात हुई, उससे पूरे घटनाक्रम के पीछे कोई बड़ी ताकत होने की संभावना जता रहे पूर्व विधायक रणवीर सिंह का कहना है कि दलितों के एक वर्ग की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। दलित समाज का अराजकता से कभी नाता नहीं रहा और प्रदर्शन में जिस तरह देवी देवताओं को अपमानित किया गया, उसके परिणाम निकट भविष्य में अच्छे न होंगे । भारतीय दलित विकास संस्थान के संयोजक डॉ.चरण सिंह को ही नहीं वरन मुजफ्फरपुर के गाँव धनायन के निवासी सुमेर सिंह को भी सता रही है। खेतों में मजदूरी करके परिवार पालने वाले 56 वर्षीय दलित सुमेर सिंह को डर है कि गेहूं कटाई के सीजन में ही खामियाजा भुगतना पड़ सकता है । उनका डर काम न मिलने से ज्यादा लोगों के ताने सुनने को लेकर है । छींटाकसी स्वाभाविक है और इसके कहीं पर भी तनाव हो सकता है ।

दलित संगठनों द्वारा आहूत ‘भारत बंद’ से राजनीतिक नफा नुकसान जो भी हो परन्तु इस दौरान हुई हिंसक घटनाओं से सामाजिक रिश्तों की डोर कमजोर होने का खतरा बढ़ा है । शहरों में आगजनी व् मारपीट की घटनाओं का असर ग्रामीण क्षेत्रों में भी दिखने की आशंका से इनकार नहीं किया जा रहा । इसकी सीधी मार दलित समुदाय के श्रमिकों को झेलनी पड़ेगी । अधिवक्ता जगतपाल का कहना है कि प्रदर्शन में प्रयोग किये गए नीले झंडे और बैनरों पर लिखी भाषा पर भी गौर करने की जरूरत है ।        

हालाँकि इस तोड़फोड़ और हिंसा से राहुल गाँधी, मायावती, वामपंथी पार्टियाँ, राजद जैसे पार्टियों को वोट बैंक दिख रहा है । किन्तु, स्वतंत्र दलित चिन्तक, विचारक के लिए यह खतरे की घंटी है ।    

यह सच है कि आरक्षण को समाप्त करने की स्थिति तो नहीं बन पाई है। इसे तुरंत ख़त्म भी नहीं किया जा सकता। अमेरिका में भी अश्वेतों को सरकार की तरफ से कई तरह की रियायतें मिलती हैं। अगर नहीं मिलती तो बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं बनते। दक्षिण अफ्रीका की क्रिकेट टीम में भी अश्वेतों के लिए कुछ स्थान आरक्षित हैं। मैं स्वयं भी कतई आरक्षण विरोधी नहीं हूं। पर, अब आरक्षण के पात्रों के पैमाने पर नए सिरे से विचार कर लेने में बुराई ही क्या है? आप अपने घऱ का ही उदाहरण ले लीजिए। क्या कोई मां अपनी उस संतान को घी से चुपड़ी रोटी नहीं देती जो शारीरिक रूप से कमजोर या पढ़ाई या किसी अन्य लिहाज से उसके दूसरे बच्चों से उन्नीस होते हैं? तो क्या भारत माता अपनी किसी संतान के साथ किसी भी अन्याय को सहन करेगी? बेशक नहीं।

अब यह भी मांग उठ रही है कि आरक्षण का लाभ उन्हें ही मिले जो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। यह मांग सोलह आने वाजिब है। जो भी आर्थिक रूप से कमजोर हो उसे लाभ दे दो। फिर जाति को मत देखो। जाति के आधार पर आरक्षण की मांग करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्होंने कोई अध्ययन किया जिससे पता चल सके कि अब आख़िरकार केन्द्र-राज्यों में सरकारी नौकरियां ही कितनी बची हैं? सरकारी नौकरियां तेजी से सिकुड़ रही हैं। इसलिए अपने को किसी समाज का नेता या रहनुमा कहने वालों को अपनी रणनीति को बदलना होगा, अगर वे सच में अपने समाज के शुभचिंतक हैं। कमजोर वर्गों को पढाई, कोचिंग, प्रतियोगिता की तैयारी में बेहतर और नि:शुल्क सुविधा देनी होगी, लेकिन, मात्र जाति के आधार पर आरक्षण को तो समाप्त कर देने से ही समाज की कटुता दूर हो सकेगी। नीति यह होनी चाहिये कि आर्थिक रूप से कमजोर युवकों को बेहतर अवसर प्रदान करो, हो सके तो नि:शुल्क प्रदान करो, रहने और भोजन की उचित व्यवस्था करो, ताकि वे बाकि समाज की हर तरह से बराबरी कर सकें। लेकिन, जाति के नाम पर आरक्षण का समाज तोड़कर कानून ख़त्म करो ।  

उद्यमी बनने का वक्त

अब सभी जातियों के नेताओं को अपने समाज के नौजवानों को आरक्षण जैसे मसलों से आगे सोचने के लिए प्रेरित करना चाहिए।अब नौकरी का नहीं बल्कि आंत्रप्योनर यानी उद्यमी बनने का वक्त है। नई अर्थव्यवस्था सबको  उद्यमी बनने के अवसर दे रही है। इसे जाति या वर्ग से कोई लेना देना नहीं है। नये आइडिया पर काम करके कमाइये पैसा और दीजिए रोजगार। इसी का परिणाम है कि देश में लाखों फर्स्ट जेनरेशन आंत्रप्योनर सामने आ रहे हैं। इसी तरह से सर्वाधिक कमजोर वर्गों के लोग सरकारी नौकरियां सेना,सीमा सुरक्षा बल,सीआरपीएफ, असम राइफल्स वगैरह में हैं। लेकिन, वहां पर भी अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति तथाअन्‍य पिछड़ा वर्ग के लिए अलग से आरक्षण लागू नहीं है। सशस्‍त्र बलों में भर्ती किसी वर्ग, जाति, समुदाय, क्षेत्र अथवा धर्म का ध्‍यान किए बिना उनकी शारीरिक योग्‍यता के आधार पर होती है। इनमें सभी नागरिकों को रोजगार पाने का बराबर का अवसर भी प्राप्त होता है। जब मनोहर पार्रिकर रक्षा मंत्री थे,तब उन्होंने लोकसभा में यह जानकरी दी थी। सेना में नौकरी पाने की एकमात्र कसौटी मैरिट है। इसके चलते सेना की दलित और पिछड़ी जातियों से संबंध ऱखने वाले भी नौजवान लंबी छलांग लगा रहे हैं। क्योंकि, उनकी शारीरिक क्षमता ज्यादा विकसित है और वे ज्यादा कष्टपूर्ण संधर्ष करने में सक्षम हैं जो सैन्य बलों की जरूरत है।

यह मान लीजिए कि आप हिंसा के रास्ते पर चलकर तो आगे नहीं बढ़ सकते। एक बार पुलिस केस हो गया तो फिर गए काम से। इसलिए तप और त्याग के रास्ते से ही सफलता मिल सकती है। यह मार्ग अगड़े-पिछड़े सबके लिए है। पूरे देश को अहिंसक और शांति पूर्ण रास्ता अपनाने में ही भलाई है। गरीब और निर्दोष युवक कोर्ट-कचहरी के चक्कर में आपनी जवानी बर्बाद कर देते हैं। भीड़ को गुमराह करने वाले दुष्ट नेता तो मलाई खाने में ही व्यस्त रहते हैं।  

आर.के.सिन्हा                                      

(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)

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