मशहूर सिटकॉम Big Bang Theory के एक एपिसोड में उसका एक किरदार Howard बताता है कि इस हफ्ते वो मशहूर भौतिक विज्ञानी Stephen Hawking से काम के सिलसिले में मिलने वाला है। दोस्तों के इस बारे में बताते हुए Howard, Hawking की मिमिक्री भी करके दिखाता है। हम सभी जानते हैं कि 21 साल की उम्र में Hawking मोटर न्यूरॉन डिसीज का शिकार हो गए थे और वो स्पीच सिंथेसाइजर की मदद से बोलते थे जिसके कारण उनकी आवाज़ अलग तरह से सुनाई देती थी। हॉकिंग की मिमिक्री करते हुए Howard उनके इसी अलग अंदाज़ की नकल करता है।
अब आप सोचिए एक शख्स जो पिछले सौ सालों का महानतम भौतिक विज्ञानी हैं। जो बचपन की एक बीमारी की वजह से अपनी आवाज़ खो बैठा है। एक मशहूर सिटकॉम शो के क्रिएटर उसे अपने शो में सेलिब्रीटी की हैसियत से बुलाते हैं और इतनी छूट भी ले लेते हैं कि बीमारी से उपजी उसकी एक कमज़ोरी का मज़ाक भी उड़ा पाएं! और उससे भी बढ़कर हॉकिंग उन्हें ऐसा करने की छूट भी देते हैं और उन्हें इस पर कोई आपत्ति भी नहीं होती!
गौतम बुद्द ने एक दफा कहा था कि मैं नहीं चाहता कि मेरे शिष्य मेरे पास रहें तो हमेशा गुरू की दहशत या संकोच में रहें। मैं चाहूंगा कि वो मेरे मुंह पर ही मेरा मज़ाक बनाएं। मेरे साथ मज़ाक करें।
आज शिवाजी महाराज पर एक महिला कॉमेडियन के जोक करने से आहत होकर कुछ लोगों को उन्हें बलात्कार की धमकी देने जैसी बातें सुनकर मैं यही सोचता हूं कि शिवाजी महाराज अगर आज ज़िंदा होते तो क्या वो भी खुद पर सुनाए चुटुकुलों पर ऐसे ही रिएक्ट करते! जितना थोड़ा-बहुत मैंने शिवाजी महाराज को पढ़ा है, उनकी शख्सियत को जाना है वो ऐसा हरगिज़ नहीं करते।
शिवाजी महाराज ही क्यूं, ऐसी हर वो शख्सियत जिनका नाम लेकर उनके तथाकथित अनुयायी मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं, क्या वो शख्सियत भी अपने विरोध, मान-सम्मान को लेकर इतना ही Intolerance दिखाती? कितनी महान शख्सियतों के तथाकथित अनुयायी आए दिन उनको भारत रत्न दिलाने या कोई और बड़ा सम्मान देने के नाम पर आंदोलन करते हैं।
क्या आपको लगता है कि कोई महान शख्स खुद इतना ओछा हो सकता है कि वो अपने लिए ऐसी मांग करता या अपने जीते-जी अपने समर्थकों को अपना नाम लेकर ऐसा ओछापन करने देता? हरगिज़ नहीं!
जैसाकि विवेकानंद जी ने कहा था कि एक शख्स जिसका आधा जीवन इन बातों में बीत जाता है कि गाय को रोटी किस हाथ से खिलानी है, घर में प्रवेश करते वक्त कौनसा कदम पहले रखना है, क्या आप ऐसे आदमी से ये उम्मीद करते हैं कि वो जीवन में कुछ सार्थक या बड़ा कर पाएगा!
2012 में मैंने इसी विषय पर लिखे एक व्यंग्य ‘लड़ाकों का कंफर्ट ज़ोन’ में सवाल किया था कि भावनाएं आहत करवाने वाले अपने लिए वही लड़ाइयां क्यूं चुनते हैं जिनमें उन्हें कुछ करना न पड़े।
हमारी भावनाएं इस बात से आहत नहीं होती कि मुम्बई में दुनिया की दो सबसे बड़ी झुग्गियां हैं मगर इस बात पर बहुत बुरा मान जाते हैं जब Slumdog millionaire में वो भारत दिखाया जाता है जो झुग्गी में रहता है। हमारी भावनाएं इस बात से हर्ट नहीं होती कि दुनिया में एक तिहाई से ज्यादा गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग भारत से हैं मगर हमें इस बात का बहुत बुरा लग जाता है जब कोई मैथ्यू हेडन हमें तीसरी दुनिया का देश कह देता है। हमें इस बात का बुरा नहीं लगता कि आज देश में बिक रहे मोबाइल में 5 फीसदी भी Made in India नहीं है लेकिन इस बात पर हमारा खून ज़रूर खौल जाता है जब ग्लोबल टाइमस् का कोई संपादक चुटकी लेता है कि भारत तो ऐसी कोई चीज़ ही नहीं बनाता जिसका हम बहिष्कार कर सकें।
सच तो ये है कि कड़वी हकीकत पर बुरा मान जाने पर ग़ैरत को ललकारना पड़ता है, हालात बदलने के लिए कुछ करना पड़ता है…हालात बदलना मुश्किल काम है किसी को गाली देना आसान विकल्प है इसलिए हम भावनात्मक मामलों पर अपनी भावनाएं आहत करवाकर खुद के ज़िंदा होने की घोषणा करते रहते हैं।
हम किसी व्यक्ति, किसी जाति, किसी किताब को अपनी पूरी शख्सियत से जोड़ लेतें हैं और उसके खिलाफ की गई किसी भी टिप्पणी पर भड़ककर खुद को तसल्ली देते हैं कि हम शायद अपनी पूरी शख्सियत की रक्षा कर रहे हैं! जैसाकि Mark Manson ने The Subtle Art…में कहा था कि जीवन की असली चुनौती ही ये पता लगाना है कि किस बात पर लोड लेना है और किस पर नहीं! हॉकिंग के प्रशंसकों को इस बात से घंटा फर्क नहीं पड़ता कि कुछ साल पहले किसी सिटकॉम में किसी ने उनकी किसी बीमारी पर मज़ाक बनाकर लोगों को हंसाया था उनके लिए तो आज भी वो सब किताबें ही मायने रखती हैं जिसने उन्हें इस दुनिया को देखना का एक नया नज़रिया दिया।
-नीरज बधबार