शिक्षा मंत्री डाॅ. रमेश पोखरियाल निशंक ने आज घोषणा की है कि उनका मंत्रालय उच्च शिक्षा में भारतीय भाषा के माध्यम को लाने की कोशिश करेगा। बच्चों की शिक्षा भारतीय भाषाओं या मातृभाषाओं के माध्यम से हो, यह तो नई शिक्षा-नीति में कहा गया है और कोठारी आयोग की रपट में भी इस नीति पर जोर दिया गया था। 1967 में इंदिरा सरकार के शिक्षा मंत्रियों डाॅ. त्रिगुण सेन, श्री भागवत झा आजाद और प्रो. शेरसिंह तथा बाद में डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने भी शिक्षा में भारतीय भाषाओं को बढ़ाने की भरपूर कोशिश की थी लेकिन हमारी सरकारें, चाहे वे भाजपा या कांग्रेस या जनता दल की हों, शिक्षा का भारतीय भाषाकरण करने में विफल क्यों रही हैं ? इसलिए विफल रही हैं कि उन्हें बाल तो सिर पर उगाने थे लेकिन वे मालिश पांव पर करती रहीं। पांव पर मालिश याने बच्चों को मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाना तो अच्छा है लेकिन वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं, अंग्रेजी की गुलामी करने लगते हैं। उन्हें देखकर समझदार और समर्थ लोग पांव की मालिश भी बंद कर देते हैं। वे अपने बच्चों को भी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाते हैं। यदि हम देश में शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान का माध्यम स्वदेशी भाषाओं को बनाना चाहते हैं तो सबसे पहले उच्च-शिक्षा और पीएच.डी. के शोध-कार्यों को अपनी भाषाओं में करने को प्राथमिकता देनी चाहिए। यदि हमारी सरकारें ऐसी हिम्मत करें तो करोड़ों लोग अपने बच्चों को जानलेवा और जेबकाटू अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में क्यों पढ़ाएंगे ? तब सरकारी नौकरियों से भी अंग्रेजी की अनिवार्यता हटानी पड़ेगी। यह बात मैं पिछले साठ साल से कहता आ रहा हूं लेकिन निशंक-जैसे शिक्षा मंत्री के मुंह से यह बात पहली बार सुनी है। 2011 में मेरे कहने पर भोपाल में अटलबिहारी वाजपेयी हिंदी वि.वि. इसी उद्देश्य के लिए बनवाया गया था लेकिन अब भी वह घुटनों के बल रेंग रहा है। अब से 55 साल पहले मैंने इंडियन स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में जब अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने की मांग की थी तो मुझे ‘स्कूल’ से निकाल बाहर किया गया था। देश की सभी पार्टियों के नेताओं ने, द्रमुक के अलावा, मेरा समर्थन किया था। संसद का काम-काज कई बार ठप्प हुआ लेकिन अंततोगत्वा मेरी विजय हुई लेकिन असली मुद्दा आज भी जहां का तहां खड़ा है, क्योंकि हमारी सभी सरकारें और शिक्षाशास्त्री अंग्रेजी की गुलामी में जुटे हुए हैं। शायद डाॅ. निशंक कुछ कर गुजरें। वे पढ़े-लिखे विद्वान व्यक्ति हैं। यदि वे अंग्रेजी की बपौती को खत्म करके अंग्रेजी समेत 5-7 विदेशी भाषाओं को देश में प्रचलित करें तो हमारा विदेश-व्यापार और राजनय कुलांचे भरने लगेगा और भारत दुनिया की एक सबल और संपन्न महाशक्ति हमारे देखते-देखते बन जाएगा। www.drvaidik.in
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक