एचडीएफसी की कामयाबी का राज क्या? या कैसे कोई कंपनी बन जाती है एचडीएफसी की तरफ कामयाब
आर.के. सिन्हा
एचडीएफसी बैंक में एचडीएफसी लिमिटेड के विलय को कई स्तरों पर गंभीरतापूर्वक देखना होगा। हिन्दुस्तान का हरेक वह शख्स जो अपने घर का सपना देखता है वह हाउसिंग लोन एचडीएफसी बैंक से ही पहले लेने के संबंध सोचता है। दूसरी बात यह कि एचडीएफसी बैंक देश के नौजवानों की पहली पसंद हो गया है। अगर आपको यकीन ना हो तो किसी एचडीएफसी बैंक की शाखा में कुछ देर खड़े होकर देख लें कि वहां के कस्टमर का सामान्य प्रोफाइल किस तरह का है।
अब यह माना जा रहा है कि विलय के बाद एचडीएफसी बैंक टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज (टीसीएस) को पीछे छोड़कर भारत की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी बन जाएगी। पर यह कितने लोगों को पता है कि इस सफलता की इबारत लिखने में एचडीएफसी के चेयरमेन दीपक पारेख और कुछ समय पहले तक एचडीएफसी बैंक के मैनेजिंग डायरेक्टर रहे आदित्य पुरी का खास रोल रहा है। दीपक पारेख ने एचडीएफसी बैंक की कमान आदित्य पुरी को सौंपी। आदित्य पुरी तब मलेशिया में सिटी बैंक में काम कर रहे थे। आदित्य पुरी को एक नए बैंक को खड़ा करना चुनौतीपूर्ण लगा। उन्होंने सिटी बैंक की शानदार नौकरी को छोड़कर एक बिल्कुल नए बैंक में नौकरी करना चुनौतीपूर्ण अवसर के रूप में सही माना। उसके बाद आदित्य पुरी ने एचडीएफसी बैंक को खड़ा किया। उन्होंने एचडीएफसी बैंक को देश के सर्वश्रेष्ठ बैंकों में से एक के रूप में स्थापित कर के दिखा दिया। एचडीएफसी बैंक और एचडीएफसी लिमिटेड के विलय से पहले आदित्य पुरी रिटायर हो गए। लेकिन, उन्होंने अपने कई योग्य उत्तराधिकारी तैयार कर लिए। उन्हें कप्तानी के गुण समझाए-सिखाए। इसलिए वहां सत्ता का हस्तातंरण मजे से हो गया। आदित्य पुरी के जाने के बाद भी एचडीएफसी बैंक आगे बढ़ रहा है। एचडीएफसी बैंक का एचडीएफसी लिमिटेड में विलय भी इस बात की गवाही है। दरअसल किसी पार्टी, परिवार से लेकर संस्थान की पहचान उसके कप्तान से होती है। वही दिशा देता है और उसका ही विजन होता है। पर अफसोस कि सब बैंकों या दूसरे संस्थानों को आदित्य पुरी या दीपक पारेख जैसे गुणी लोग शिखर पर नहीं मिलते। राणा कपूर में भी बहुत संभावनाएं देखी जा रही थीं। वे यस बैंक के चेययमेन थे। पर राणा कपूर की काहिली और करप्शन के कारण यस बैंक लगभग डूब ही गया। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने पिछले साल यस बैंक से पैसे निकालने की अधिकतम सीमा तय कर दी थी। राणा कपूर ने यस बैंक को नोच-नोचकर खाया। पर आखिर में जब उनके पाप का घड़ा भरा तब वे जेल में हैं। मतलब वे यस बैंक को एचडीएफसी बैंक के स्तर पर लेकर जाने में असफल रहे। या उनहोंने कोशिश ही नहीं की, उनके लालच से उनका बैंक धूल में मिलता रहा।
अब आईसीआईसीआई बैंक की भी बात कर लेते हैं। इसकी एमडी और सीईओ चंदा कोचर ने भी बैंक को खूब चूना लगाया। कोचर ने नियमों को ताक पर रखकर वीडियोकॉन को लोन दिये। वह अंत में वह भी अपने ही बुने जाल में फंस गईं और जेल भी गईं।
दरअसल विगत कुछ समय के दौरान देश के कई दिगगज बैंकर अपनी ही करतूतों के कारण फंसे। यूनाइटेड बैंक आफ इंडिया (यूबीआई) की पूर्व चेयरमेन और मैनेजिंग डायरेक्टर (सीएमडी) अर्चना भार्गव के खिलाफ भी करप्शन का केस दर्ज किया गया था। अर्चना भार्गव पर आरोप था कि वर्ष 2011 में केनरा बैंक का कार्यकारी निदेशक रहते हुए और 2013 में यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया की सीएमडी के तौर पर उन्होंने उन कंपनियों को दिल खोलकर लोन दिलवाया जो उनके पति और पुत्र की कंपनियों से डील करतीथीं। वह पति और पुत्र के जरिये कमीशन खा रही थीं। उधर, सिंडिकेट बैंक के सीएमडी एस.के.जैन 50 लाख रुपये की घूस लेने के आरोप में गिरफ्तार किये गये थे। तो लब्बो- लुआब यह है कि बिना कुशल नेतृत्व के कोई संस्थान बुलंदियों को नहीं छू सकती। हरेक संस्थान को लगातार न्यायप्रिय और मेहनती नेतृत्व मिलते रहना चाहिए। अच्छा कप्तान वही होता है जो अपने मेहनती साथियों को प्रोत्साहित करता है और जो उसके साथी काम में उन्नीस होते हैं उन्हें भी हतोत्साहित नहीं करता। दीपक पारेख ने एचडीएफसी बैंक तथा एचडीएफसी लिमिटेड के विलय संबंधी जानकारी देते हुए कहा कि अब उनकी उम्र 75 पार हो चुकी है। इसलिए वे अब किसी रूप में नई कंपनी का हिस्सा नहीं होंगे। यानी वह शख्स एचडीएफसी बैंक-एचडीएफसी लिमिटेड के विलय के बाद बनने वाली नई कंपनी का हिस्सा नहीं होगा जो एक तरह से इसका जन्मदाता है। पर यही समय का चक्र है। इसलिए यह जरूरी है कि सभी कंपनियों तथा संस्थानों के शिखर पर बैठे अधिकारियों को अपने संभावित उत्तराधिकारियों को तैयार कर लेना चाहिए। देखिए हरेक व्यक्ति के सक्रिय करियर की एक उम्र है। उसके बाद तो उसे अपने पद को छोड़ना ही है। इसलिए बेहतर होगा कि किसी कंपनी का प्रमोटर, चेयरमेन, मैनेजिंग डायरेक्टर या किसी जिम्मेदार पद पर आसीन शख्स अपना एक या एक से अधिक उत्तराधिकारी तैयार कर ले। कुशल उत्तराधिकारी मिलने से किसी कंपनी या संस्थान की ग्रोथ प्रभावित नहीं होती। सत्ता का हस्तांतरण बिना किसी संकट या व्यवधान के हो जाता है। आप कंपनी को मेनेटर या संरक्षक के रूप में शिखर या कहें कि चेयरमेन के पद से हटने के बाद भी सलाह तो दे सकते हैं।
रतन टाटा 2017 से टाटा समूह के रोजमर्रा के कामकाज से तो अपने को अलग कर चुके हैं। पर वे टाटा समूह की कंपनियों के शीर्ष नेतृत्व अपने अहम फैसले लेते हुए रतन टाटा से सलाह लेते ही है। कहते हैं कि टाटा समूह ने एयर इंडिया के टेक ओवर करने से पहले भी उनकी सलाह ली। उन्होंने हरी झंडी दिखाई तो टाटा समूह ने एयर इंडिया का टेक ओवर कर लिया। कहना न होगा कि दीपक पाऱेख एचडीएफसी बैंक-एचडीएफसी लिमिटेड के विलय के बाद निकलने वाली कंपनी से सीधे तौर पर तो नहीं जुड़े रहेंगे, पर कंपनी उनके अनुभव का लाभ तो लेती ही रहेगी। अब देश भी अपने पूर्व सेनाध्यक्षों की आपातकालीन हालातों में सलाह तो लेता ही है। आखिर अनुभव का तो कोई विकल्प कभी हो ही नहीं सकता।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)