नागरिकता संशोधन कानून के लागू होने के बीच राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर व राष्ट्रीय जनगणना – 2021 को भी केंद्रीय कैबिनेट की मंजूरी मिल गयी है। इनके बीच विवादों में आए “राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर” पर सरकार मौन हो गयी है। विपक्ष का कहना है कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर पिछले दरवाजे से राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने का ही काम है। अनपेक्षित रूप से सेकुलरपंथी दलों व वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा सरकार के इन सभी संवैधानिक व उचित कदमों का विरोध कान खड़े करने वाला है। जिस प्रकार विपक्ष द्वारा सुनियोजित तरीके से अप्रत्यक्ष रूप से देश के मुस्लिम समुदाय को उकसाया व भ्रमित किया गया, यह भी आश्चर्यजनक है। देश में पिछले चार दशकों में करोड़ों घुसपैठियों को सेकुलरपंथी दलों ने देश में बसने में मदद की है। इनमें अधिसंख्य मुस्लिम समुदाय के हैं व इनको इन दलों ने राशन कार्ड व वोटर आईडी कार्ड दिलाकर अपना वोटबैंक बनाकर रखा है। ये लोग वास्तव में देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ हैं और देश के समग्र विकास के लिए इनकी वापसी बहुत जरूरी है। इसी कारण देश के बहुसंख्यक हिंदू डरे व घबराए रहते हैं व इसको देश का इस्लामीकरण मानते हैं। इसी कारण अधिसंख्य हिंदू आबादी अल्पसंख्यकवाद की राजनीति के खिलाफ भाजपा के साथ खड़ी हो गयी है। मोदी सरकार ने देश में समान आचार संहिता लागू करने की मंशा अपने चुनावी घोषणा पत्र में की हुई है। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर इसी दिशा में एक निर्णायक कदम है। मोदी सरकार राष्ट्रीय जनसंख्या नीति पर भी काम कर रही है। हालांकि सरकार द्वारा इन सभी कदमों की औपचारिक घोषणा अभी नहीं की गई है किंतु धारा 370 की समाप्ति व राम मंदिर निर्माण की घोषणा के बीच मोदी सरकार ने अब देश मे “ऑपरेशन न्यू इंडिया” छेड़ दिया है। अपने पिछले कार्यकाल मे अपेक्षाकृत शांति से कार्य करने वाली मोदी सरकार अब पुन: निर्वाचित होने के बाद तेजी से अपने राष्ट्रवादी एजेंडे को लागू करने के लिए उद्धत है। इस तेजी से उभरी परिस्थितियों व इन प्रमुख कदमों का गहराई से विश्लेषण करती वरिष्ठ पत्रकार रामहित नंदन व अनेक प्रमुख लेखकों व स्तंभकारों की यह रिपोर्ट
रामहित नंदन
हमने पिछले अंक में ही पाठकों को आगाह किया था कि कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई, राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाज पार्टी आदि जैसी जातिवादि इस्लामिक सांप्रदायिक (जाइसा) पार्टियां नागरिकता संशोधन विधेयक (सिटीजनशिप अमेंडमेंट बिल, कैब), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस, एनआरसी) और जनसंख्या नियंत्रण विधेयक पर इस्लामिक सांप्रदायिक कार्ड खेल रही हैं।
जब कैब पर लोक सभा और राज्य सभा में चर्चा हुई तो जाइसा दलों का इस्लामिक सांप्रदायिक चेहरा बेनकाब हो गया। जहां सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इसके लाभ गिनवा रही थी और बता रही थी कि ये विधेयक किसी की नागरिकता लेने के लिए नहीं, अपितु पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उन हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी लोगों को नागरिकता देने के लिए है जो धार्मिक-सामाजिक उत्पीडऩ के कारण भारत आए हैं, वहीं जाइसा दल मुसलमानों को भड़काने में लगे हुए थे और इस मकसद से बेसिरपैर के घोर सांप्रदायिक तर्क दे रहे थे। सच कहा जाए तो वो इसे हिंदू बनाम मुसलमान का मुद्दा बनाने पर तुले हुए थे।
लेकिन ये दल कैब पारित होने के बाद भी नहीं रूके। इन्होंने संसद के बाहर भी जहर उगला। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके बेटे-बेटी ने तो दिल्ली में ‘भारत बचाओ’ रैली में भरपूर विष वमन किया और लोगों को सड़क पर निकलने और हिंसा के लिए उकसाया। जब देश भर में मुसलमान नागरिकता संशोधन कानून (सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट, सीएए) के खिलाफ तोड़-फोड़, आगजनी और मार-पिटाई पर उतारू थे तब सोनिया ने 20 दिसंबर को जुम्मे के दिन एक बार फिर संदेश जारी कर आग में घी डालने का काम किया। उन्होंने एक बार भी मुसलमानों को हिंसा रोकने या पुलिस पर हाथ न उठाने की अपील नहीं की। कहने को कांग्रेस पार्टी महात्मा गांधी के गुण गाती है, लेकिन जैसी भूमिका स्वयं इसकी अध्यक्ष ने निभाई, वह इसके इरादों पर तो प्रश्नचिन्ह लगाती ही है, देश के लिए भी चिंता का विषय है।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और केरल के मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन ने अपने पद की संवैधानिक गरिमा के खिलाफ इस कानून के विरूद्ध बयान दिया और कहा कि वो इसे अपने-अपने प्रदेशों में लागू नहीं होने देंगे जबकि इन्हें मालूम है कि नागरिकता कानून केंद्र का विषय है और इसे लागू करना या न करना उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। ममता बैनर्जी ने तो इस विषय पर बकायदा रैली की और केंद्र सरकार को अपनी बर्खास्तगी की चुनौती तक दे डाली। यही नहीं, उन्होंने भारत की संप्रभुता और अखंडता को ताक पर रखते हुए सीएए और एनआरसी पर संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में जनमत संग्रह करवाने की मांग तक कर दी।
जिस तरह जाइसा दल भड़काऊ बयानबाजी कर रहे थे और जैसी कि आशंका थी, बहुत जल्दी असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, केरल आदि में हिंसा भड़क उठी। ध्यान रहे ये हिंसा मुस्लिम बहुल इलाकों में ज्यादा हुई। आश्चर्य नहीं, हिंसा का सबसे ज्यादा नंगा नाच पश्चिम बंगाल में हुआ और वहां दंगाइयों ने सार्वजनिक संपत्ति का सबसे ज्यादा नुकसान किया। वहां करीब 50 ट्रेन रद्द की गईं, पांच ट्रेनों और लागोला और कृष्णपुर रेलवे स्टेशनों में आग लगाई गई, कहां-कहां रेलवे ट्रैक उखाड़े गए, उसकी तो कोई गिनती ही नहीं है। मुर्शिदाबाद, बीरभूम, पूर्व बर्दवान, हावड़ा, साउथ 24 परगना, नॉर्थ 24 परगना, नादिया आदि जिलों में रेल संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचा। वहां से आए वीडियो बताते हैं कि जब दंगाई सार्वजनिक संपत्ति को जला रहे थे तो पुलिस मूक दर्शक बनी हुई थी। दंगाइयों ने सिर्फ रेल संपत्ति को ही नुकसान नहीं पहुंचाया उन्होंने सार्वजनिक बसों को भी भारी नुकसान पहुंचाया और सड़क यातायात ठप कर दिया।
असम सरकार ने दंगाइयों से सख्ती से निपटा और हजारों दंगाइयों को हिरासत में भी लिया, लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार ने इतनी व्यापक हिंसा के बावजूद मुश्किल से कुछ सौ लोगों को ही हिरासत में लिया। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की अगुवाई में हिंसा का जो तांडव हुआ और जिस तरह से सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान हुआ, क्या कोई उसके लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराएगा? क्या कोई इस नुकसान का हर्जाना उनसे वसूलेगा?
असम के वित्त मंत्री हिमंत बिस्व सरमा राज्य में हुई व्यापक हिंसा के लिए केरल आधारित कट्टरवादी इस्लामिक संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) और कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हैं। ध्यान रहे खुफिया एजेंसियां पीएफआई को प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) का ही नया अवतार मानते हैं। सरमा कहते हैं कि पीएफआई, इसके जैसी एक अन्य संस्था कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया और यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सीएए के विरोध के नाम पर राजधानी दिसपुर स्थित सचिवालय पर हमला किया। राज्य सरकार ने इस सिलसिले में पीएफआई के राज्य अध्यक्ष अमीनुल हक, प्रचार प्रभारी मोहम्मद मुज्मल हक को हिंसा फैलाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया है। राज्य पुलिस यूथ कांग्रेस अध्यक्ष कमरूल इस्लाम चौधरी की तलाश में जोर-शोर से लगी है जिस पर सचिवालय को आग के हवाले करने का षड्यंत्र रचने का आरोप है। यही नहीं एनएसयूआई उपाध्यक्ष जुबैर आलम की तलाश भी जारी है जिस पर श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र में आगजनी और लूटमार का आरोप है। पुलिस ने पीएफआई के गुवाहाटी स्थित कार्यालय पर छापा मार कर अनेक लैपटॉप, मोबाइल फोन जब्त किए हैं और अकाट्य सबूत हासिल किए हैं।
दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय और जिन अन्य स्थानों पर हिंसक प्रदर्शन हुए उनमें बार-बार आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, पीएफआई और बंगाली मुस्लिम घुसपैठियों का नाम आ रहा है। जामिया में हिंसा के ठीक पहले आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान ने करीबी बस्ती शाहीन बाग में बेहद भड़काऊ भाषण दिया था। एक न्यूज चैनल ने अमानतुल्लाह के करीबी मिनतुल्लाह खान को ये कहते हुए कैमरे में कैद किया कि ‘ये हिंसा तो होनी ही थी’। हिंसा के बाद पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया उनमें से कोई भी जामिया का छात्र नहीं था। दावा किया जा रहा है कि इनमें से अनेक का क्रिमिनल रिकॉर्ड भी है। वैसे एक भी छात्र/ छात्रा को गिरफ्तार न किया जाना आश्चर्यजनक है। जामिया मामले की गहराई से जांच जरूरी है क्योंकि जाइसा मीडिया यहां छात्रों की पिटाई के नाम पर अन्य विश्वविद्यालयों के छात्रों को भड़काने और ‘बेचारे छात्रों’ के नाम पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार को बदनाम करने और सहानुभूति बटोरने की भरपूर कोशिश कर रहा है। जाइसा मीडिया केरल की रहने वाली जामिया की दो छात्राओं लदीदा सखलून और आयेशा रेन्ना को तथाकथित ‘सीएए विरोधी आंदोलन’ की पोस्टर गल्र्स के तौर पर पेश कर रहा है।
इन दोनों लड़कियों की हकीकत जानना जरूरी है। ये दोनों कट्टवादी चरमपंथी मुसलमान हैं। लदीदा की फेसबुक वॉल पर देखिए क्या लिखा है – ”कल हुए प्रदर्शन के दौरान कुछ लिबरल हमें डिक्टेट करने की कोशिश कर रहे थे कि ‘इंशा अल्लाह’ और ‘अल्लाहू अकबर’ के नारे न लगाएं। हमने खुद को सिर्फ अल्लाह को समर्पित किया हुआ है। हमने तुम्हारे धर्मनिरपेक्षता के स्लोगन तो बहुत पहले छोड़ दिए। अब ये नारे जोर-जोर से लगेंगे और बार बार लगेंगे, हम जहां भी रहें हमारी पहचान मैल्कम एक्स, अली मुस्लियार, वारियमकुन्नाथ की संतानों की तरह ही रहेगी। ये नारे हमारी आत्मा हैं और सियासत की प्रेरणा हमें अपने इन्ही पूर्वजों से मिलती है।’’
ये मोहतरमा जिन लोगों की संतान होने का दावा कर रही हैं वो असल में केरल में खिलाफत आंदोलन के नेता थे जिन्होंने 1921 में मोपला, मालाबार में हिंदुओं का जघन्य नरसंहार किया था। इस नरसंहार में 20,000 से अधिक हिंदुओं को गाजर-मूली की तरह काट डाला गया था। इस दौरान हजारों हिंदू महिलाओं से बलात्कार हुए थे, 50,000 से अधिक हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया था और एक लाख से अधिक हिंदुओं को घर-बार छोड़ कर भागना पड़ा था। आश्चर्य नहीं लदीदा पीएफआई की समर्थक है जिसने भारत से सबसे अधिक लोग आईएसआईएस में भेजे हैं। ये कश्मीर की ‘आजादी’ की कट्टर समर्थक है और भोपाल में सिमी आतंकियों के एनकाउंटर को फर्जी बताती है। इसका मानना है कि हिजाबी औरतों की पत्थरबाजी बिल्कुल जायज है। इसकी फेसबुक वॉल पर ए.के. – 47 पकड़े हिजाबी औरतों की तस्वीरें हैं। यही नहीं इसकी अनेक स्वनामधन्य जाइसा पत्रकारों के साथ भी तस्वीरें हैं। लदीदा का उदाहरण ये समझाने के लिए काफी है कि जामिया कैसे कट्टरवादी, देश और हिंदू विरोधी मुसलमानों का अड्डा बना हुआ है और यहां कैसे लोगों को शरण और संरक्षण दिया जाता होगा।
मोदी सरकार उदारवादी चेहरा दिखाने के लिए भले ही जामिया के कट्टर वहाबी छात्रों को छूट दे रही हो, लेकिन इन्हें अनदेखा करना सरकार को लंबे अर्से में महंगा पड़ेगा। इनके और वामपंथी-नक्सली संगठनों के रिश्ते कितने गहरे हैं, उसे इस बात से समझा जा सकता है कि जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हिंसा के चंद घंटों के भीतर ही इनके समर्थक वकील इन्हें गिरफ्तारी से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए थे। इनके लिए पेश होने वाले वकीलों के नाम देखिए- प्रशांत भूषण, संजय हेगड़े, इंदिरा जयसिंह, कोलिन गोंसालविस। इन वकीलों के कांग्रेस से लेकर नक्सली संगठनों तक किस-किस से संबंध हैं, ये कोई ढकी-छुपी बात नहीं है। अतीत में इन्होंने जज लोया से लेकर राफेल मामले तक कैसे मोदी सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मुकदमे दायर किए हैं या ये कहें कि उसका इस्तेमाल किया है, ये भी सर्वविदित है। अब देखिए इनके वकील दिल्ली हाई कोर्ट में इन्हें कैसा मासूम बता रहे हैं और जामिया में जो आतंक इन्होंने फैलाया उसके लिए कैसे पुलिस को दोषी ठहरा रहे हैं। संजय हेगड़े कहता है कि ये कोर्ट को तय करना है कि जामिया के प्रांगण में बल प्रयोग उचित था, क्या पुलिस को प्रांगण में बल प्रयोग की अनुमति है? इंदिरा जयसिंह कहती है, ”हम ऐसे छात्र समुदाय को पुलिस की ज्यादतियों से खुद को बचाने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं जो सदमे में हो।’’ आपको याद दिला दें कि ये वकील जब सुप्रीम कोर्ट गए थे तो वहां जजों ने इनकी बात सुनने और उपद्रवी छात्रों को क्लीनचिट देने से इनकार कर दिया था। अदालत ने इनसे पूछा था कि जब हिंसा नहीं हुई तो बसें और मोटरसाइकिलें कैसे जलीं? सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें हिंसा रूकवाने और संबंधित हाई कोर्ट जाने का निर्देश दिया था।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का उल्लेख आया है तो ये भी बताते चलें कि मुस्लिम आतताइयों ने उत्तर प्रदेश में क्या कहर ढाया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कट्टरवादी इस्लामिक छात्रों ने संसद में सीएए पारित होते ही उत्पात शुरू कर दिया था जिसपर प्रशासन ने परिसर को खाली भी करवाया था। राज्य में 19 दिसंबर को संभल और लखनऊ में व्यापक हिंसा हुई जिसमें कई वाहन भी जलाए गए। पुलिस ने इस सिलसिले में समाजवादी पार्टी के नेता शफीकुर रहमान और फिरोज खान समेत 17 ज्ञात और 250 अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज किए।
बीस दिसंबर को जाइसा पार्टियों ने जुम्मे की नमाज का भरपूर राजनीतिकरण किया। भीम आर्मी को प्रमुख अनुमति न मिलने के बावजूद दिल्ली की जामा मस्जिद पहुंच गये। जैसा कि हमने पहले बताया सोनिया गांधी ने भी जुम्मे को संदेश जारी कर मुसलमानों को भड़काया। उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल इलाकों में जुम्मे की नमाज के बाद जमकर बवाल काटा गया। पुलिस का कहना है कि उसने कहीं गोली नहीं चलाई, लेकिन खबरें आईं कि इस बवाल में 11 लोग मारे गए और छह पुलिस वालों को भी गोली लगी। लखनऊ, कानपुर, गोरखपुर, मेरठ और संभल में सबसे ज्यादा हिंसा हुई, लेकिन आगरा, भदोही, बहराइच, अमरोहा, फर्रूखाबाद, गाजियाबाद, बुलंदशहर, प्रयागराज, वाराणसी, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, हापुड़, हाथरस, हमीरपुर, महोबा आदि में भी हिंसक प्रदर्शन हुए। उत्तर प्रदेश में 21 दिसंबर को फिर व्यापक हिंसा हुई। इस दिन एक संवाददाता सम्मेलन में राज्य के इंस्पेक्टर जनरल (कानून व्यवस्था) प्रवीण कुमार ने बताया कि 10 दिसंबर से जारी सीएए प्रदर्शनों में 15 लोगों की मौत हुई, 705 को गिरफ्तार किया गया, 4,500 को एहतियातन हिरासत में लेने के बाद छोड़ दिया गया। इस दौरान 263 पुलिस वाले घायल हुए जिनमें से 57 को गोली लगी। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने सख्त कदम उठाते हुए दंगाइयों की निशानदेही कर उनकी संपत्ति जब्त करने का काम शुरू कर दिया है। क्या दिल्ली पुलिस आप विधायक अमानतुल्लाह खान और उसके दंगाइयों की संपत्ति कुर्क करेगी?
देश भर में मुसलमानों के प्रदर्शन के दौरान एक चीज कॉमन थी- पुलिस पर हमला। भारत के हर कोने में थाने, पुलिस चौकियां और वाहन जलाए गए, पुलिस वालों पर पत्थर फेंके गए, उन्हें बुरी तरह पीट-पीट कर जख्मी ही नहीं किया गया, उन पर गोलियां भी चलाईं गईं। ये काम दूर-दराज के इलाकों में ही नहीं हुआ देश की राजधानी दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में भी हुआ। पुलिस वालों पर हमले के सोशल मीडिया पर दसियों वीडियो मौजूद हैं। कुल मिलाकर निष्कर्ष ये है कि हमलावार पूरी तरह तैयार थे और बेखौफ थे क्योंकि उन्हें राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ था। क्या केंद्र और संबंधित राज्य सरकारें पुलिस पर हमला करने वालों की निशानदेही कर उन्हें दंड देंगी या उन्हें सिर्फ गरीब की जोरू की तरह इस्तेमाल करती रहेंगी?
पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक जहां-जहां भाजपा सरकारें हैं और मुस्लिम आबादी के गढ़ हैं, वहां-वहां सीएए के खिलाफ प्रदर्शन हुए। इनका समर्थन जाइसा दलों ने जमीनी स्तर पर ही नहीं, सोशल मीडिया में भी पूरे जोशो खरोश से किया। वैसे ‘समर्थन’ शब्द छोटा है, यदि कहें कि इन्होंने मुसलमानों और छात्रों में हिंसा भड़काई और हिंसा का महिमामंडन किया तो ज्यादा ठीक होगा। आश्चर्य तो ये है कि साइबर वल्र्ड पर निगाह रखने का दावा करने वाली पुलिस और खुफिया एजेंसियां किसी भी दोषी को सबक सिखाना तो दूर, उन्हें चिन्हित कर चेतावनी भी नहीं दे पाईं।
सीएए के खिलाफ जाइसा दलों और मुसलमानों की हिंसा तो सिर्फ एक शुरूआत है। अभी तो केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर एनआरसी लागू नहीं किया, लेकिन सीएए हिंसा के दौरान जाइसा दलों ने जैसे इस पर भी भ्रम फैलाया और भड़काऊ पर्चे बांटे, वो संकेत है कि भविष्य में जब सरकार एनआरसी लागू करने की कोशिश करेगी तो क्या हाल होगा। केंद्र सरकार कह रही है कि वो किसी भी कीमत पर सीएए और एनआरसी के मुद्दे से पीछे नहीं हटेगी और इस विषय में लोगों को जागरूक करने के लिए व्यापक अभियान चलाएगी। लेकिन ध्यान देने की बात ये है कि सोते को जगाना आसान है, लेकिन जो जगना ही नहीं चाहता, या जिसने ठान ही लिया है कि वो सोता ही रहेगा, उसे कैसे जगाया जाए? जाइसा दलों ने ये लड़ाई हिंदू बनाम मुसलमान की बना दी है और इसमें बड़ी तादाद में कट्टरपंथी मुसलमानों की सहमति है। भारत से लेकर पाकिस्तान, मलेशिया, इंग्लैंड और अमेरिका तक ‘उदारवाद’ और ‘लोकतंत्र’ के नाम पर मोदी सरकार को घेरने की तैयारी पूरी हो चुकी है। खुफिया एजेंसियां सीएए हिंसा में आतंकी संगठनों की घुसपैठ की चेतावनी दे चुकी हैं। राज्यों को छोडि़ए, राजधानी दिल्ली में हथियारों के जखीरे मिल रहे हैं। ऐसे में मोदी सरकार को राजनीतिक ही नहीं, कूटनीतिक और कानून-व्यवस्था के स्तर पर भी आवश्यकता से अधिक सतर्क रहना होगा।
अंत में कुछ शब्द एनआरसी के बारे में। एनआरसी का निर्माण एनपीआर (नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर) के बिना संभव नहीं है। एनपीआर का निर्माण नागरिकता कानून, 1955 में वर्ष 2004 में जोड़ी गई धारा 14 ए के तहत होता है। इसके तहत केंद्र सरकार एनआरसी भी बना सकती है। एनपीआर असल में ‘देश के सामान्य निवासियों’ की सूची है। ‘सामान्य निवासी’ से अर्थ है कोई भी ऐसा व्यक्ति जो किसी भी स्थान पर छह माह या उससे अधिक समय से रह रहा हो। एनपीआर कोई नागरिकता का सबूत नहीं है क्योंकि इसमें विदेशी भी शामिल होते हैं। एनपीआर में से सरकार ‘भारतीय नागरिकों का रजिस्टर’ बनाने का इरादा रखती है। इसका निर्माण स्थानीय, जिला और राज्य स्तर पर लोगों की नागरिकता की स्थिति को परखने के बाद किया जाएगा। ध्यान रहे एनपीआर बनाने की प्रक्रिया अप्रैल-सितंबर, 2020 के बीच करवाए जाने का प्रस्ताव है जबकि जनगणना का काम एक मार्च 2021 से आरंभ होगा जिसे जनगणना अधिनियम, 1948 की धारा 3 के तहत करवाया जाएगा। जाइसा पार्टियां सीएए और एनआरसी को जोड़ कर भ्रम पैदा कर रहीं हैं जबकि दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं है। सीएए अफगानिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के प्रताडि़त और पीडि़त अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने के संबंध में है जबकि एनआरसी भारतीय नागरिकों का रजिस्टर बनाने के बारे में है। यहां ये याद रखना चाहिए कि एनआरसी बनाने की प्रक्रिया तक अभी शुरू नहीं हुई है, इसके अभी नीति-नियम तक नहीं बने हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि एनआरसी के नीति-नियम बनाते समय सभी संबंधित पक्षों से बात की जाएगी।
ध्यान रहे असम में बहुचर्चित और बहुविवादित एनआरसी का निर्माण राजीव गांधी और असम के छात्र संगठनों के मध्य हुए समझौते और उसे लागू करवाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुआ। यही नहीं एनपीआर और एनआरसी से जुड़ा प्रावधान भी वर्ष 2004 में कांग्रेस ने किया। आश्चर्य है कि आज इस्लामिक सांप्रदायिक राजनीति के कारण कांग्रेस इसका विरोध कर रही है। इससे भी ज्यादा अचरज की बात तो ये है कि जिस सीएए पर कांग्रेस और अन्य जाइसा दल हिंसा फैला रहे हैं उसकी मांग भी महात्मा गांधी, मनमोहन सिंह और तरूण गोगोई जैसे कांग्रेसी नेता पहले कर चुके हैं। सीएए पर सबसे अधिक हिंसक प्रदर्शन करने वाली ममता बैनर्जी खुद संसद में इसकी मांग कर चुकी हैं।
बहरहाल जाइसा दलों ने इन मुद्दों को मुसलमानों को डराने और भड़काने का माध्यम बना लिया है जबकि देश के मुसलमानों समेत सभी वास्तविक नागरिकों को इनसे कोई खतरा नहीं है। इनसे घुसपैठियों को अवश्य खतरा है जिन्हें जाइसा दल अपना वोट बैंक मानते हैं और जिन्हें किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते।
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अगर ये नौ दस्तावेज हैं आपके पास, तो आप हैं भारत के नागरिक
इस समय देश में नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर चर्चा का माहौल गर्म है। लेकिन आमतौर पर किसी को घबराने की जरूरत नहीं है। कई ऐसे दस्तावेज हैं, जो या तो आपके पास होंगे या आसानी से मिल सकते हैं, जो आपकी इस देश में नागरिकता को पुख्ता करते हैं।
सरकार द्वारा सिटीजनशिप एमेंडमेंट एक्ट बनने के बाद अब देशभर मेंं नागरिकता को लेकर चर्चा का माहौल गर्म है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह समेत सरकार के सभी मंत्रियों ने नागरिकता कानून और एनआरसी से नहीं घबराने की सलाह दी है। आज हम आपको बता रहे हैं कि अगर आपके पास ये नौ आसान दस्तावेज होंगे तो यकीनन आप भारत के नागरिक हैं और आपका नाम एनआरसी यानि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में होगा।
इस समय नागरिकता का सवाल पूरे देश में उठाया जा रहा है कि कल को अगर नागरिकता का सबूत देना पड़े तो कैसे देंगे। वास्तव में ये दस्तावेज आसान दस्तावेज हैं, लिहाजा जो भी भारत में पैदा हुआ है और यहां रह रहा है, उसके पास इनमें से कोई ना कोई दस्तावेज भी जरूर होगा।
संविधान में विभिन्न अनुच्छेदों के जरिए नागरिकता को पारिभाषित किया गया है। इन अनुच्छेदों में वक्त-वक्त पर संशोधन भी हुए हैं। संविधान का अनुच्छेद 5 से लेकर 11 तक नागरिकता को पारिभाषित करता है। इसमें अनुच्छेद 5 से लेकर 10 तक नागरिकता की पात्रता के बारे में बताता है, वहीं अनुच्छेद 11 में नागरिकता के मसले पर संसद को कानून बनाने का अधिकार देता है।
नागरिकता को लेकर 1955 में सिटीजनशिप एक्ट पास हुआ। एक्ट में अब तक चार बार 1986, 2003, 2005 और 2015 में संशोधन हो चुके हैं।
संविधान में भारतीय नागरिकता को लेकर स्पष्ट दिशा निर्देश हैं
इसके अनुसार अगर ये दस्तावेज आपके पास होंगे तो आप इस सूची में शामिल हो सकते हैं।
1) जमीन के दस्तावेज जैसे- बैनामा, भूमि के मालिकाना हक का दस्तावेज।
2) राज्य के बाहर से जारी किया गया स्थायी निवास प्रमाणपत्र।
3) भारत सरकार की ओर से जारी पासपोर्ट।
4) किसी भी सरकारी प्राधिकरण द्वारा जारी लाइसेंस/प्रमाणपत्र।
5) सरकार या सरकारी उपक्रम के तहत सेवा या नियुक्ति को प्रमाणित करने वाला दस्तावेज।
6) बैंक/डाक घर में खाता।
7) सक्षम प्राधिकार की ओर से जारी किया गया जन्म प्रमाणपत्र।
8) बोर्ड/विश्वविद्यालयों द्वारा जारी शिक्षण प्रमाणपत्र।
9) न्यायिक या राजस्व अदालत की सुनवाई से जुड़ा दस्तावेज।
कौन भारतीय नागरिक है और कौन नहीं?
संविधान में भारतीय नागरिक को स्पष्ट तौर पर पारिभाषित किया गया है। संविधान का अनुच्छेद 5 कहता है कि अगर कोई व्यक्ति भारत में जन्म लेता है और उसके मां-बाप दोनों या दोनों में से कोई एक भारत में जन्मा हो तो वो भारत का नागरिक होगा। भारत में संविधान लागू होने के 5 साल पहले यानी 1945 के पहले से रह रहा हर व्यक्ति भारत का नागरिक माना जाएगा।
नागरिकता संशोधन कानून बनने के बाद ये चर्चा काफी ज्यादा है कि अब देशभर में एनआरसी लागू होगा। हालांकि भारत में पैदा हुए या लंबे समय से रह रहे लोगों के लिए इसमें घबराने की कोई बात नहीं है।
अगर कोई भारत में नहीं भी जन्मा हो, लेकिन वो यहां रह रहा हो और उसके मां-बाप में से कोई एक भारत में पैदा हुए हो तो वो भारत का नागरिक माना जाएगा। अगर कोई व्यक्ति यहां पांच साल तक रह चुका हो तो वो भारत की नागरिकता के लिए अप्लाई कर सकता है।
संविधान का अनुच्छेद 6
संविधान का अनुच्छेद 6 पाकिस्तान से भारत आए लोगों की नागरिकता को पारिभाषित करता है। इसके मुताबिक 19 जुलाई 1949 से पहले पाकिस्तान से भारत आए लोग भारत के नागरिक माने जाएंगे। इस तारीख के बाद पाकिस्तान से भारत आए लोगों को नागरिकता हासिल करने के लिए रजिस्ट्रेशन करवाना होगा। दोनों परिस्थितियों में व्यक्ति के मां-बाप या दादा-दादी का भारतीय नागरिक होना जरूरी है।
संविधान का अनुच्छेद 7
संविधान का अनुच्छेद 7 पाकिस्तान जाकर वापस लौटने वाले लोगों के लिए है। इसके मुताबिक 1 मार्च 1947 के बाद अगर कोई व्यक्ति पाकिस्तान चला गया, लेकिन रिसेटेलमेंट परमिट के साथ तुरंत वापस लौट गया हो वो भी भारत की नागरिकता हासिल करने का पात्र है। ऐसे लोगों को 6 महीने तक यहां रहकर नागरिकता के लिए रजिस्ट्रेशन करवाना होगा। ऐसे लोगों पर 19 जुलाई 1949 के बाद आए लोगों के लिए बने नियम लागू होंगे।
एनआरसी में वो सभी लोग पात्र हैं जो या तो भारत में पैदा हुए, या 1949 के बाद भारत आए या फिर वो लोग, जिन्होंने देश की नागरिकता हासिल कर ली हो।
संविधान का अनुच्छेद 8
संविधान का अनुच्छेद 8 विदेशों में रह रहे भारतीयों की नागरिकता को लेकर है। इसके मुताबिक विदेश में पैदा हुए बच्चे को भी भारतीय नागरिक माना जाएगा अगर उसके मां-बाप या दादा-दादी में से से कोई एक भारतीय नागरिक हो। ऐसे बच्चे को नागरिकता हासिल करने के लिए भारतीय दूतावास से संपर्क कर पंजीकरण करवाना होगा।
संविधान का अनुच्छेद 9
संविधान का अनुच्छेद 9 भारत की एकल नागरिकता को लेकर है। इसके मुताबिक अगर कोई भारतीय नागरिक किसी और देश की नागरिकता ले लेता है तो उसकी भारतीय नागरिकता अपने आप खत्म हो जाएगी।
संविधान का अनुच्छेद 10
संविधान का अनुच्छेद 10 नागरिकता को लेकर संसद को अधिकार देता है। इसके मुताबिक अनुच्छेद 5 से लेकर 9 तक के नियमों का पालन करने वाले भारतीय नागरिक होंगे। इसके अलावा केंद्र सरकार के पास नागरिकता को लेकर नियम बनाने का अधिकार होगा। सरकार नागरिकता को लेकर जो नियम बनाएगी उसके आधार पर किसी को नागरिकता दी जा सकेगी।
संविधान का अनुच्छेद 11
संविधान का अनुच्छेद 11 संसद को नागरिकता पर कानून बनाने का अधिकार देता है। इस अनुच्छेद के मुताबिक किसी को नागरिकता देना या उसकी नागरिकता खत्म करने संबंधी कानून बनाने का अधिकार भारत की संसद के पास है।
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भरतपुर लुट गयौ रात मोरी अम्मा
नागरिकता संशोधन विधेयक जिसे अंग्रेज़ी में सिटिजऩ एमेंडमेंट बिल यानी सीएबी (कैब) कहा जाता है, लोकसभा और राज्यसभा में पारित हो गया। दोनों जगह देखने में आया कि सदनों में उपस्थित इस्लामी वर्ग, मातृभूमि के विभाजन के साथ ही इस्लामी वर्ग के वोटों के लिये लार टपकाता आ रहा राजनैतिक नेतृत्व इस बिल के खिलाफ हाय हाय करने पर तुला है। इसकी छान फटक करनी चाहिये कि इस पर इस्लामी नेतृत्व क्यों बिदक रहा है?
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की हाय हाय तो समझ में आती है कि पाकिस्तान के अपने अल्पसंख्यकों के साथ किये अत्याचार, पाप सामने आ जाएंगे मगर बदरुद्दीन अजमल, जावेद अली, सोनिया माइनो एंटोनियो गांधी, ग़ुलाम नबी आज़ाद, चिदम्बरम आदि क्यों उलझ उठे? आंखिर इस बिल में देश के मुसलमानों के खिलाफ तो क्या, वर्तमान भारत के नागरिकों को ले कर ही कुछ है नहीं, फिर ओवैसी की ओ-ऐसी क्यों हो रही है? उसने संसद में सीएबी की प्रति क्यों फाड़ी? देवबन्द, सहारनपुर के मदरसों के लौंडे-लफाड़े सड़कों पर क्यों उतर आये?
इस प्रश्न का उत्तर, इसकी जड़ें 1947 के भारत विभाजन में है। ध्यान रखने योग्य बात है कि हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई, यहूदी समाज के लोगों ने विभाजन नहीं मांगा था। इस्लाम ने पूज्य मातृभूमि के टुकड़े किये। बंगाल के गांवों में हरिनाम संकीर्तन करते हुए, ध्यान करते हिंदू-बौद्ध किसान, गृहणियां, कर्मचारी, दुकानदार, सिंध के गांवों में खेती, व्यापार करते हुए हिंदू-बौद्ध-सिख तो 14 अगस्त 1947 को जानते ही नहीं थे कि गांधी-नेहरू की कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अंग्रेज़ों ने उन्हें किस गहरी घाटी में धकेल दिया है। उनके भविष्य पर कैसी भयानक स्याही पोत दी है। उन्हें तो तब पता चला जब मुल्ला इस्लामियों की भीड़ें ले कर उनके पास पहुंचे और उन्हें मुसलमान बनने को कहा।
उनके मुसलमान न बनने पर उनको भयानक यातनाएं दीं, उनके हाथ-पैर तोड़े, उनकी बहन-बेटियों के साथ बलात्कार किया। हिंदू-बौद्ध-सिख सृष्टि के उषा काल से ही जिस धरती पर रह रहे थे, 14 अगस्त 1947 से उन से शत्रुता रखने वाली धरती बना दी गयी। असहाय, निरुपाय हिंदू-बौद्ध-सिख समाज के लोगों के पास तीन ही रास्ते थे। मर जाएं या हर प्रकार की यातनाएं सह कर पाकिस्तान, बांग्लादेश में रहें या सदियों से उनके पूर्वजों से शत्रुता रखते आये, उनके मंदिर तोड़ते आये, उनकी माता-बहनों के साथ बलात्कार करते आये, उनकी स्त्रियों को लौंडी बना कर बेचते आये इस्लाम को स्वीकार करें अथवा कल तक उसका भारत रहे मगर अब नोच-तोड़ कर वर्तमान बचे भारत में शरण लें।
यह भारत का दायित्व भी था मगर वस्तुस्थिति क्या थी, इस पर चर्चा करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि विभाजन के समय देश से छीने गए भागों की डैमोग्राफ़ी क्या थी? पश्चिमी पाकिस्तान में 12.9 प्रतिशत हिंदू, बौद्ध थे जो अब 1.6 प्रतिशत बचे हैं। तब पूर्वी पाकिस्तान में 22.5 प्रतिशत थे जो बांग्लादेश बन चुका है और अब वहां 8.5 प्रतिशत हिंदू, बौद्ध बचे हैं। इन पर 1947 से ही भयानक अत्याचार होते रहे हैं। इन पर मुसलमान बनने के लिये दबाव डाला जाता रहा है। हिंदू, बौद्ध अपनी दुकानें, धरती छोड़ कर, लुट-पिट कर भी चोरी-छिपे भारत आते रहे हैं। विपन्न बन कर भारत आये हिंदुओं के साथ क्या होता रहा है, यह भी जानना चाहिये।
पश्चिमी बंगाल के सुंदर वन डेल्टा में मारीच झपी द्वीप है। 1979 में उस पर 40,000 बांग्लादेशी शरणार्थी एकत्र हो गये। इस विषय की विस्तृत चर्चा दीप हलदर की पुस्तक ‘ब्लड आइसलैंड’ में है। वामपंथी सरकार द्वारा वहां 26 जनवरी को धारा 144 की घोषणा की गयी। जिस धरती पर लुट-पिट कर असहाय, निरुपाय हिंदू, बौद्ध आये हैं वहां कैसे वापस जाते? 31 जनवरी को वामपंथी कैडर के साथ पश्चिम बंगाल की पुलिस ने उन पर आक्रमण किया। सैकड़ों लोगों की हत्यायें हुईं। उनकी लाशें समुद्र में बहा दी गयीं। वह भारत जिसकी परम्परा शीश दे कर भी शरण आये व्यक्ति की हर प्रकार से रक्षा करने की रही है, वहां अपने ही भाइयों के साथ यह व्यवहार हुआ है और इसका कारण इस्लामी वोटों का दबाव ही है।
विचारणीय है कि भारत का विभाजन इस्लाम ने किस कारण किया? जिन क्षेत्रों में पाकिस्तान बना वो सब तो पहले से ही इस्लामी वर्चस्व के क्षेत्र थे तो फिर पाकिस्तान बनने से किस समस्या का समाधान होना था? जिन क्षेत्रों को पाकिस्तान बनना था, वहां के ही नहीं बल्कि वहां से बाहर के क्षेत्रों में इस्लामियों में पाकिस्तान के पक्ष में ज़बरदस्त हिलोर थी। देश के विभाजन से पहले सम्पूर्ण भारत के मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम लीग को बढ़त मिली तो क्यों? इस प्रश्न के उत्तर के लिये व्यंकट धूलिपाला की पुस्तक ‘मेकिंग ऑफ अ न्यू मदीना’ पढऩी चाहिये। मुहम्मद जी को मक्का से भागना पड़ा था और मक्का से मुहम्मद जी ने मदीना में शरण ली। वहां की सत्ता हस्तगत की और मदीना से फिर मक्का पर विजय प्राप्त की। मक्का के मंदिर की 360 मूर्तियां नष्ट कीं और उसे अपने प्रचार का केंद्र बनाया।
यही सोच पाकिस्तान बनाने की पीछे थी और इस्लामियों ने भारत के टुकड़े कर भारत के दोनों छोर पर मदीना स्थापित किया। जहां से हर प्रकार का वैचारिक, सैनिक, जनसंख्यात्मक आक्रमण करने का आधार बनाया गया। उसमें सफलता भी मिली और अगले चरण में कश्मीर घाटी को हिन्दुविहीन कर दिया गया। भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान के पूर्वी-पश्चिमी दोनों हिस्सों में रह गए हिंदू तो आसान शिकार थे ही और उनको हर प्रकार से डरा-धमका कर, मार-पीट कर, लड़कियां उठा कर इस्लामी बनाया गया। भारत के असम, बंगाल, बिहार, पंजाब, गुजरात, तमिलनाडु, कर्णाटक आदि क्षेत्रों में जनसंख्यात्मक आक्रमण चल ही रहा है।
अचानक मोदी, शाह के नेतृत्व में भाजपा ने बड़े पैमाने पर जनसंख्यात्मक आक्रमण में बदलाव कर दिया। एक अनुमान के अनुसार भारत में 2 करोड़ के आसपास पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आये, छुप कर रह रहे विस्थापित हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, ईसाई, पारसी हैं। उनको भारत की नागरिकता मिलने का अर्थ है भाजपा के पक्ष में 2 करोड़ वोट बढ़ जाना। इस्लाम सदैव से दीन और दौला को संयुक्त मानता है। दीन अर्थात मज़हब और दौला अर्थात राजनीति। मोदी, शाह के नेतृत्व में भाजपा ने बहुत स्मार्ट चल चल कर दौला की खाट खड़ी कर दी। 2024 के चुनाव में 2 करोड़ पक्के वोट भाजपा ने बढ़ा लिये।
इस चिंतन के मकौड़े की पहली टांग तीन तलाक़ बिल से तोड़ी गयी। दूसरी टांग धारा 370, 35 ए हटा कर तोड़ी गयी, अब तीसरी टांग नागरिकता संशोधन विधेयक ला कर तोड़ दी गयी। गज़़वा-ए-हिन्द का सपना देखने वाली आंखें इसी लिये बिलख रही हैं। इसी कारण इस्लामी दौला और देश विभाजन से उसका साथ देते आये कांग्रेसी बिलबिला रहे हैं।
चलिये मिल कर ज़ोर-ज़ोर से कोरस गाते हैं ‘भरतपुर लुट गयौ रात मोरी अम्मा’।
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स्लम बस्तियों के जीर्णोद्धार हमारे पापों का प्रायश्चित
देश के पचासों शहरों में कलंक जैसी झुग्गी झोपड़ी बस्ती या स्लम अब आम बात हैं। नारकीय जीवन का पर्याय इन बस्तियों में देश की 30 से 40 करोड़ से अधिक आबादी रहती है। आजादी के बाद से ही देश के ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों, बांधों व बिल्डर व इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के नाम पर भूमि अधिग्रहण कर करोड़ों लोगों की जमीनें औने पौने दामों में छीन ली गईं और उनको दर दर भटकने के लिए छोड़ दिया गया। यही लोग भूमिहीन मजदूर, रेहड़ी पटरी वाले दुकानदार व उद्योग व व्यापार केंद्रों में मजदूर व नौकर बन चतुर्थ श्रेणी की जिंदगी जीने के लिए धकेल दिए गए। हर शहर के विकास के लिए गठित तथाकथित विकास प्राधिकरणों की विभिन्न आवासीय योजनाओं में इस निर्बल वर्ग के लिए आबंटित मकानों पर भी उच्च वर्ग, सरकारी कर्मियों व नेताओं ने कब्जे व आबंटन ले लिए और यह वर्ग आज भी अच्छे घर, बिजली, पानी, सड़क, शौचालय, विद्यालय, पार्क, अस्पताल जैसी बुनियादी आवश्यकताओं से भी वंचित है। आजादी से अब तक केंद्र व राज्य सरकारों के बजट का बड़ा हिस्सा इसी वर्ग के नाम आबंटित होता है और फिर उसमें बड़ी बंदरबांट व घोटाले भी। देश मे अधिकांश अपराधों की जड़ यही स्लम बस्तियां हैं। अंतत: दिल्ली चुनाव के नाम पर ही सही भारत सरकार को इन लोगों की सुध आयी है। अब इन स्लम बस्तियों को रेगुलेट यानि लीगल किया जा रहा है व इनमें रहने वालों के नाम जगह की रजिस्ट्री की जा रही है। इसके साथ ही इन स्लम बस्तियों को पक्की बहुमंजिला हाउसिंग सोसायटी में बदलने की महत्वाकांक्षी योजना भी केंद्र सरकार ने पेश की है। मौलिक भारत पिछले कई वर्षों से यह मांग करता आया है। यह एक शानदार पहल हो सकती है अगर काम ईमानदारी से हो। मगर उससे पहले झुग्गी माफिया के स्थायी इलाज की जरूरत है क्योंकि कुछ लोगों ने पूरी पूरी बस्ती पर कब्जे किये हुए हैं। मूल आबंटी जगह बेचकर निकल जाते हैं व फिर से आबंटन के लिए आवेदन लगा देते हैं। यह भी प्रावधान हो कि नई बनने वाली कालोनी के साथ पार्क, स्कूल, अस्पताल व बाज़ार आदि भी हो। इससे भी ज्यादा जरूरी यह कि यह योजना देश के हर जिले में समान मापदंडों के साथ लागू की जाए। यह भी याद रखने की बात है कि हाशिए पर जीवन जी रहे इन लोगों का यह हश्र हम सबने मिलकर किया है। इनको जानवर जैसा बनाकर छोड़ दिया हमने। अगर हम मिलकर इनके लिए कुछ कर सके तो यही सच्ची सेवा व प्रायश्चित होगा।
-संपादक
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क्या है नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019?
नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 को 9 दिसम्बर 2019 को लोकसभा ने पास कर दिया है। इस बिल का उद्येश्य पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आये 6 समुदायों (हिन्दू, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध तथा पारसी) के शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देना है। इन 6 समुदायों में मुस्लिम समुदाय को शामिल ना किये जाने पर कई राजनीतिक पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं।
भारत एक सेक्युलर, संप्रभुता संपन्न और शांतिप्रिय देश है। शायद यह पूरी दुनिया में ‘विविधता में एकता’ का परिचय करने वाला अकेला देश है। शायद यही कारण है कि कई देशों के नागरिक भारत की नागरिकता पाने को आतुर रहते हैं। वर्तमान में देश में नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 की चर्चा चारों ओर है। आइये इस लेख में जानते हैं कि यह बिल क्या है, इसके क्या फीचर्स हैं और यह नागरिकता संशोधन विधेयक, 1955 से किस तरह भिन्न है?
नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 क्या है?
दरअसल नागरिकता (संशोधन) विधेयक एक ऐसा बिल है जो कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले 6 समुदायों के अवैध शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की बात करता है। इन 6 समुदायों ((हिन्दू, बौद्ध, सिख, ईसाई, जैन, तथा पारसी) में इन देशों से आने वाले मुसलमानों को यह नागरिकता नहीं दी जाएगी और यही भारत में इसके विरोध की जड़ है। यह कुल मिलाकर 126 वां संविधान संशोधन बिल होगा। यह लोकसभा व राज्यसभा दोनों में पास हो गया है।
नागरिकता संशोधन विधेयक 1955 क्या कहता है?
नागरिकता अधिनियम, 1955 भारत की नागरिकता प्राप्त करने की 5 शर्तों को बताता है, जैसे-जन्म, वंशानुगत, पंजीकरण, प्राकृतिक एवं क्षेत्र समविष्ट करने के आधार पर। इस अधिनियम में 7 बार संशोधन किया जा चुका है।
जानें किन देशों में निवेश करके वहां की नागरिकता हासिल कर सकते हैं?
नागरिकता संशोधन विधेयक 1955 में प्राकृतिक रूप से नागरिकता हासिल करने के लिए व्यक्ति को कम से कम 11 वर्ष भारत में रहना अनिवार्य था जो कि बाद में घटाकर 6 वर्ष कर दिया गया था लेकिन नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 में इस अवधि को घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया है।
नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 के मुख्य फीचर्स
- नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत किसी व्यक्ति को ओसीआई (ओवरसीज़ सिटिज़नशिप ऑफ इंडिया) कार्ड दिया जा सकता है, यदि वह भारतीय मूल का है (जैसे, भारत के पूर्व नागरिक या उनके वंशज या भारतीय मूल के व्यक्ति के जीवनसाथी)। अब 2019 का एक्ट ओसीआई कार्ड को यह सुविधा देता है कि वे भारत में यात्रा करने, देश में काम करने और अध्ययन करने के अधिकारी हैं।
- नागरिकता अधिनियम 2016 में यह प्रावधान था कि किसी ओसीआई कार्ड धारक का कार्ड इन 5 कारणों से रद्द किया जा सकता है; वह धोखाधड़ी से रजिस्ट्रेशन प्राप्त करना, संविधान के प्रति अरुचि दिखाना, युद्ध के दौरान शत्रु से दोस्ती बढ़ाना, भारत की संप्रभुता, राज्य या सार्वजनिक हित की सुरक्षा से खिलवाड़ करता है, या ओसीआई कार्ड के रजिस्ट्रेशन मिलने के 5 सालों के भीतर उसे दो साल या अधिक कारावास की सजा सुनाई गई है।
अब नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 इस एक्ट में परिवर्तन कर देगा और इसमें यह प्रावधान जोड़ा गया है कि यदि कोई ओसीआई कार्ड धारक, भारत सरकार द्वारा बनाये गये किसी कानून का उल्लंघन करता है तो उसका ओसीआई कार्ड रद्द किया जा सकता है।
- नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 कहता है कि भारत की नागरिकता प्राप्त करने पर;
(क) अवैध प्रवासियों को प्रवेश की तारीख (31 दिसंबर, 2014 से पहले) से भारत का नागरिक माना जाएगा,
(ख) उनके अवैध प्रवास के संबंध में उनके खिलाफ सभी कानूनी कार्यवाही बंद हो जाएगी।
हालांकि असम, मेघालय, मिजोरम या त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों में अवैध प्रवासियों के लिए नागरिकता पर प्रावधान लागू नहीं होंगे।
- नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2016 में यह प्रावधन था कि प्राकृतिक रूप से नागरिकता प्राप्त करने के लिए इन व्यक्तियों (अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों) को कम से कम 6 वर्ष भारत में रहना चाहिए लेकिन नया बिल इस अवधि को घटाकर 5 वर्ष कर देगा अर्थात वे भारत में रहने के 5 सालों की बाद ही भारत के नागरिक बन जायेंगे।
तो ये थे नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के कुछ प्रावधान जो कि 3 देशों के 6 समुदायों के लोगों को भारत की नागरिकता देते हैं।
हालांकि कुछ लोग ऐसा तर्क दे रहे हैं कि यह संशोधन, संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है क्योंकि यह किसी के साथ जाति, धर्म, लिंग, स्थान आदि के आधार पर भेदभाव का विरोध करता है। उम्मीद है कि सरकार सभी पक्षों की बात सुनने के बाद सही फैसला लेगी।
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बहुसंख्यक मुसलमान आक्रामक क्यों हो जाते हैं
धर्मांधता किसी की भी हो, हिंदू, सिख, मुसलमान या ईसाई, मानवता के लिए खतरा होती है। जिस-जिस धर्म को राजसत्ता के साथ जोड़ा, वही धर्म जनविरोधी अत्याचारी और हिंसक बन गया। गत दो-तीन दशकों से इस्लाम धर्म के मानने वालों की हिंसक गतिविधियां पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं। 2005 में समाजशास्त्री डॉ.पीटर हैमण्ड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टेररिज्म एण्ड इस्लाम – द हिस्टोरिकल रूट्स एण्ड कण्टेम्पररी थ्रेट’। इसके साथ ही ‘द हज’ के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकलकर आए हैं, वह न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।
उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बनकर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमेरिका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, ऑस्ट्रेलिया में 1.5 प्रतिशत, कनाडा में 1.9 प्रतिशत, चीन में 1.8 प्रतिशत, इटली में 1.5 प्रतिशत और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है।
जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 प्रतिशत से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुंच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलम्बियों में अपना धर्मप्रचार शुरु कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क में उनकी संख्या 2 प्रतिशत है, जर्मनी में 3.7 प्रतिशत, ब्रिटेन में 2.7 प्रतिशत, स्पेन मे 4 प्रतिशत और थाईलैण्ड में 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं।
जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलम्बियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिये वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का मांस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यतायें प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्केट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहां ‘हलाल’ का मांस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं। इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहां से मजबूत होना शुरु हो जाता है। जिन देशों में ऐसा हो चुका वह है, वे फ्रांस, फिलीपीन्स, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाये। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले। जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिये परेशानी पैदा करना शुरु कर देते हैं, शिकायतें करना शुरु कर देते हैं, उनकी ‘आर्थिक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोडफ़ोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों, डेनमार्क का कार्टून विवाद हो, या फिर एम्स्टर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवाद को समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 फीसदी), इजराइल (16 फीसदी), केन्या (11 फीसदी), रूस (15 फीसदी) में हो चुका है।
जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखायें’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरु हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 फीसदी) और भारत (मुसलमान 22 फीसदी) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुंच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याएं, आतंकवादी कार्रवाईयां आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 फीसदी), चाड (मुसलमान 54.2 फीसदी) और लेबनान (मुसलमान 59 फीसदी) में देखा गया है। शोधकर्ता और लेखक डॉ पीटर हैमण्ड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरु किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोडऩा, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 फीसदी), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 फीसदी) में देखा गया है।
किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 फीसदी हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन द्वारा प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बांग्लादेश (मुसलमान 83 फीसदी), मिस्त्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 फीसदी), ईरान (98 फीसदी), ईराक (97 फीसदी), जोर्डन (93 फीसदी), मोरक्को (98 फीसदी), पाकिस्तान (97 फीसदी), सीरिया (90 फीसदी) व संयुक्त अरब अमीरात (96 फीसदी) में देखा जा रहा है।
ये ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें बिना धर्मांधता के चश्मे के हर किसी को देखना और समझना चाहिए। चाहे वो मुसलमान ही क्यों न हों। अब फर्ज उन मुसलमानों का बनता है, जो खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हैं, वे संगठित होकर आगे आएं और इस्लाम धर्म के साथ जुडऩे वाले इस विश्लेषणों से पैगंबर साहब के मानने वालों को मुक्त कराएं, अन्यथा न तो इस्लाम के मानने वालों का भला होगा और न ही बाकी दुनिया का।
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भारत के प्यारे मुस्लिम भाईयों व बहनों,
नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में जो भी धरने प्रदर्शन व हिंसा हो रहे हैं उसमें सबसे आगे बांग्लादेशी घुसपैठिए ही हैं जिनको पोल खुल जाने के बाद भारत से खदेड़े जाने का डर है। जिन सेकुलर नेताओं व दलों ने इनको संरक्षण देकर अपनी अपनी दुकानें खड़ी की अब उनको वह ज़मीन ही खिसक जाने का भय सता रहा है और इसीलिए वे इस आंदोलन को भड़काने के लिए ज़रूरी रसद पानी, संसाधन व प्रचार प्रसार उपलब्ध करवा रहे हैं। देखा जाए तो ‘राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर’ बन जाने से देश में कौन कौन लोग बाहरी घुसपैठिए हैं यह स्पष्ट हो जाएगा। इन धुसपैठियों ने देश के आम आदमी विशेषकर पहले से रह रहे मुसलमानों की आर्थिक स्थिति बहुत बिगाड़ी है। ये न केवल इनके रोजग़ार खा गए हैं बल्कि हर क्षेत्र में चाहे मज़दूरी हो, स्किल के काम हो या रेहड़ी पटरी वाले छोटे छोटे काम, हर जगह बांग्लादेशी घुसपैठिए बहुत कम दर व लाभ पर वस्तुएं व सेवाएं दे देते हैं। इनके कारण भारत में मज़दूरी दर बहुत सस्ती है। इसके बाद भी मात्र धर्म के नाम पर भारत का मुसलमान इन लोगों के साथ क्यों खड़ा हैे, यह समझ से बाहर हेै। वोट के लालची नेता इनको बांग्लादेश से लाकर बसाते रहते हैं और आप भारतीय मुसलमान इनके चक्कर में हमेशा गऱीब बने रहते हैं। अधिकांश अपराध, चोरी, लूटमार , बलात्कार व अन्य अपराधों में यही हाशिए पर पड़ा घुसपैठिया तबका जिम्मेदार है व पुलिस प्रशासन व लोग इनसे त्रस्त रहते हैं। क्या वोट बैंक व इस्लाम के नाम पर इनके साथ खड़ा होना ठीक है? अगर धर्म के नाम पर देश बंटा है तो भारत पर पहला हक़ हिन्दुओं का है और पाक व बांग्लादेश पर मुस्लिमों का। यह सच हमारे धूर्त राजनेताओं ने आज़ादी के समय ही लिख दिया था। अब आज नहीं तो कल हर भारतीय को सबूत तो देने ही होंगे अपने भारतीय होने के। वो सबूत तो आपके पास हैं ही। फिर घुसपैठियों के लिए क्यों लड़ रहे हो? यह क़ानून उस संविधान का हिस्सा बन चुका है जिसकी आप दुहाई देते घूम रहे हो। इसलिए सीधे रास्ते स्वीकार कर लो तो ही अच्छा है और अगर हिंसा करके दबाव बनाओगे तो सरकार व हिन्दुओं का बचा खुचा भरोसा भी खो बैठोगे और प्रतिहिंसा का शिकार भी बनोगे। ऐसे में भाजपा व हिंदूवादी दल ही हमेशा के लिए देश की सत्ता पर क़ाबिज़ रहेंगे। वैसे भी सीमा पर लाइन लगनी शुरू हो गयी है और लगातार घुसपैठिए भाग रहे हैं। बेहतर होगा इनको भगाओ क्योंकि यह आपके रोजग़ार भी छीन रहे हैं और अमन चैन भी। इनके लिए ऐ भारत के मुस्लिम भाईयों आपने ही दो मुल्क अपने में से काटकर दे रखे हैं इसलिए इनको रोको मत, इनके लिए लड़ाई न करो। ये 5-7 करोड़ देश से कम हो जाएंगे तो आप ही का जीवन सरल व सुगम हो जाएगा। अपने बच्चों व रिश्तेदारों और दोस्तों की तो करते नहीं और दुनिया का ठेका लिए बैठे हो और जब हिंसा होती है तो तुम मरते हो कोई तुम्हारा नेता नहीं। क्यों मूर्ख बनते हो? यह देश आपका भी है इसलिए प्यार से हिंदू व अन्य भाईयो के साथ रहना सीखो व घुसपैठियों व दुनिया भर के इस्लाम के ठेकेदार न बनो।
आपका एक हिंदू भाई