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ऑस्टियोआर्थराइटिस  : मिनिमली इनवेसिव सर्जरी से इलाज

ऑस्टियोआर्थराइटिस रूमेटॉयड की दूसरी सबसे आम समस्या है, जो भारत में 40 प्रतिशत आबादी को अपना शिकार बनाए हुए है। यह एक प्रकार की गठिया (अर्थराइटिस) की समस्या है, जो एक या ज्यादा जोड़ों के कार्टिलेज के डैमेज होने के कारण होती है। कार्टिलेज प्रोटीन जैसा एक तत्व है जो जोड़ों के बीच कुशन का काम करते हैं। हालांकि, ऑस्टियोआर्थराइटिस किसी भी जोड़े को प्रभावित कर सकता है, लेकिन आमतौर पर यह हाथों, घुटनों, कूल्हों और रीढ़ के जोड़ों को प्रभावित करता है। यह समस्या जोड़ों में दर्द को पैदा करता है और समय के साथ यह दर्द तीव्र होता जाता है। यह समस्या आमतौर पर हड्डियों और जोड़ों का बचाव करने वाले कार्टिलेज के डैमेज होने से होती है। आज के दौर में यह समस्या बहुत ही आम और खतरनाक हो गई है, जो उम्र के साथ गंभीर होती जाती है। ऑस्टियोआर्थराइटिस शरीर के जोड़ों को खराब कर देती है, जैसे हाथ और उंगलियां, घुटने, कूल्हा, पीठ का निचला हिस्सा और गर्दन आदि। दुर्भाग्य से यह समस्या चिंता व डिप्रेशन का कारण भी बन सकती है। गाजियाबाद स्थित सेंटर फॉॅर नी एंड हिप केयर के वरिष्ठ  प्रत्यारोपण सर्जन डॉ. अखिलेश यादव का कहना है कि पिछले 5 सालों में, जॉइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी के मामलों में तेजी से वृद्धि हुई है। हालिया रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 5 सालों में भारत में 35,000 से अधिक टोटल नी रिप्लेसमेंट (टीकेआर) और 3500 से अधिक टोटल हिप रिप्लेसमेंट (टीएचआर) सर्जरी की गईं। आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि, 45-70 वर्ष की आयु वर्ग की महिलाओं पर टीकेआर का 75 प्रतिशत से अधिक प्रदर्शन किया गया था। टीकेआर के 33,000 यानी लगभग 97 प्रतिशत मामले ऑस्टियोआर्थराइटिस के थे। इसके अलावा ऑस्टियोआर्थराइटिस से पीडि़त 60 साल से अधिक उम्र की 60 प्रतिशत महिलाएं टोटल हिप रिप्लेसमेंट सर्जरी से गुजर चुकी हैं। सामान्य तौर पर यह समस्या मोटापा, एक्सरसाइज में कमी, चोट आदि से संबंधित है। यह समस्या पीडि़त के जीवन की गुणवत्ता को खराब करती है। इस समस्या का खतरा पुरुषों की तुलना में महिलाओं में 3 गुना ज्यादा होता है, जिसके बाद उन्हें जॉइंट रिप्लेसमेंट कराना पड़ता है।
ऑस्टियोआर्थराइटिस कैसे विकसित होता है?
ऑस्टियोआर्थराइटिस के सामान्य लक्षणों में जोड़ों में दर्द, जकडऩ, झनझनाहट, कम लचीलापन, हड्डियों में घिसाव व टूटने का एहसास होना, सूजन आदि शामिल हैं। इस खतरनाक समस्या के 5 चरण होते हैं, इसलिए सही समय पर समस्या की रोकथाम करना आवश्यक है, जिससे इसे चौथे चरण में जाने से रोका जा सके। ऑस्टियोआर्थराइटिस से पीडि़त 25 फीसदी लोग दिनचर्या के काम करने में सक्षम नहीं रहते हैं।
स्टेज 0 (नॉर्मल)- इस स्टेज में किसी प्रकार के कोई लक्षण नहीं नजर आते हैं।
स्टेज 1 (माइनर)- इस स्टेज में जोड़ों में हल्की समस्या का अनुभव हो सकता है, लेकिन किसी प्रकार के दर्द या असहजता का अनुभव नहीं होता है।
स्टेज 2 (माइल्ड)- एक्स-रे द्वारा किए गए डायग्नोसिस से हेल्दी कार्टिलेज के साथ बढ़ी हुई हड्डी का पता चलता है। हालांकि, इस स्टेज में कई पीडि़तों को ज्यादा चलने या दौडऩे पर दर्द या जकडऩ जैसा महसूस होता है।
स्टेज 3 (मॉडरेट)- इस स्टेज में, हड्डियों के बीच के कार्टलेज में डैमेज दिखाई देने लगता है और हड्डियों के बीच मौजूद जगह कम होने लगती है। स्टेज 3 वाले घुटनों के मरीजों को चलने, दौडऩे और झुकने के दौरान बार-बार दर्द का अनुभव होने लगता है। उन्हें ज्यादा देर बैठने या सुबह उठने के बाद जोड़ों में जकडऩ का अनुभव होता है। ज्यादा काम करने के बाद उनके जोड़ों में सूजन की समस्या होती है।
स्टेज 4 (गंभीर)- इस स्टेज में, घुटनों के मरीजों को चलते वक्तया मूवमेंट के दौरान तीव्र दर्द और असहजता महसूस होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनकी हड्डियों के बीच मौजूद जगह खत्म हो जाती है, जिससे कार्टिलेज लगभग पूरी तरह घिस जाता है। ऐसे में मरीज के जोड़ों में अधिक जकडऩ, हड्डियों के घिसने आदि की समस्याएं होती हैं। स्टेज 4 वाले मरीजों की हालत गंभीर हो जाती है, जिसके बाद उन्हें दिनचर्या के सामान्य कामों को भी करने में समस्या होती है।
ऑस्टियोआर्थराइटिस का इलाज
डॉ. अखिलेश यादव के अनुसार यदि समस्या का निदान शुरुआती चरणों (0-2 चरण) में हो जाता है, तो मरीजों को किसी खास इलाज की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इस दौरान समस्या को केवल एक्सरसाइज और फिजिकल थेरेपी से ठीक किया जा सकता है। इस प्रकार की थेरेपी में किसी प्रकार के मेडिकेशन की आवश्यकता नहीं होती है।
मेडिकेशन
यदि दर्द को केवल एक्सरसाइज की मदद से ठीक नहीं किया जा सकता है, तो उस केस में जोड़ों में असहजता को दवाइयों यानी कि मेडिकेशन की मदद से कम करने की कोशिश की जाती है। यदि आपको समस्या ज्यादा हो रही है, तो डॉक्टर आपको सप्लीमेंट्स के अलावा ओटीसी पेन किलर दवाइयां और पेन रिलीफ थेरेपी की सलाह दे सकता है। सामान्य तौर पर स्टेज 3 की स्थिति में मरीज मेडिकेशन की मदद से ठीक हो सकता है।
सर्जरी
स्टेज 4 में यदि आपके जोड़ों की समस्या बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, तो ऐसे में डॉक्टर के पास सर्जरी के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचता है। फुल नी रिप्लेसमेंट, अर्थराइटिस की समस्या के इलाज का सबसे लोकप्रिय विकल्प माना जाता है। इसकी जरूरत तभी पड़ती है, जब तीनों कंपार्टमेंट प्रभावित हो चुके होते हैं।
मिनिमली इनवेसिव टोटल नी रिप्लेसमेंट-
डॉ.अखिलेश यादव के अनुसार टोटल नी रिप्लेसमेंट के क्षेत्र में प्रगति के साथ मिनिमली इनवेसिव प्रक्रिया की मदद से न सिर्फ  सही समय पर निदान संभव है, बल्कि सफल इलाज भी संभव है। यह कंप्युटर एसिस्टेड रोबोटिक तकनीक है, जिसकी मदद से सर्जरी के बाद मरीज बहुत जल्दी रिकवर करता है और उसका जीवन भी बेहतर हो जाता है। आज, सर्जरी का उपयोग पूरी विशेषज्ञता के साथ किया जाता है, जहां मरीज को दर्द न के बराबर होता है और अस्पताल से कम समय में ही डिस्चार्ज कर दिया जाता है।
पार्शियल नी रिप्लेसमेंट-
पार्शियल नी रिप्लेसमेंट जैसी नई तकनीकें और एलॉय इंप्लांट पुराने की तुलना में बहुत बेहतर हो गए हैं। ये इंप्लांट लंबे समय तक चलते हैं, जिससे मरीजों को इंप्लांट बार-बार बदलवाना नहीं पड़ता है। पहले नी रिप्लेसमेंट बुजुर्ग मरीजों की जरूरत के हिसाब से उपलब्ध होते थे, लेकिन आज टेक्नोलॉजी में प्रगति के साथ इंप्लांट की उपलब्धता के साथ युवा भी इस तकनीक का लाभ उठा सकते हैं। पार्शियल नी रिप्सेमेंट का खास फायदा यह है कि यह एसीएल का बचाव करता है, जो मूवमेंट और जोड़ों के बचाव के लिए जिम्मेदार एक अहम लिगामेंट होता है। जबकी टोटल नी रिप्लेसमेंट सर्जरी में एसीएल को हटाना पड़ता है। चूंकि, इसमें एक छोटे से चीरे के साथ काम बन जाता है, इसलिए मरीज सर्जरी के बाद जल्दी रिकवर करते हैं और जल्द ही अपने सामान्य जीवन को शुरू कर पाते हैं। इस प्रक्रिया में लीगामेंट को ठीक से सेट किया जाता है, इसलिए मरीजों को ऐसा बिल्कुल महसूस नहीं होता है कि उनके प्राकृतिक घुटने को इंप्लांट के साथ बदला गया है। सभी मरीज पूरी तरह से सामान्य महसूस करते हैं।
उमेश कुमार सिंह

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