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ओवैसी जी ! राम का नाम तो लेगा ही भारतवासी

 

अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास क्या हो गया कि असदुद्दीन ओवैसी तथा आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की छाती पर सांप लोटने लगा। ये तब से ही यह कहने लग रहे हैं कि भारत में धर्मनिरपेक्षता खतरे में है। ओवैसी को तो मानो एक बड़ा मौका ही मिल गया है हिन्दुओं को उकसाने  और मुसलमानों को भड़काने का। असदुद्दीन ओवैसी तथा  आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जिस बेशर्मी से राम मंदिर के भूमि पूजन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ज़रिये उसकी आधारशिला रखे जाने पर अनाप-शनाप बोला उससे तो कुछ न कुछ समाज बंटेगा ही। ओवैसी और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने घोर गैर-जिम्मेदारी का परिचय दिया है। ये नहीं चाहते कि भारत विकसित हो और एक विश्व गुरु बने।

 भविष्य में क्या होगा इसका दावा तो कोई नहीं कर सकता I लेकिन, अब अगर बाबरी पर प्रश्न उठेगा तो साफ है कि मुसलमान समाज अपने वादे से मुकर रहे हैं कि वे पूरी तौर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानेंगे। राममंदिर तो अब बन कर रहेगा ही और इतने लम्बे संघर्ष के बाद भी अगर ओवैसी को हिंदुओं का दृढ़ संकल्प समझ में नहीं आया तो वह फिर आग से खेल रहे हैं जिसका अंजाम उन्हें समझना चाहिए । मुस्लिम पर्सनल लॉ  बोर्ड को  किसने अधिकार दे दिया कि वह देश के तमाम मुसलमानों की ठेकेदारी करे। पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा है कि राम मंदिर के निर्णय को समय के बदलने के पश्चात् वे उसे उसी प्रकार से बदल देंगे जैसे हगिया सोफिया मस्जिद के साथ हुआ। यह धमकाने वाला लहजा बड़ा ही खतरनाक है और सुप्रीम कोर्ट की खुलेआम अवहेलना है । पर मजाल है कि किसी भी सेक्युलरवादी की जुबान खुली हो।

 अभी भी ऐसे सैकड़ों मंदिर हैं जिन्हें तोड़कर उन पर मस्जिदें बनी हैं और जिनमें किसी सुबूत की भी ज़रूरत नहीं है । अगर राम मंदिर को सोफिया की तरह होना है तो अकेला वही क्यों ?  एक नज़र मूल काशी विश्वनाथ मंदिर पर भी डाल लें  जहाँ आज ज्ञानवापी मस्जिद खड़ी है। दिल्ली के कुतुब मीनार को जाकर भी देखें। वहां पर आपको कई इमारतें मिलेंगी जिन पर हिन्दुओं के प्रतीक अंकित हैं।

निस्सदेह असदुद्दीन ओवैसी तथा  आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की भाषा 9 नवम्बर 2019 के सुप्रीम कोर्ट  के फैसले का भी खुला अपमान करती है। इनपर सुप्रीम कोर्ट के अपमान का मुकदमा कायम होना चाहिये I इन्हें प्रधानमंत्री मोदी के अयोध्या जाने पर खासतौर कष्ट है। क्या इन्होंने तब भी कभी आपत्ति जताई थी जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इफ्तार पार्टियों का आयोजन करते रहते थे? ये सब नेहरू जी को अपना आदर्श मानते हैं। बहुत अच्छी बात है। उनसे किसी का भी कोई विरोध नहीं है। पर क्या इन्हें पता है कि वे भी कुंभ स्नान के लिए जाते थे?

 ओवैसी जिस तरह का लगातार  आचरण कर रहे है वह बेहद आपत्तिजनक है। एक सांसद से इस तरह के आचरण की कतई उम्मीद की जाती। वह सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे। कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के प्रमुख शहर नोएडा में पुलिस ने पार्कों में मुसलमानों को बिना अनमुति के नमाज अदा करने पर रोक लगाई। सुप्रीम कोर्ट ने अपने साल 2009 के एक आदेश में साफ कहा है कि सार्वजिनक स्थलों पर धार्मिक-सामाजिक आयोजनों के लिए पुलिस-प्रशासन की अनुमति लेना जरूरी है। उत्तर प्रदेश पुलिस के एक्शन के बाद हंगामा खड़ा होने लगा। इसे अल्पसंख्यकों की धार्मिक आस्थाओं पर कुठाराघात बताने वाले हाय-तौबा करने लगे।  

यह विवाद गरमाया तो असदुद्दीन ओवैसी ने तुरंत आग में घी डालने का काम चालू कर दिया। ओवैसी  कहने लगे  कि यूपी पुलिस कांवड़ियों पर फूल बरसाती है। लेकिन, नमाजियों पर रोक लगाती है। क्या सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करवाना उनके हिसाब से गलत है? ओवैसी जी की राजनीति का स्तर निहायत ही बदबूदार हो चुका है। आप शुक्रवार को जुमा की नमाज सड़कों, रेलवे स्टेशनों, पार्कों, बाजारों वगैरह पर देखते हैं। चूंकि, देश के संविधान का मूलभूत चरित्र धर्मनिरपेक्ष है, इसलिए  नमाज को अदा करने को लेकर किसी तरह का विरोध किए जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। यानी भारत में सभी को अपने धार्मिक रीति-रिवाजों को मानने-मनाने की अनुमति  मिली हुई है। ये संवैधानिक गारंटी है। पर इसका यह कहां से अर्थ निकाला जाए कि रातोंरात किसी भी पीपल के पेड़ के नीचे मंदिर खड़ा हो जाए या किसी चौराहे पर काजर बना दिया जाये या कहीं भी नमाज पढ़ना चालू कर दिया जाए। अगर हम पार्कों पर नमाज या दूसरे धार्मिक आयोजनों को नहीं रोकते तो हमें ये कहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं बचता कि हमारे बच्चों के लिए खेलने के लिए पर्याप्त जगह नहीं हैं? क्या पार्कों में नमाज या रामलीला की इजाजत दे दी जाए?

दरअसल कुछ शरारती तत्व असहिष्णुता के सवाल पर कोलहाल और कोहराम मचाए  रहते हैं। इन्हें नसीरुद्दीन शाह जैसे बयानवीरों का साथ तो मिल ही जाता है। अब इन्हें कौन समझाए कि पुरातन भारतीय सभ्यता की आत्मा में ही सहिष्णुता है। अगर यह नहीं होता तो जिस तरह की हालत पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हिन्दुओं और सिखों की हो रही है वही हालत तो भारत में भी अल्पसंख्यकों की हो जाती I लेकिन, बहुसंख्यक हिन्दू समाज ही भारत में अल्पसंख्यकों का रक्षक है I हिन्दू संस्कृति की छांव में बौद्ध,जैन,सिख के साथ साथ अरब से आया इस्लाम भी फलता-फूलता रहा।

भारत धर्मनिरपेक्ष इसलिए है क्योंकि, हिन्दू धर्म ही मूलतः धर्मनिरपेक्ष है। भारत को असहिष्णु कहने वाले जरा इतिहास के पन्ने भी खंगाल लें। उनकी आंखें स्वयं खुल जाएँगी। पर इस देश ने बाहर से आने वाले धर्मावलंबियों का सदैव स्वागत ही किया। 

भारत के मालाबार समुद्र तट पर 542 ईंसा पूर्व यहुदी पहुंचे। और वे तब से भारत में अमन-चैन से गुजर-बसर कर रहे हैं। ईसाइयों का भारत में आगमन चालू हुआ 52वीं ईसवी में। वे भी सबसे पहले केरल में आए। फिर पारसी आए। वे कट्टरपंथी मुसलमानों से जान बचाकर ईरान से साल 720 ईस्वी में गुजरात के नवसरी समुद्र तट पर आए। इस्लाम भी केरल के रास्ते ही भारत में आया।

लेकिन, भारत में इस्लाम के मानने वाले बाद के दौर में  शरण लेने के इरादे से नहीं आए थे। उनका लक्ष्य  भारत को लूटना और राज करना था। वे आक्रमणकारी और लुटेरे थे।

भारतीय इतिहास को जानने वाले जानते हैं कि यहां  सबसे बाद के विदेशी हमलावर अंग्रेज थे। उन्होंने 1757 में पलासी के युद्ध में विजय पाई। लेकिन गोरे पहले के आक्रमणकारियों की तुलना में ज्यादा समझदार थे। वे समझ गए थे कि भारत में धर्मांतरण करवाने से ब्रिटिश हुकुमत का विस्तार संभव नहीं होगा। भारत से कच्चा माल ले जाकर वे अपने देश में औद्योगिक क्रांति की नींव रख सकेंगे। इसलिए ब्रिटेन, जो एक प्रोटेस्टेंट देश हैं, ने  भारत में 190 सालों के शासनकाल में धर्मांतरण शायद ही कभी किया हो। इसलिए ही भारत में प्रोटेस्टेंट ईसाई बहुत कम हैं। भारत में ज्यादातर ईसाई कैथोलिक हैं। इनका धर्मातरण करवाया आयरिश,पुर्तगाली स्पेनिश ईसाई मिशनरियों ने। इन्होंने गोवा, पुडुचेरी और देश के अन्य भागों में अपने लक्ष्य को साधा।

 अब एक बात सब  समझ लें कि भारत के तो कणकण में राम बसे हैं। भारत की राम के बिना तो कल्पना करना भी असंभव है। सारा भारत राम को अपना अराध्य और पूजनीय मानता है।  राम मनोहर लोहिया कहते थे कि भारत के तीन सबसे बड़े पौराणिक और पूजनीय नाम  राम, कृष्ण और शिव ही हैं। उनके काम के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी प्राय: सभी को, कम से कम दो में एक भारतीय को तो होगी ही। उनके विचार व कर्म, या उन्होंने कौनसे शब्द  कब कहे, उसे विस्तारपूर्वक दस में एक तो जानता ही होगा। कभी सोचिए कि एक दिन में भारत में कितनी बार यहां की जनता प्रभु राम का नाम लेती है। ये आंकड़ा तो अरबों  खरबों में पहुंच जाएगा। भारत राम का नाम तो लेता रहेगा। 

आर.के.सिन्हा

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)

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