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कंझावला कांड और दिल्ली पुलिस

*रजनीश कपूर
नए साल में देश की राजधानी दिल्ली में हुई दरिंदगी से पूरा देश ख़ौफ़ में है। हादसे के बाद दिल्ली पुलिस पर जाँच की अहम
ज़िम्मेदारी पड़ गई है। इस मामले में सही दिशा में जाँच ही आरोपियों को सज़ा दिलवा पाएगी। यदि पुलिस की जाँच में कोई
भी कोताही बरती गई तो अपराधी अदालत द्वारा छोड़े भी जा सकते हैं।
दिल्ली पुलिस के अनुसार यह हादसा केवल एक दुर्घटना का है जो कार चालकों की लापरवाही के कारण हुआ। परंतु क़ानून
के जानकारों के अनुसार जिस तरह दिल्ली पुलिस इस मामले की जाँच में कोताही बरत रही है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि
या तो दिल्ली पुलिस के अधिकारी मौजूदा तथ्यों की अनदेखी कर रहे हैं या उन पर किसी तरह का दबाव है। जिस तरह इस
मामले की एफ़आईआर में भारतीय दंड संहिता की धारा 304, 304ए, 279 और 120-बी, दर्ज की गई है उससे तो यह
लगता है कि दिल्ली पुलिस इस मामले को गंभीरता से नहीं ले रही। देश भर से ये सवाल उठ रहे हैं कि इस मामले में धारा
302 व अन्य धाराएँ क्यों नहीं लगाई गई?
भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और 304 में अंतर देखा जाए तो वो है हत्या करने का इरादा या इस बात का ज्ञान होना
कि आरोपी के ऐसे कृत से पीड़ित की हत्या भी हो सकती है। धारा 304 के तहत यदि आरोपी को इस बात का ज्ञान न हो या
उसके पास हत्या का कोई इरादा न हो तो उस आरोपी पर धारा 304 के तहत ही मामला दर्ज होता है। इस मामले में इस
बात को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता कि आरोपी इतने नासमझ थे कि पीड़िता को 12 किलोमीटर तक घसीटते रहे।
उन्होंने यह सोचा ही नहीं कि ऐसा करने से उसकी मौत भी हो सकती है।
अब यदि इरादे की बात करें, तो जिस तरह आरोपी पीड़िता के शव का गाड़ी से अलग होते ही घटना स्थल भाग गये, इस
बात की पुष्टि करता है कि उनका इरादा क्या था। यदि इरादा हत्या का नहीं था तो स्कूटर की गाड़ी से टक्कर होने के बाद वे
तुरंत वहाँ से भाग सकते थे। ऐसे में शायद पीड़िता जीवित होती। आरोपियों पर केवल ‘हिट एंड रन’ का केस बनता, जिसे
‘दुर्घटना’ कहा जा सकता था। पर यहाँ ऐसा नहीं हुआ। इसलिए क़ानून के जानकारों के अनुसार इस मामले में पुलिस को
धारा 302 व अन्य धाराओं को भी जोड़ लेना चाहिए।
कोर्ट में हत्या को साबित करने के लिए अभियोजन पक्ष को इस मामले में या तो सांयोगिक साक्ष्य या कोई चश्मदीद गवाह
पेश करना होगा। ग़ौरतलब है कि दीपक दहिया नाम के एक व्यक्ति ने ख़ुद को इस मामले का चश्मदीद बताते हुए पुलिस को
इस मामले की सूचना दी। इसलिए इस मामले में दीपक की अहम भूमिका रहेगी। पुलिस को इस बात को सुनिश्चित कर लेना
चाहिए कि दीपक कोर्ट में गवाही ज़रूर दे। इस बात को भी नहीं नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता कि बचाव पक्ष दीपक
जैसे चश्मदीद को गवाही न देने के लिए भी मजबूर कर सकता है। यदि दिल्ली पुलिस अपनी साख को बचा कर रखना
चाहती है तो उसे अपराधियों के ख़िलाफ़ एक मज़बूत मामला बनाना होगा जो कोर्ट में टिक सके।
पीड़िता के पोस्टमॉर्टम से पहले ही दिल्ली पुलिस के अधिकारी ने मीडिया में बयान दिया कि यह मामला ‘हत्या’ का नहीं
बल्कि ‘दुर्घटना’ का है। इसके साथ ही बलात्कार से भी इनकार किया। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार, जिस तरह
दिल्ली पुलिस के डीसीपी हरिंदर सिंह ने जल्दबाज़ी में इस मामले पर मीडिया से बातचीत की है वो सरकारी आचरण व
अनुशासन नियमों के अनुसार दंडनीय है। ऐसे हादसों पर केवल पुलिस के अधिकृत प्रवक्ता ही मीडिया से बात कर सकते हैं।
बिना पोस्टमॉर्टम के बयान देना एकतरफ़ा लगता है और मामले की जाँच को ग़लत दिशा में ले जा सकता है।
ऐसे मामलों में सही ढंग से की गई शुरुआती जाँच ही मामले की सच्चाई उजागर करती है। यदि शुरुआती जाँच में ही कोताही
बरती जाए तो सच उजागर कैसे होगा? मिसाल के तौर पर एक तथ्य यह भी सामने आया है कि स्कूटर पर पीड़िता के साथ
एक अन्य लड़की भी थी। दुर्घटना होने पर उसे भी मामूली चोट आई और वो घटनास्थल से घर चली गई। ये बात गले नहीं
उतरती। यह लड़की इस हादसे की चश्मदीद है। ये लड़की मीडिया में ऐसे बयान दे रही है जिसकी पुष्टि पोस्टमॉर्टम से नहीं
हो रही। या तो पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट झूठी है या वो लड़की झूठ बोल रही है। ऐसे कई पहलू हैं जिन पर दिल्ली पुलिस को
गंभीरता से जाँच करनी चाहिए।

इस मामले के चश्मदीद दीपक दहिया द्वारा 20 बार पीसीआर को फ़ोन करने पर भी पुलिस द्वारा फुर्ती नहीं दिखाई
गई।इसके पीछे क्या कारण था? आरोपियों की गिरफ़्तारी के बाद भी कई घंटों तक उनकी मेडिकल जाँच क्यों नहीं हुई?
पाँचों आरोपी के अनुसार वे दिल्ली से सटे मूर्थल से आ रहे थे, क्या किसी भी टोल से इस बात की पुष्टि हुई है? उत्तर प्रदेश के
पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह के अनुसार महिला अपराध व अन्य संगीन अपराधों की जाँच में कोताही को लेकर
भारतीय दंड संहिता में धारा 166-ए को जोड़ा गया था। इस धारा के अनुसार, यदि कोई पुलिस अधिकारी या अन्य सरकारी
अधिकारी किसी मामले की जाँच को ऐसे ढंग से करेगा, जिसका जाँच पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है, तो उस अधिकारी
को इस धारा के तहत कम से कम 6 महीने की सज़ा हो सकती है। क्या दिल्ली पुलिस इस दिशा में कोई कार्यवाही करेगी?
एक ओर दिल्ली पुलिस नागरिकों की सुरक्षा के लिए समर्पित होने का दावा करती है। परंतु पुलिस कंट्रोल रूम में 20 बार
फ़ोन करने के बावजूद फुर्ती नहीं दिखा पाती। क्या इस सब के पीछे दिल्ली पुलिस की पीसीआर व्यवस्था में हाल ही में हुए
बदलाव, संसाधन व पुलिस बल की कमी ही कारण हैं? नागरिकों की सुरक्षा से जुड़े ऐसे कई और सवाल हैं जिनका जवाब
दिल्ली पुलिस और सरकार को देना होगा।
*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक हैं।

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