इस समय भारत ही नहीं पूरे विश्व में आर्थिक मंदी की आहट की चर्चा है। भारत के विषय में अगर बात करें तो हाल ही में जारी कुछ आंकड़ों के हवाले से यह कहा जा रहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था बेहद बुरे दौर से गुज़र रही है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार अप्रैल- जून तिमाही की आर्थिक विकास दर 5% रह गई है जो कि पिछले 6 सालों में सबसे निचले स्तर पर है। एक अर्थशास्त्री के लिए ये आंकड़े मायने रखते होंगे लेकिन एक आम आदमी तो साधरण मनोविज्ञान के नियमों पर चलता है। सरकार कह रही है कि आने वाली वैश्विक मंदी का भारत में कोई खास असर नहीं होने वाला है अपितु इसके साथ ही इस वैश्विक मंदी का असर भारत पर नहीं हो इस के लिए अनेक उपाय भी कर रही है।, लेकिन टीवी और अखबार “आने वाली” मंदी की खबरों और विभिन्न अर्थशास्त्रियों के “शस्त्रार्थ” से भरे हैं। तो सोशल मीडिया के मंच पर इस विषय में परोसे जाने वाली जानकारी से आज आम आदमी आश्वस्त होने के बजाए चिंतित एवं भ्रमित अधिक हो रहा है। जो आम आदमी कुछ सालों पहले तक देश की आर्थिक स्थिति से अनभिज्ञ अपने घर की मंदी दूर कर अपनी खुद की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में लगा रहता था आज देश की अर्थव्यवस्था पर विचार विमर्श कर रहा है। पहले उसे मंदी का पता तब चलता था जब मंदी के चलते उसकी नौकरी चली जाती थी या उसके व्यापार में मद्दा आता था।लेकिन आज सोशल मीडिया के चलते उसे मंदी आने से पहले ही “मंदी की आहट” का एहसास हो गया है। जाहिर है ऐसे माहौल में जब देश में मंदी को लेकर आए दिन टीवी चैनलों पर डिबेट चलती हो तो देश एक असमंजस की स्थिति का सामना करता है और आम आदमी आने वाले “मुश्किल समय” के लिए खुद को तैयार करने लगता है। साधारण से साधारण समझ वाला व्यक्ति भी ऐसी परिस्थितियों में कम खर्च और अधिक बचत के लिए ही अग्रसर होगा। इसी मनोविज्ञान के चलते धीरे धीरे बाज़ार में खपत कम होनी शुरू हो जाती है।
जब खपत नहीं होती तो उत्पादन धीमा पड़ जाता है और ऐसा ही एक चक्र चल निकलता है। अर्थशास्त्र के लिहाज से निवेश का आर्थिक विकास में अहम योगदान होता है। इसीलिए सरकार ऐसी परिस्थितियों में आर्थिक सुधार के लिए कदम उठाती है और निवेश को बढ़ावा देने के लिए व्यापार और उद्योग जगत को अनेक छूट और सुविधाएँ देने की घोषणा करती है ताकि वो व्यापार में निवेश करके देश की अर्थव्यवस्था को गति देने में योगदान दें। मान लीजिए कि सरकार की नीतियों से निवेश शुरू हो जाता है लेकिन खपत फिर भी नहीं होती क्यों? इसके दो कारण हो सकते हैं,
1, बाजार में मौजूद उपभोक्ता यानी आम आदमी के जेहन में मंदी की आहट घर कर गई है तो वो बचत करता है और बाजार में उत्पाद होते हुए भी उसे नहीं खरीदता।
2, वाकई में मंदी है और उपभोक्ता के हाथ में पैसा ही नहीं है।
यानी दोनों ही परिस्थितियों में निवेश तो है लेकिन खपत नहीं।
अब सरकार खपत बढ़ाने के लिए उपभोक्ता के हाथों में पैसा देने के उपाय करती है जैसे टैक्स में छूट, सस्ते ऋण, ब्याज दरों में कटौती आदि।
लेकिन जब मंदी की आहट का मनोविज्ञान देश में फैला हो तो आर्थिक सुधार भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर नहीं ला पाते। इसलिए सबसे पहले तो यह समझना चाहिए कि किन्हीं दो देशों की अर्थव्यवस्था के हालात एक जैसे नहीं होते। अगर यूरोप या अमेरिका की अर्थव्यवस्था में किसी कारण से मंदी आ रही है तो जरूरी नहीं कि भारत में भी वही स्थिति और कारण उत्पन्न हो। रही आंकड़ों की बात तो भारत में गिरती जीडीपी के हवाले से मंदी की बात की जा रही है तो पहले जीडीपी को समझ लें। दरअसल जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद का अर्थ होता है कि एक साल में उस देश में कुल कितना उत्पादन हुआ है। गिरती जीडीपी का अर्थ है कम उत्पादन। हालांकि अकेली जीडीपी से किसी देश की अर्थव्यवस्था का सही आँकलन नहीं किया जा सकता क्योंकि वो उन अनेक मापदंडों में से एक मापदंड है जो अर्थव्यवस्था की स्थिति को दर्शाती हैं। क्योंकि वो केवल उस देश के सकल उत्पादन के विषय में जानकारी देती है उस देश की खपत या नागरिकों की आय के बारे में नहीं। और ध्यान देने योग्य बात यह है कि हाल में जो जीडीपी की यह विकास दर 5% की बताई गई है वो केवल इस वर्ष के तीन महीनों की है न कि साल भर की।अब अगर उन क्षेत्रों की बात करें जहाँ उत्पादन कम हुआ है तो वो हैं, रीयल एस्टेट, टेक्सटाइल, कृषि क्षेत्र, ऑटोमोबाइल सेक्टर, और वाहनों के गिरते कारोबार के साथ फाइनेंस कंपनियाँ। इन क्षेत्रों की गिरती जीडीपी के विषय में बात करने से पहले एक दिलचस्प आंकड़ा यह भी है कि वर्तमान में बाज़ार में नकद प्रवाह नोटबन्दी के बाद17% ज्यादा है यानी लोगों के पास पैसा तो है लेकिन बाजार में खपत नहीं है। अब अगर ऑटोमोबाइल सेक्टर में गिरती जीडीपी को समझें तो यहां उत्पादन कम हुआ है क्योंकि मांग कम हुई क्योंकि सरकार ने आने वाले समय में प्रदुषण कम करने के लिए बैटरी से चलने वाले वाहनों को प्रोत्साहित करने का ऐलान किया।जाहिर है लोग अब नई टेक्नोलॉजी और भविष्य में निवेश करना चाहेंगे। रियल एस्टेट की बात करें तो 2014 से पहले रियल एस्टेट में सब जानते हैं निवेश कहाँ से आता था नोटबन्दी के बाद इसमें आने वाली मंदी अपेक्षित ही थी। इस क्षेत्र को मंदी से उबारने के लिए गृह ऋण और ब्याज दर कम किए जाते हैं। कृषि जगत तो विगत कई वर्षों से नीतिगत सुधारों की अपेक्षा कर रहा है। लेकिन सर्विस इंडस्ट्री, बैंकिंग सेक्टर, स्वास्थ्य क्षेत्र, विधिक सेवा क्षेत्र, शिक्षा जैसे क्षेत्र सफलता पूर्वक अपनी सेवाएं दे रहे हैं और देश की अर्थव्यवस्था की डोर मजबूती से थामे हैं। इसलिए यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ रही है और देश के आम आदमी के मनोविज्ञान पर नकारात्मकता का संचार करेगी। बेहतर होगा कि अभी समय को अपनी चाल चलने दें और इंतज़ार करें यह देखने के लिए कि देश की अर्थव्यवस्था किस करवट बैठती है।
डॉ नीलम महेंद्र
लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं