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कितनी कारगर होगी नई शिक्षा नीति?

 

डॉ. प्रमोद कुमार

नई शिक्षा नीति के मसौदे में प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालयीन शिक्षा तक कईं बड़े बदलाव के प्रस्ताव हैं। इससे स्वतंत्रता के बाद पहली बार देश की शिक्षा व्यवस्था के भारतीय पटरी पर लौटने की उम्मीद जगी है। परन्तु कस्तूरीरंगन समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। यह सवाल इसलिए लाजिमी है क्योंकि इससे पूर्व भी कई बार अनेक शिक्षा आयोग एवं समितियां बनीं, परन्तु उनकी सिफारिशें लागू नहीं हो पायीं। देशवासियों को उम्मीद है कि प्रचंड जनादेश प्राप्त मोदी सरकार इस मोर्चे पर दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाएगी।

स्वतंत्रता के बाद देश में जितनी उपेक्षा शिक्षा की हुई उतनी संभवत: किसी अन्य क्षेत्र की नहीं हुई। परिणामस्वरूप आज न तो देशभर में एक समान पाठ्यक्रम लागू है, न इतिहास की समग्र जानकारी बच्चों को दी जाती है, न नई पीढ़ी को देश की समृद्ध एवं गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत से परिचित कराया जाता है और न ही शिक्षा को रोजगार से जोडऩे का ठोस प्रयास हुआ है। हालत यह है कि देश में कहीं स्कूल छत विहीन हैं तो कहीं शिक्षक विहीन। सरकारी स्कूलों में संसाधनों की भारी कमी के चलते निजी स्कूल जमकर अभिभावकों की जेब काट रहे हैं। जब दुनियाभर के स्कूलों में पढऩे वाले बच्चे ‘एक्टिव लर्निंग बोर्ड’ की सहायता से ‘स्मार्ट क्लास रूम’ में पढ़ते हैं और ई-लर्निंग, ई-कंटेंट, ई-क्लास के साथ कंप्यूटर संचालन में पारंगत हैं, उस समय हमारे देश में सभी स्कूल भवनों पर छत तक न होना लज्जा की बात है। हालांकि गत पांच वर्षों में शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने हेतु सरकारी स्तर पर काफी प्रयास हुए हैं और उनसे एक उम्मीद बंधी है, किन्तु अभी अनेक मोर्चों पर ठोस कार्रवाई अपेक्षित है।

प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक हमारी शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या यह है कि निजि और सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम एकसमान नहीं हैं, लेकिन फिर भी कॉलेजों अथवा प्रोफेशनल पाठ्यक्रमों में दाखिले के लिए राष्ट्रीय स्तर एक साथ प्रतिस्पर्धा होती है। प्रतियोगी परीक्षाओं में भी निजि एवं सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को समान रूप से मुकाबला करना पड़ता है। जब हम स्कूलों में एक समान सुविधाएं एवं शिक्षा प्रदान नहीं कर रहे हैं तो प्रतियोगी परीक्षाओं में एक समान प्रश्न पूछना कितना न्यायसंगत माना जाना चाहिए? नयी शिक्षानीति के प्रारूप में एकसमान पाठ्यक्रम जैसी अनेक विसंगतियों को दूर करने का प्रयास किया गया है। शिक्षाविदों का मानना है कि राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाले पाठ्यक्रम की 80 प्रतिशत सामग्री अनिवार्य रूप से राज्यों में स्वीकार की जानी चाहिए। बीस प्रतिशत सामग्री स्थानीय महत्व एवं विरासत को ध्यान में रखते हुए शामिल की जा सकती है। जब तक पूरे देश में कम से कम 80 प्रतिशत पाठ्यक्रम एक समान नहीं होगा तब तक एक समान शिक्षा व्यवस्था नहीं लागू हो सकेगी। एक समान शिक्षा व्यवस्था से राष्ट्रीय एकता को भी मजबूती मिलेगी। नयी शिक्षानीति में कौशल और हुनर के साथ-साथ विद्यार्थियों को संस्कारी, संयमी और अनुशासित बनाने के लिए स्वच्छता अभियान, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक वानिकी और अधिकार-कर्तव्य जागरूकता कार्यक्रम जैसी पाठ्यचर्चाएं भी शामिल की जानी चाहिए। इससे वे भारत, भारतीयता और अपने महापुरुषों को ही नहीं, बल्कि समरसता के बारे में भी जानेंगे। इससे समरस भारत के निर्माण में भी मदद मिलेगी। पाठ्यक्रम तैयार करते समय यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उसे पढ़कर विद्यार्थी अपने अतीत और सांस्कृतिक विरासत से भलीभांति परिचित हों।

मातृभाषा का महत्व विस्तार से बताने की यहां आवश्यकता नहीं है। हमारे देश में भाषायी विविधता के कारण भारतीय भाषाओं की उपेक्षा और अंग्रेजी की महत्ता तेजी से बढ़ रही है। परन्तु मातृभाषा में शिक्षा न मिल पाने के चलते अधिकतर बच्चे शैक्षिक उपलब्धि में पिछड़ जाते हैं। इसीलिए नई शिक्षा नीति के प्रारूप में बच्चों को कम से कम पांचवीं कक्षा तक मातृभाषा में पढ़ाने की बात कही गई है। कहा गया है कि बच्चों को प्री-प्राइमरी से लेकर कम से कम पांचवीं तक और हो सके तो आठवीं तक मातृभाषा में ही पढ़ाना चाहिए। प्री-स्कूल और पहली कक्षा में बच्चों को तीन भारतीय भाषाओं के बारे में भी पढ़ाना चाहिए जिसमें वह उन्हें बोलना सीखें और उनके अक्षर पहचाने और पढ़ें। तीसरी कक्षा तक मातृभाषा में ही लिखें और उसके बाद दो और भारतीय भाषाएं लिखना भी शुरू करें। अगर कोई विदेशी भाषा भी पढऩा और लिखना चाहे तो यह इन तीन भारतीय भाषाओं के अलावा चौथी भाषा के तौर पर पढ़ाई जाए। हमारे यहां संस्कृत और तमिल जैसी अत्यंत समृद्ध भाषाएं हैं जिनकी प्राचीन परंपराएं हैं और इनमें अथाह साहित्य भी है। ये सभी भाषाएं भारत के विभिन्न क्षेत्रों की सांस्कृतिक विशिष्टता को संजोये हुए देश की बहुरंगी छटा प्रस्तुत करती हैं। नई शिक्षा नीति के प्रारूप में भाषा की सहायता से सामाजिक-सांस्कृतिक एकता की ओर बढऩे का प्रस्ताव है ताकि विद्यार्थी को भाषा के अध्ययन के क्रम में प्रत्येक संस्कृति का परिचय मिले और सांस्कृतिक संवेदना को पनपने का भी अवसर मिले।

शिक्षा नीति के मूल प्रारूप में कस्तूरीरंगन समिति ने गैर-हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी की शिक्षा को अनिवार्य बनाने का सुझाव दिया था। इस मुद्दे पर तमिलनाडु में द्रमुक सहित कई अन्य दलों ने विरोध किया तो  सरकार ने तुरंत इस अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। सरकार द्वारा जारी मसौदे में कहा गया है कि जो छात्र पढ़ाई जाने वाली तीन भाषाओं में से एक या अधिक भाषा बदलना चाहते हैं, वे ग्रेड 6 या 7 में ऐसा कर सकते हैं। वैसे गहरायी से देखें तो देश के सभी क्षेत्रों में हिंदी का उपयोग बढ़ रहा है, लेकिन तमिलनाडु में हिंदी को लेकर खास बदलाव नहीं है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह ऐसे राज्यों में भी हिंदी को बढ़ावा दे ताकि लोग उसे जान-समझ सकें। साथ ही उत्तर भारत के राज्यों में भी दक्षिण की भाषाएं पढ़ाई जाएं, ताकि वहां के लोग भी दक्षिण की भाषाओं को सीख-समझ सकें। जो लोग त्रिभाषा नीति का विरोध कर रहे हैं उन्हें समझना चाहिए कि यदि पूरे देश में भारतीय भाषाओं को सीखने और सिखाने का ईमानदार सिलसिला शुरू होता है तो भारतीय भाषाओं के ही लाखों शिक्षकों की जरूरत पड़ेगी। बात सिर्फ लाखों लोगों को रोजगार मिलने भर की नहीं है, भाषा सीखने के बाद एकात्मता का जो भाव पुष्ट होगा उसका आंकलन नहीं किया जा सकता।

भारत आज दुनिया की तीव्र गति से उभरती अर्थव्यवस्था है। हमारे यहां सबसे अधिक युवा आबादी है। पिछले पांच साल में भारत का पूरी दुनिया में सम्मान बढ़ा है। किन्तु उसके बावजूद हमारी शिक्षा की दशा दयनीय होती जा रही है। अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर हमारे शिक्षण संस्थान अपनी जगह बनाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। इसका प्रमुख कारण है कि हमारी शिक्षाव्यवस्था का प्रारूप ही बेढंगा है। देशीय सोच की जगह विदेशी सोच, अपने इतिहास की जगह अन्य देशों का इतिहास और संस्कृति की उधेड़बुन में देश की व्यवस्था अटकी रही है। स्कूल और उच्च शिक्षा के बीच में कोई तारतम्य नहीं रहा। भूमंडलीकरण ने इसे और पेचीदा बना दिया। लाखों लोग ऐसी डिग्री लेकर बाजार में हैं जिन्हें स्कूली शिक्षा की जानकारी भी समुचित रूप से नहीं होती। बाजार जनित रोजगार ऐसे लोगों को लेने से परहेज करता है। उच्च शिक्षा की तो यह हालत है कि इंजीनियर और प्रबंधन की पढ़ाई करने वाले 90 प्रतिशत से अधिक युवा काम करने योग्य नहीं हैं। इसलिए समस्या की जड़ हमारी व्यवस्था में है। जब तक उसे दुरुस्त नहीं करेंगे, भारत की पहचान एक समृद्ध देश के रूप में नहीं बन पाएगी। इस नई शिक्षा नीति को उसे दुरुस्त करने का एक सार्थक प्रयास माना जा सकता है।

कस्तूरीरंगन समिति ने कई अहम सुझाव दिये हैं। एक सुझाव मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय करना है। दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन शिक्षा राष्ट्रीय आयोग बनाने का है। समवर्ती सूची में शिक्षा को रखने के कारण कई विसंगतियां राज्य स्तर पर दिखाई देती हैं। नियमों का पालन राष्ट्र स्तर पर नहीं हो पाता और न ही एकरूपता बनी रहती है। बच्चों के स्थान परिवर्तन की वजह से उनका भविष्य अधर में लटक जाता है। उम्मीद है नई व्यवस्था में इन कमियों को दूर करने की कोशिश होगी। हमारी शिक्षा व्यवस्था की प्रमुख समस्या यह रही है कि यह भारतीय जड़ों से कटी हुई है। राधाकृष्णन और कोठारी आयोगों ने भी शिक्षा को उपनिवेशिक मानसिकता से हटाने की बात की थी, लेकिन उस पर अमल नहीं किया गया। यहां तक कि शिक्षा व्यवस्था में उच्च पदों पर उसी को बैठाया जाता है, जिसकी डिग्री विदेशों से अर्जित की गई हो। परन्तु शिक्षा नीति के इस प्रारूप में भारतीयता की झलक है। देश को मजबूत और संयोजित करने की एक परिकल्पना है। अगर यह देश मजबूत करना है तो हुनर की पहचान भी शिक्षा के द्वारा होनी चाहिए। उम्मीद है कि यदि शिक्षा नीति बदलती है तो देश का स्वरूप भी बदलेगा। नयी शिक्षा नीति को समग्रता से लागू करने से पहले सरकार ने 30 जून तक देशवासियों से सुझाव मांगे हैं। उसके बाद व्यावहारिक सुझावों को सम्मिलित करते हुए सरकार इसे लागू करेगी।

हमारी शिक्षाव्यवस्था के साथ एक और समस्या यह है कि इसकी व्यवस्था शिक्षाविद नहीं बल्कि ऐसे नौकरशाह दिखते हैं जिन्हें शिक्षा के बारे में कुछ नहीं पता। यदि हमारी शिक्षा व्यवस्था के संचालन में शिक्षकों की भागीदारी बढ़े तो उससे अच्छे परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। दूसरे, शिक्षा के प्रबंधन हेतु ऐसा एक स्वायत्त आयोग होना चाहिए जो चुनाव आयोग अथवा उच्चतम न्यायालय की भांति पूरी तरह स्वायत्त हो और सरकार का उसमें अनावश्यक दखल न हो। इसका सबसे बड़ा लाभ होगा कि सरकारें बदलने के बाद शिक्षाव्यवस्था को पटरी से उतारने के प्रयास सफल नहीं होंगे। एक और बात जो इस शिक्षा नीति में कही गयी यह है कि नौवीं से बारहवीं कक्षा तक कभी भी पढ़ाई छोडऩे वाला विद्यार्थी किसी न किसी कौशल अथवा हुनर के साथ पढ़ाई छोड़ेगा। इससे शिक्षा व्यावहारिक जीवन से जुड़ सकेगी।

नई शिक्षा नीति की प्रमुख बातें

–     नयी शिक्षा नीति का मसौदा सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व वाली 11 सदस्यीय समिति द्वारा करीब दो साल में तैयार किया गया है।

–     नयी शिक्षानीति में भारत केन्द्रत शिक्षा पर जोर देते हुए सभी बच्चों को उच्च गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने का सुझाव है।

–     शिक्षानीति के मसौदे को चार हिस्सों में बांटा गया है-स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा, अतिरिक्त फोकस एरिया जैसे कि तकनीक, रोजगार, प्रौढ़ एवं भाषायी शिक्षा तथा राष्ट्रीय शिक्षा आयोग।

–     शिक्षा का अधिकार कानून में अभी तक प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्तर की शिक्षा को ही शामिल किया गया है जो 6 से 14 वर्ष तक की उम्र वाले बच्चों को शिक्षा का अधिकार कानून के दायरे में लाने की बात करती है। चूंकि बच्चों के मस्तिष्क के विकास के लिए पूर्व-प्राथमिक शिक्षा वाली उम्र बेहद महत्वपूर्ण है, इसलिए नई शिक्षा नीति के मसौदे में इसका दायरा पूर्व-प्राथमिक शिक्षा से लेकर 12वीं तक की पढ़ाई के लिए लागू करने का प्रस्ताव है। नर्सरी से 12वीं तक की पढ़ाई को 5+3+3+4 के फॉर्मूले के तहत चार चरणों में बांटने की बात कही गई है। इस संदर्भ में सुझाव दिया गया है कि पूर्व-प्राथमिक शाला को विद्यालय के कैंपस में ही स्थापित किया जाना चाहिए

–     राष्ट्रीय शिक्षा आयोग बनाने के सुझाव के साथ निजी स्कूलों के साथ ‘पब्लिक’ जैसा शब्द इस्तेमाल बंद करने का सुझाव है।

–     पहली व दूसरी कक्षा में भाषा व गणित पर जोर देने की बात भी है। इसके साथ ही चौथी व पांचवीं के बच्चों के साथ लेखन कौशल पर काम करने पर भी ध्यान देने की बात कही गई है। भाषा सप्ताह, गणित सप्ताह व भाषा मेला व गणित मेला जैसे आयोजन करने की बात भी प्रारूप में है।

–     पुस्तकालयों को जीवंत बनाने व पठन-पाठन की गतिविधियों को कराने पर ध्यान देने की बात कही गई है। इसमें कहानी सुनाने, रंगमंच, समूह में पठन, लेखन व बच्चों के बनाये चित्रों व लिखी हुई सामग्री का ‘डिसप्ले’ करने पर ध्यान देने की बात कही गई है। स्कूल के साथ-साथ सार्वजनिक पुस्तकालयों को विस्तार देने व पढऩे और संवाद करने की संस्कृति को प्रोत्साहित करने की बात है।

–     आवासीय विद्यालयों में बालिकाओं के लिए नवोदय जैसी व्यवस्था करने का भी सुझाव है। लड़कियों की शिक्षा जारी रहे इसके लिए उनको भावनात्मक रूप से सुरक्षित वातावरण देने का सुझाव दिया गया है। कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय का विस्तार 12वीं तक करने का सुझाव है।

–     सबसे बड़ी बात है कि ‘रेमेडियल’ शिक्षण को मुख्य धारा में शामिल करने का सुझाव दिया गया है। इसके तहत 10 सालों की परियोजना का प्रस्ताव है। इसमें स्थानीय महिलाओं व स्वयंसेवकों की भागीदारी हासिल करने की बात है।

–     शिक्षकों की सहायता के लिए तकनीक के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने की बात भी है। इसके लिए कंप्यूटर, लैपटॉप व फोन इत्यादि के जरिए विभिन्न ऐप का इस्तेमाल करके शिक्षण को रोचक बनाने की बात कही गई है।

–     शिक्षाक्रम में विषयवस्तु का बोझ कम करने की बात भी कही गई है ताकि मूलभूत अधिगम और तार्किक चिंतन को समृद्ध किया जा सके।

–     तीन भाषाओं के फॉर्मूले को नई शिक्षा नीति के मसौदे में प्रमुखता से शामिल किया गया है। शिक्षा में बहुभाषिकता को प्राथमिकता के साथ शामिल करने और ऐसे भाषा शिक्षकों की उपलब्धता को महत्व दिया  गया है जो बच्चों के घर की भाषा समझते हों।

–     एक राष्ट्रीय ट्यूटर कार्यक्रम भी शुरू करने का प्रस्ताव है ताकि देश के सभी क्षेत्रों में बच्चों को उच्च गुणवत्तायुक्त शिक्षा मिले।

–     स्पेशल इकोनॉमिक जोन की भांति देश के पिछड़े क्षेत्रों में स्पेशल एजुकेशन जोन विकसित किये जाएंगे।

–     सम्पूर्ण शिक्षानीति को समग्रता से लागू करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गठन का प्रस्ताव है।

उच्च शिक्षा नीति में पुनर्गठन का प्रस्ताव

–     शिक्षा के अधिकार अधिनियम के दायरे को विस्तृत करने का प्रयास किया गया है और साथ ही स्नातक पाठ्यक्रमों को भी संशोधित किया गया है।

–     लिबरल आर्ट्स साइंस एजुकेशन के चार वर्षीय पाठ्यक्रम को फिर से शुरू करने तथा कई पाठ्यक्रमों को हटाने के विकल्प के साथ-साथ एम. फिल. प्रोग्राम को रद्द करने का भी प्रस्ताव है। पी.एच.डी. करने के लिये मास्टर डिग्री या चार साल की स्नातक डिग्री को अनिवार्य करने का प्रस्ताव है।

–     नए पाठ्यक्रम में 3 से 18 वर्ष तक के बच्चों को शामिल करने के लिये 5+3+3+4 डिजाइन (आयु वर्ग 3-8 वर्ष, 8-11 वर्ष, 11-14 वर्ष और 14-18 वर्ष) तैयार किया गया है जिसमें प्रारंभिक शिक्षा से लेकर स्कूली पाठ्यक्रम तक शिक्षण शास्त्र के पुनर्गठन के भाग के रूप में समावेशन के लिये नीति तैयार की गई है।

–     इसमें निजी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के छात्रों के लिये अनिवार्य 25 प्रतिशत आरक्षण का दुरुपयोग किये जाने की भी समीक्षा की गयी है।

–     विदेशों में भारतीय संस्थानों की संख्या में वृद्धि करने के साथ-साथ दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखाएं स्थापित करने की अनुमति देना उच्च शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीयकरण करना है।

–     स्कूली शिक्षा के लिये एक एकल स्वतंत्र नियामक ‘राज्य विद्यालय नियामक प्राधिकरण’ और उच्च शिक्षा के लिये राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामक प्राधिकरण स्थापित करने का प्रस्ताव है।

–     निजी स्कूल अपनी फीस निर्धारित करने के लिये स्वतंत्र हैं, लेकिन वे मनमाने तरीके से स्कूल की फीस में वृद्धि नहीं कर सकते। ‘राज्य विद्यालय नियामक प्राधिकरण’ द्वारा प्रत्येक तीन साल की अवधि के लिये इसका निर्धारण किया जाएगा।

–     स्कूली पाठ्यक्रम में गणित, खगोल विज्ञान, दर्शन, चिकित्सा के लिये प्राचीन भारतीय ज्ञान प्रणालियों के योगदान को सुनिश्चित किया जाएगा।

–     प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक नए शीर्ष निकाय ‘राष्ट्रीय शिक्षा आयोग’ की स्थापना की जाएगी जो सतत् आधार पर शिक्षा के विकास, कार्यान्वयन, मूल्यांकन और शिक्षा के उपयुक्त दृष्टिकोण को लागू करने के लिये उत्तरदायी होगा।

–     सभी उच्च शिक्षा संस्थानों को तीन श्रेणियों में पुनर्गठित किया गया है- टाइप 1 (विश्व स्तरीय अनुसंधान और उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षण पर ध्यान), टाइप 2 (अनुसंधान में महत्त्वपूर्ण योगदान के साथ विषयों में उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षण पर ध्यान) और टाइप 3 (उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षण स्नातक शिक्षा पर ध्यान)। इसका संचालन दो मिशनों के तहत किया जाएगा – मिशन नालंदा और मिशन तक्षशिला।

क्या है त्रिभाषा नीति?

त्रिभाषा नीति पर चर्चा आजादी के तुरंत बाद गठित राधाकृष्णन आयोग की रिपोर्ट से ही शुरू हो गई थी जिसमें तीन भाषाओं में पढ़ाई की व्यवस्था का सुझाव दिया गया था। आयोग का कहना था कि माध्यमिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा, संघीय भाषा और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा दी जाए। इसके बाद 1955 में डॉ लक्ष्मणस्वामी मुदालियर के नेतृत्व में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग ने प्रदेश की मातृभाषा के साथ हिंदी के अध्ययन का द्विभाषा सूत्र देते हुए अंग्रेजी व संस्कृत को वैकल्पिक बनाने का प्रस्ताव रखा। फिर वर्ष 1966 में दौलत सिंह कोठारी ने अपनी रिपोर्ट में त्रिभाषा नीति का सुझाव दिया।

वैसे गहरायी से अध्ययन करें तो ध्यान में आता है कि मुदालियर आयोग को छोड़कर अधिकतर शिक्षा व भाषा आयोगों ने भाषा-समस्या के समाधान हेतु प्रस्तावित त्रिभाषा नीति में अंग्रेजी को अधिक महत्व देते हुए हिंदी का पक्ष कमजोर ही किया। कोठारी आयोग का प्रस्ताव भी ऐसा ही था, जिसमें कक्षा आठ से 10 तक छात्रों के लिए तीन भाषाओं (स्थानीय मातृभाषा, हिंदी और अंग्रेजी) के अध्ययन की बात कही गई। वहीं विश्वविद्यालयी स्तर पर अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम रखने का प्रस्ताव किया गया था। कोठारी आयोग की सिफारिशों के आधार पर ही वर्ष 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई, जिसमें त्रिभाषा फार्मूला शामिल था। तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री अन्नादुरई ने इस त्रिभाषा नीति को हिंदी थोपने की कोशिश करार देते हुए इसका प्रचंड विरोध किया। बाद में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कई बार परिवर्तन हुए, लेकिन तमिलनाडु में अंग्रेजी और तमिल की द्विभाषा नीति ही शिक्षा का माध्यम बनी रही।

दक्षिण में हिंदी विरोध स्वतंत्रता से पहले प्रारंभ हो गया था। वर्ष 1937 में हुए प्रांतीय चुनावों में मद्रास प्रेसिडेंसी में कांग्रेस को बहुमत मिला था और शासन की बागडोर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के हाथ आई, जिन्होंने राज्य में हिंदी की शिक्षा को बढ़ावा देने को लेकर अपने इरादे जाहिर कर दिए। अप्रैल 1938 में मद्रास प्रेसिडेंसी के 125 सेकेंडरी स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य भाषा के तौर पर लागू कर दिया गया। तमिलों में इस निर्णय के प्रति कड़ी प्रतिक्रिया दिखी और जल्द ही इस विरोध ने एक जनांदोलन का रूप ले लिया। पेरियार और अन्नादुरई ने इस आंदोलन को अपनी राजनीतिक पहचान स्थापित करने का उपकरण बना लिया। यह आंदोलन लगभग दो वर्ष तक चला। वर्ष 1939 में राजाजी की सरकार ने त्यागपत्र दे दिया और फिर अंग्रेज हुकूमत ने सरकार के फैसले को वापस लेते हुए हिंदी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। तब यह आंदोलन रूक जरूर गया, मगर यहां से राज्य में हिंदी विरोधी राजनीति का जो बीजारोपण हुआ, वो आगे फलता-फूलता ही गया। आजादी के बाद भी हिंदी विरोध की राजनीति की आंच में राज्य को जलना पड़ा। वहीं 1963 में राजभाषा विधेयक के पारित होने के बाद भी हिंसक रुख लेकर यह आंदोलन शुरू हो गया। 1970 के दशक का पूर्वार्ध इस लिहाज से उथल-पुथल भरा रहा। वर्ष 1967 में इस हिंदी विरोधी आंदोलन पर सवार होकर डीएमके तमिलनाडु की सत्ता हासिल करने में कामयाब हो गई। इसी के साथ हिंदी विरोध दक्षिण, खासकर तमिलनाडु की राजनीति का एक आवश्यक उपकरण बन गया जो आज भी यथावत कायम है। आज भी वहां के नेताओं को हिंदी विरोध में अपने लिए राजनीतिक संभावनाएं दिखाई देती हैं जिस कारण वे तथ्य और यथार्थ से परे आंख बंद करके हिंदी संबंधी किसी भी बात का विरोध करने लगते हैं। यही कारण है कि अभी त्रिभाषा नीति की चर्चा आते ही हिंदी थोपने की बात कहते हुए राज्य से विरोधी आवाजें उठने लगीं।

वैसे आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक आदि दक्षिणी राज्यों में काफी हद तक हिंदी की मौजूदगी है। वहां के स्थानीय लोग हिंदी बोलते दिख जाते हैं। उन राज्यों में कम ही सही, मगर लोग हिंदी सीख रहे हैं। लेकिन इसके उलट हिंदीभाषी राज्यों में तमिल-तेलुगू जैसी भाषाओं को सीखने-सिखाने के प्रति कोई उत्साह नहीं दिखाई देता। हालांकि एक पक्ष यह भी है कि हिंदी किसी राज्य-विशेष की भाषा नहीं है जो उसको अपनाने के बदले कोई अमुक राज्य से अपनी क्षेत्रीय भाषा को सीखने की उम्मीद करे, लेकिन फिर भी हिंदीभाषी राज्यों को दक्षिण भारतीय भाषाओं को सीखने के प्रति गंभीर होना चाहिए। ऐसा करने से जो अविश्वास की खाई उत्तर और दक्षिण के बीच राजनीति ने पैदा की है, उसे पाटना कुछ आसान होगा। दक्षिण भारतीयों को एक बार यह समझ में आ गया कि हिंदी से उनकी मातृभाषा को कोई खतरा नहीं है, तो वे इसे स्वीकारने में कभी पीछे नहीं हटेंगे। मगर उन्हें ये तब तक समझ नहीं आएगा, जब तक हिंदी वहां पहुंचेगी नहीं।

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कस्तूरीरंगन कमिटी के प्रस्ताव क्रांतिकारी

अंतत: इसरो के पूर्व अध्यक्ष के कस्तूरीरंगन जिनको नई शिक्षा नीति का मसौदा बनाने का काम मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में दिया था,ने अपनी संस्तुतियों को नए मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ रमेश पोखरियाल निशंक को सौप दी हैं। इसमें पूर्व में बनी सुब्रमण्यम कमेटी की संस्तुतियों को भी शामिल किया गया है। डायलॉग इंडिया ने लगातार इन दोनों समितियों से संपर्क व संवाद बनाए रखा था। खासे क्रांतिकारी सुझावों को लिए ये संस्तुतिया अगर लागू हो जाती है तो भारत के भारतीयकरण व दूरगामी परिवर्तनों की श्रृंखला प्रारंभ हो जाएगी। चूंकि प्रस्ताव खासे क्रांतिकारी हैं तो लागू होने से पहले बड़े विवाद भी सामने आएंगे ही।

संपादक

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