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कुपोषण से हृदय रोग तक लड़ने में मदद कर सकते हैं गांधी के सिद्धांत

पैदल चलना, शारीरिक गतिविधियां, ताजा सब्जियों व फलों का सेवन, शर्करा, नमक तथा वसा वाले खाद्य पदार्थों का कम सेवन, तंबाकू तथा शराब से दूरी और पर्यावरणीय एवं व्यक्तिगत स्वच्छता बनाए रखना। कुछ लोगों को ये बातें विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी गैर-संचारी एवं संचारी रोगों से बचाव के लिए जारी सलाह लग सकती हैं। पर, अच्छे स्वास्थ्य से जुड़े ये कुछ ऐसे सिद्धांत हैं, जिन पर एक सदी पहले खुद महात्मा गांधी अमल करते थे और लोगों के बीच इनका प्रचार भी करते थे।

इनमें से कई विचारों को आज वैज्ञानिक साक्ष्यों का समर्थन प्राप्त है और पोषण विशेषज्ञ भी उन्हें प्रासंगिक मानते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि कुपोषण से लेकर हृदय रोगों जैसी स्वास्थ्य समस्याओं से लड़ने में ये सिद्धांत मदद कर सकते हैं।

जून 1945 में बिड़ला हाउस, मुंबई में वजन तोलते हुए महात्मा गांधी (फोटो : आईजेएमआर)

गांधी का मानना था कि अत्यधिक भोजन, बार-बार खाना और स्टार्च या शक्कर का अधिक सेवन सेहत के लिए ठीक नहीं है। उन्होंने मिठाईयों से बचने और कम मात्रा में गुड़ का सेवन करने का भी सुझाव दिया। वह चावल को पॉलिश करने या गेहूं के आटे को छानकर उपयोग करने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने लिखा है कि “आटे को छानने से बचना चाहिए। ऐसा करने से उसमें मौजूद चोकर अलग हो जाता है, जो लवणों और विटामिन का एक समृद्ध स्रोत है। ये दोनों तत्व पोषण के दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण हैं।”

वर्ष 1940 में सेवाग्राम आश्रम में कुष्ठ रोगी परचुरे शास्त्री से मिलते हुए महात्मा गांधी (फोटो : आईजेएमआर)

हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एनआईएन) के पोषण विशेषज्ञ सुब्बाराव एम. गवरवरपु और आर. हेमलता ने बताया कि “ये तथ्य पोषण पर एनआईएन की वर्तमान सिफारिशों के अनुरूप हैं। गांधीजी आहार में वसा / तेल को शामिल करने की आवश्यकता को पहचान लिया था। आज भी, एनआईएन द्वारा विकसित आहार संबंधी दिशा निर्देश बताते हैं कि कुल दैनिक कैलोरी का लगभग 10 प्रतिशत वसा से मिलना चाहिए।” इससे संबंधित अध्ययन इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में प्रकाशित किया गया है।

इस अध्ययन में कहा गया है कि “जीवन शैली से जुड़े रोगों के बढ़ने पीछे गलत खानपान और शारीरिक गतिविधियों का न होना प्रमुख है। इसके विपरीत, ‘स्थानीय रूप से उगाए गए’, ‘कम तेल और नमक’, ‘कम शर्करा,’  ‘फार्म फ्रेश’, ‘कम वसा’ जैसे शब्द प्रचलित हो रहे हैं। यह सही कि पोषण विज्ञान ताजा सब्जियों और फलों के गुणों एवं दही की प्रोबायोटिक क्षमता बढ़ाने और चीनी तथा परिष्कृत आटे के दुष्प्रभाव को कम कर सकता है। पर, पैदल चलना, नियमित व्यायाम और स्वच्छता संबंधी आदतें भी महत्वपूर्ण हैं। ये कुछ ऐसे सिद्धांत थे, जिन पर गांधी अमल करते थे।

वैज्ञानिकों के साथ अपनी बातचीत के जरिये गांधी स्वास्थ्य संबंधी ज्ञान का आदान-प्रदान करते थे और उन्होंने ब्रिटिशकालीन भारत में चिकित्सा अनुसंधान को भी कुछ हद तक प्रभावित किया। एनआईएन के पहले निदेशक रॉबर्ट मैककारिसन ने भोजन और आहार विज्ञान पर गांधी के साथ लंबी बातचीत की, खासकर दूध के उपयोग पर क्योंकि गांधी ने दूध नहीं पीने का संकल्प लिया था। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के महानिदेशक डॉ बलराम भार्गव ने कहा कि “यह संबंध पोषण के क्षेत्र में मजबूती से आगे बढ़ने और  अनुसंधान को बढ़ावा देने में मददगार साबित हुआ है।”

संचारी रोग के क्षेत्र में, गांधी ने मच्छरों के प्रजनन को रोकने के उपाय के रूप में मच्छर प्रजनन स्थलों को खत्म करने और पानी के कंटेनरों की नियमित निगरानी के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने ऐसे तरीकों को कुनैन की गोलियों के वितरण से अधिक प्रभावी माना। गांधी ने कुष्ठ और तपेदिक जैसे रोगों के उन्मूलन का प्रयास किया, जो सामाजिक कलंक और अस्पृश्यता जैसी बुराइयों के लिए जाने जाते थे।

गांधी अच्छी फिटनेस के पक्षधर थे। वह लगभग 40 वर्षों तक हर दिन लगभग 18 किलोमीटर पैदल चलते थे। वर्ष 1913 से 1948 तक के अपने राजनीतिक अभियानों के दौरान, उन्होंने कुल 79,000 किलोमीटर दूरी तय की, जो उनके स्वास्थ्य रिकॉर्ड के अनुसार दो बार पृथ्वी का चक्कर लगाने के बराबर है।

इसके बावजूद गांधी को फेफड़े के आवरण में शोथ (1914), मलेरिया (1925, 1936 एवं 1944), इन्फ्लुएंजा (1945) जैसी बीमारियों से संघर्ष करना पड़ा। बवासीर (1919) और गंभीर अपेंडिसाइटिस (1924) के लिए उनका ऑपरेशन किया गया था। लेकिन हर बार वह बीमारियों से निजात पाने में सफल रहे, जिसका मुख्य कारण उनकी अनुशासित जीवन शैली थी, जिसमें शारीरिक फिटनेस और संतुलित आहार मुख्य रूप से शामिल था।

डॉ भार्गव ने  बताया कि “गांधीजी एलोपैथिक डॉक्टरों, वैद्यों और हकीमों के खिलाफ नहीं थे, लेकिन उनकी प्राथमिकता में प्राकृतिक चिकित्सा प्रमुखता से शामिल थी। वह कहते थे कि प्राकृतिक चिकित्सा उनका शौक है। उन्होंने तर्क दिया कि यदि बीमारी प्रकृति के नियम को तोड़ने का परिणाम थी, तो प्रकृति इसे सुधारने भी सकती है। उन्होंने 50 से अधिक वर्षों तक प्राकृतिक चिकित्सा का अभ्यास किया। वह किसी प्रणाली के पक्षधर नहीं थे, पर बीमारियों की रोकथाम और उपचार की शक्ति में उन्हें विश्वास था।” (इंडिया साइंस वायर)

दिनेश सी. शर्मा

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