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क्यों न मिले किसानों को उचित मूल्य?

अन्नदाता यानी किसान। आखिर आजकल इस देश का ये अन्नदाता सड़कों पर क्यों हैं? क्यों इस देश के अन्नदाता को आंदोलन करने की नौबत आ गई? क्यों इस देश के अन्नदाता दशकों से आत्महत्या करने पर मजबूर हैं? इस ‘क्योंÓ के कई रंग हैं। देश के विभिन्न भागों में जिस तरह से किसान सड़कों पर उतर रहे हैं, उसके बाद अब सरकारों से लेकर देश के आम नागरिकों को भी इनके मसलों पर गौर करना होगा।
ये आग कहां से उठी? इसके कई जवाब और कई कारण हो सकते हैं। पर क्यों उठी, मोटे तौर पर इसका कारण इन किसानों को उनकी फसल का लागत भी नहीं मिलना है। चाहे महाराष्ट्र हो या फिर मध्य प्रदेश या फिर उत्तर प्रदेश, सब की कहानी कमोबेश एक जैसी ही है। आज भी इस देश में 70 प्रतिशत से ऊपर की आबादी के आय का मुख्य स्रोत कृषि ही है। देश की करीब 70 प्रतिशत जनता अपनी आजीविका के लिए तो इस पर आश्रित है ही, बाकी 30 प्रतिशत जनता का पेट भी ये 70 प्रतिशत किसान भरते हैं। इसके बावजूद हमारे किसान उपेक्षा का शिकार है। इनमें से ज्यादातर आर्थिक तंगी की चपेट में हैं। आज का युवा पढ़-लिखकर खेती नहीं करना चाहता, बल्कि; वो नौकरीपेशा बनना चाहता है।क्या कृषि प्रधान इस देश के लिए यह प्रवृति सही है? जवाब तो बिलकुल नही में ही मिलता है। फिर भी, इन अन्नदाताओं की समस्यायें तो ज्यों-की-त्यों खड़ी है।
इस बार के किसान आंदोलन की शुरूआत भले ही महाराष्ट्र से हुई हो, पर उसकी असली तपिश मध्य प्रदेश की धरती पर ही देखने को मिल रही है।
क्या हैं किसानों की मांगे ?

इन किसानों की मांगें इस बार सिर्फ कर्ज माफी ही नहीं बल्कि भविष्य पर भी नजर के साथ है। और हो भी क्यों नहीं, आखिर इन्हें भी तो हक के साथ गारंटी मिलनी ही चाहिए। इनकी मांगों में उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत ज्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य मिले, 60 साल और उससे ज्यादा उम्र के किसानों के लिए पेंशन स्कीम हो, बिना ब्याज के लोन मिले, दूध का रेट ज्यादा किया जाय और साथ ही स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू हों। इसके अलावा किसानों पर देश भर में दायर मुकदमे वापस लिए जाएं।
चपरासी से भी बद्तर किसान

अब जरा सरकार के आंकड़ों ही गौर कर लें तो दयनीय स्थिति की तस्वीर कुछ और स्पष्ट होती दिखती है। खेतिहर परिवारों की आमदनी और खर्च का एक हिसाब नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट में भी दर्ज है। 2014 के दिसंबर महीने में आई इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के कुल 9 करोड़ किसान परिवारों में से तकरीबन सवा छह करोड़ किसान परिवारों के पास 1 हेक्टेयर (ढाई एकड़) या इससे कम ही जोत लायक जमीन है। इन परिवारों का कुल मासिक खर्च उनके मासिक उपभोग खर्च से ज्यादा है। जैसे कि देश में 1 हेक्टेयर तक की जोत वाले किसानों को परिवार के भरण पोषण के लिए खेती से महीने भर में कुल 2145 रुपये की ही कमाई हो पाती है। खेतिहर मजदूरी से ऐसे परिवार को महीने में 2011 रुपये की आमदनी होती है, पशुधन से 629 रुपये की और गैर-खेतिहर काम से ऐसा परिवार महीने के लगभग 462 रुपये जुटा लेता है। खेती, मेहनत-मजदूरी और पशुधन से हुई इस पूरी कमाई को एक साथ जोड़ दें तो कुल रकम 5247 रुपये की आती है। यानी वामुश्किल सभी स्रोतों से हासिल कुल 5247 रुपये की आम सीमांत कृषक परिवारों की को पति है, जबकि महीने का न्यूनतम खर्च 6020 रुपये है। दूसरी तरफ, सरकारी दफ्तर में काम करने वाला सबसे अदना कर्मचारी भी महीने में 16 हजार रुपये से ऊपर की तनख्वाह पाता है। मकान, बिजली, पानी, मेडिकल, फण्ड, पेंशन अलग से। मतलब बड़ा साफ है कि ज्यादातर अन्नदाताओं की माली हालत या औकात सरकारी दफ्तर के चपरासी जितनी भी नहीं है। क्या इस देश के अन्नदाता की ऐसी ही स्थिति होनी चाहिए? जवाब आप सब जानते ही हैं।
मूत्र पीते किसान

पिछले कुछ समय पहले राजधानी के जंतर-मंतर पर तमिलनाडु के सूखा पीडि़त किसानों का 40 दिनों तक धरना चला। मैंने कभी इस तरह का प्रदर्शन नहीं देखा या सुना। ये कभी नंगे होकर, तो कभी मूत्र पीकर कर रहे थे प्रदर्शन। सरकार का ध्यान अपनी दुर्दशा की ओर दिलाने के लिए ये किसान अलग-अलग तरीके से विरोध कर रहे थे। कभी वो अपनी आधी मूंछ कटवा रहे थे तो कभी सिर मुंडवा रहे थे।कभी अपने मुंह में सांप लेकर तो कभी चूहा लेकर भी किसानों ने प्रदर्शन किया था।
नोटबंदी के मारे

हालांकि विमुद्रीकरण का लक्ष्य देश से काले धन पर अंकुश लगाना था, पर इसके लागू होने के बाद किसानों के हालात और भी खराब हुए हैं। बाज़ार से कैश के गायब होने की वजह से जहां 2015 में अरहर दाल की कीमत 110 रूपए थी, 2016 में घटकर 40 रूपये प्रति किलो पर पहुंच गई। मंडियों में फल और सब्जियों के दामों में भी भारी गिरावट देखने को मिली। देश के कई हिस्सों में किसानों ने तो अपने फसल को दाम न मिलने पर उत्पाद को मंडी तक पहुंचाया ही नहीं। कहीं-कहीं किसानों को टमाटर के भाव एक रूपये प्रति किलो और प्याज के भाव भी एक-दो रूपये प्रति किलो तक ही मिल रहे थे।ऐसे में किसानों को तो उनके लागत का भी मूल्य नहीं मिल पा रहा था तो ये अन्नदाता करते क्या? फसलों को नष्ट ना करते तो फिर क्या करते। सरकारें कहती हैं कि वे किसानों के लिए बहुत कुछ कर रही हैं। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य में अच्छा खासा इजाफा किया है। फसल नष्ट होने पर किसानों को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत लाभ भी दिया जा रहा है, पर क्या इसे सही तरीके से लागू किया गया जिससे अन्नदाताओं की तस्वीर बेहतर होती? अगर ऐसा होता तो इस देश के किसानों को न तो आत्महत्या करने की जरूरत पड़ती, न ही ऋण माफी और युवा नौकरी के बजाय कृषि की ओर जाते, पर क्या ऐसा हुआ? कमी तो किसी स्तर पर है। उसे दूर किया जाना चाहिए। इसके लिए आंदोलनरत किसानों की मागों और बातों पर गौर करना होगा। एक बात मुझे हमेशा कष्ट देती है कि देश का आम नागरिक रोने लगता है कि अगर आलू या प्याज के दाम थोड़ से अधिक हो जाएं। पर वही शख्स उन आलू के चिप्स के पैकेट को दस गुना अधिक दाम पर ले लेता है, जब उसे कोई मल्टीनेशनल कंपनी बेचती है। तब वह मंहगाई का रोना नहीं रोता। आप जरा बाबा रामदेव की पंतजलि के एलोवेरा के ट्यूब दाम की तुलना किसी अन्य फ्रेंच या अमरीकी कंपनी के दाम से कर लें। पता चल जाएगा जन्नत की हकीकत। यदि पतंजलि का 150 मि.ली. का ट्यूब पचासी रूपये में मिल रहा है तो मल्टीनेशनल ब्रांड के 100 मि.ली. का ट्यूब 1100 में धड्ले से बिक रहा है। क्या कहेंगे इस मानसिकता को? हमें किसी बड़ी कंपनी को पैसा देते हुए तकलीफ नहीं होती। पर किसान को दो पैसे अधिक देते हुए हमें सारी महंगाई दिखाई देने लगती है।
जरा हम महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के किसानों के पास चलते हैं। इसी इलाके के यवतमाल जिले के डोनडा गांव के कुछ युवा किसानों से बात करने पर तस्वीर का दूसरा पहलू ज्ञात होता है। इस गांव के एक किसान ने नाम बताने पर कहा कि मेरा नाम तब आपको पता चलेगा जब मैं आत्महत्या कर लूंगा और सिर्फ मैं ही नहीं यहां बैठे दूसरे भी। मैं पूरी तरह से स्तब्ध रह गया पर किसी तरह हिम्मत जुटाकर कारण पूछ बैठा, जो बात सामने आई वो कुछ और ही बयां करती है। उन लोगों ने कहा, हम सब ग्रैजुएट हैं, जब हमने पढ़ाई पूरी कर ली तो हमें नौकरियां नहीं मिली, इनमें से कईयों ने तो नौकरी पाने के लिए अपनी जमीन तक औने पौने दम में बेच दी। तब हमने निर्णय लिया कि अपन गांव जाकर खेती-बारी करेंगे। हमारे पास जो भी जमीन थी उस पर खेती बारी करने लगे, इतने से हमारा पेट नहीं भरता। और हम सब युवा करीब 30-32 की उम्र के हैं, हमारी शादी भी नहीं हो रही क्योंकि कोई भी किसान से अपनी बेटी की शादी ही नहीं करना चाहता। तो हमारे जीवन में फिर बचा ही क्या है?ऐसे में हम जैसे युवा हारकर आत्महत्या नहीं करेंगे तो क्या करेंगे। ऐसी तस्वीर सिर्फ महाराष्ट्र की ही नहीं है, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार सहित बाकी राज्यों में भी तस्वीर कमोबेश ऐसी ही है।
जिस देश में अन्नदाता का चेहरा ऐसा होगा वह देश विकास की दौड़ में आगे कैसे बढ़ेगा? महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश ने पहले इन अन्नदाताओं की लाचारगी देखी है, आज उनका आक्रोश देख रही है। जरा नीचे का चार्ट देखें और खुद ही देख लें कि भारत के मुकाबले अम्रीका और सिंगापूर में कृषि उत्पादों की कीमत बाज़ार में क्या है?
सामान प्रति कि0 भारत सिंगापुर अमेरिका
चावल 40 72 95
आटा 25 99 67
चिकेन 200 340 210
मटन 400 651 560
दूध (प्रति ली) 40 120 55
अंडा (प्रति पीस) 5 12 8
यदि हम बिचौलियों की दलाली और सूद के भर से ग्रस्त किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य भर बाज़ार में दिलवा सकें, तो आधी समस्या का हल हो जायेगा। आज किसान अपने लिए कमा कहाँ रहा है? वह तो कमा रहा है, खाद कंपनियों, कीटनाशक दवा बनाने वाली कंपनियों, ट्रैक्टर कंपनियों और बैंकों के लिए। उसके पास बचता क्या है? जबतक हम कृषि नीति में आमूलचूल परिवर्तन कर, मवेशी आधारित, तालाब और मछलीपालन आधारित कृषि का माडल आपना कर कृषि को आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं बनायेंगे, कृषि न तो किसानों के लिए लाभदायी होगी, न देश खुशहाल होगा।
(लेखक राज्य सभा सदस्य एवं हिन्दुस्थान
बहुभाषीय संवाद सेवा समिति के अध्यक्ष हैं)

मध्य प्रदेश में किसान आन्दोलन या साजिश
मध्य प्रदेश में किसान आन्दोलन से कुछ नए तथ्य भी उभर कर आए हैं जो किसी बड़े षड्यन्त्र की तरफ इशारा करते हैं। इस समय सोशल मीडिया में कई ऐसे वीडियो अपलोड किए गए हैं जो यह साबित करते हैं कि ये किसान आंदोलन था ही नहीं। कुछ अराजक तत्वों द्वारा काँग्रेस के साथ मिलकर भड़काया हुआ था। जो किसान पुलिस की गोली से मरे हैं, वे किसान नहीं थे। मगर आखिर ऐसा क्या हुआ कि इतना बड़ा षड्यंत्र होता रहा और सरकार एकदम बेखबर रही, उसका एक ही कारण हो सकता है कि इतने वर्षों तक सत्ता का निर्बाध सुख भोग रहे शिवराज सिंह चौहान के राज में राज्य की इंटेलीजेंस और गुप्तचर व्यवस्था एकदम फेल रही। शिवराज मामाजी स्थिति को पहले तो कंट्रोल नहीं कर पाए और बाद में घबराहट में एक करोड़ के मुआवजे घोषित कर दिए। जो सबसे महत्वपूर्ण और खतरनाक पहलू उभर कर आया है वह यह है कि अफीम तस्करों ने इस आग को भड़काया था, ताकि बची हुई अफीम को राजस्थान के रास्ते गायब किया जाए। इन अफीम तस्करों में मुस्लिम और पाटीदार समाज के लोग भरपूर शामिल थे। मतलब अफीम तस्करी मुख्य था और यह भी अब सामने आने लगा है कि ट्रक-बस-दुकानें जलाने वालों की भीड़ में यही लोग शामिल थे। समय के साथ पर्दा उठ रहा है और एक और नया एंगल निकल कर आ रहा है कि पाटीदार और पोरवाल समाज के बीच वर्चस्व की भी लड़ाई का एक एंगल है। इस लड़ाई में मुस्लिमों ने फायदा उठा लिया और बची-खुची कसर काँग्रेस ने पूरी कर दी।
अब सरकार हर तरफ से फंसती नजऱ आ रही है। न्यायालय में पूछा जा रहा है कि जो मृतक किसान हैं, उनकी जाँच किए बिना एक करोड़ का मुआवजा कैसे घोषित कर दिया?? हर तरफ से बैकफुट पर आई राज्य सरकार आठ रूपए किलो पर प्याज खरीद रही है। ञ्चिवटलों से प्याज जमा हो रहा है और रखने की जगह नहीं है। खरीदार भी नहीं हैं। बारिश आने वाली है, प्याज सड़ जाएगा और पैसा बर्बाद हो रहा है वह अलग।
शायद मध्य प्रदेश में विपक्ष की निष्क्रियता भी इसमें एक मुख्य मुद्दा है। दूसरे शब्दों में कहें तो मप्र में विपक्ष है ही नहीं शायद यही कारण है कि शिवराज सिंह चौहान आराम से उपवास कर रहे हैं। वे नए नए कदम उठा रहे हैं। उन्हें कोई भी खतरा नहीं है। क्योंकि मध्य प्रदेश में सिंधिया-कमलनाथ-दिग्गी के तीन गुट हैं। ये आपस में ही इतने उलझे रहते हैं कि वे शिवराज सिंह को उनकी कमियों में उलझाना भूल जाते हैं। किसानों के आन्दोलन में इतनी अराजकता इसीलिए फैली क्योंकि यहाँ पर भी सब अपनी-अपनी ढपली बजा रहे थे।

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