आज हमारा देश अपना 69वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है। यह अवसर है जब हमें चाहिए कि एक बार शांत मन से आत्मविश्लेषण कर लें कि भारत ने गणतंत्र होने के बाद क्या खोया-क्या पाया? मतलब देश को संविधान से क्या मिला और क्या रह गया? किन मोर्चो पर संविधान असफल रहा? वैसे तो सभी सवाल वाजिब ही हैं। लेकिन इन सारे सवालों के जवाब तो हमें तलाशने ही होंगे। यही गणतंत्र का तकाजा भी है। स्वस्थ लोकतंत्र के परीपक्व होने की यही प्रक्रिया हैl निर्विवाद रूप से भारत ने संविधान के दिखाए रास्ते पर चलते हुए हमने भुखमरी, गरीबी, निरक्षरता वगैरह जैसे गंभीर मसलों को काफी हद तक सुलझाया है। यह तो कोई नहीं दावा कर रहा है कि हमने उपर्युक्त मसलों पर पूरी तरह विजय पा ली है। जरा सोचिए तो कि देश में आजादी के वक्त और फिर संविधान के लागू होने के समय हम कहां खड़े थे? आप जब 26 जनवरी,1950 के भारत और आज के भारत की तुलना करेंगे तब आप पाएंगे कि भारत नें जीवन के सभी क्षेत्रों में विकास की लंबी छलांग लगाई है।
देश की आजादी के समय भारत दुनिया के सबसे निर्धन देशों में दूसरे नंबर पर था। अब भारत विश्व के धनी देशों में एक बनने के करीब पहुँच रहा है। करोड़ों लोग हर साल साक्षर होते ही जा रहे हैं। उनकी जिंदगी सुधरती ही जा रही है। भारत अब दुनिया की एक शिखर आर्थिक ताकत बन चुका है। क्या ये सब मामूली बातें हैं? ये सब उपलब्धियां हमें दिलवाईं हैं विशाल भारतीय गणतंत्र के इसी संविधान ने। इसी संविधान ने हमें संसार का सबसे सशक्त लोकतांत्रिक देश के रूप में विकसित होने का अवसर दिया। हम सेक्युलर बने इसी की बदौलत। आइये इन गणतंत्र दिवस पर इन उपलब्धियों का जश्न मनाएं।
भारत जैसे बेहद विविधता भरे देश में हमारा संविधान अबतक अक्षुण्ण रहा। इसमें वक्त के प्रवाह के साथ साथ अनेकों संशोधन भी हुए, पर इसका महत्व बरकरार बना रहा। यह भी कोई मामूली उपलब्धि नहीं है। आप जरा अपने आसपासके देशों पर नजर दौड़ा लीजिए। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, म्
वैसे, एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी उठाया जाता रहा है कि यदि हमारा संविधान इतना ही ठोस और मजबूत था तब इसमें बार–बार संशोधन की जरुरत क्यों पड़ी। जवाब में तर्क दिया जाता है कि चूँकि हमारा संविधान ब्रिटिश संविधान की मोटे तौर पर नकल है, भारतीय संस्कृति, सामाजिक संरचना और मान्यताओं के अनुकूल नहीं है, इसीलिए इसमें बार-बार पैबंद लगाने की जरुरत पड़ रही है। यह भी मांग उठ रही है कि लोकसभा और राज्यसभा का एक संयुक्त अधिवेशन पूरे संविधान पर पुनर्विचार के लिए क्यों न बुलाई जाए।
जंग से आतंकवाद तक
लेकिन यह तो याद रख लीजिए कि देश ने इसी संविधान को अपना मार्गदर्शक मानते हुए कई भीषण जंगों का भी सामना किया और दुश्मनों के मंसूबों को धूल में मिलाया। आतंकवाद के अभिशाप को परास्त किया। इसी के फलस्वरूप देश में अहम संस्थाएं पूरी स्वतंत्रता के साथ अपने दाचित्वों का निर्वाह करती रहीं। हां, इमरजेंसी का दौर एक दुर्भाग्यपूर्ण काला अध्याय जरूर रहा। उसे 19 महीनों की तानाशाही भी कहा गया। पर यह एक काली और लम्बी अँधेरी रात की तरह देश ने बहादुरी के साथ इसे भी झेल लियाl तो क्या संविधान से देश को सिर्फ मिला ही मिला? क्या यह किसी स्तर पर विफल नहीं हुआ? यहदुर्भाग्यवश ही है कि देश में अब भी गरीबी मौजूद है। गरीबों और अमीरों की खाई बढ़ी है l निरक्षरों की तादाद भी खासी है। इतना वक्त गुजर जाने के बाद दलित समाज पूरी तरह से समाज की मुख्यधारा का अंग नहीं बन पाया। हालांकि, उनके लिए नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था जरूर की गई है। लेकिन सामाजिक सम्मान मिलना अभी भी बाकी है। और, एक अफसोसजनक बात यह रही कि अब देश में अपने को दूसरे से ज्यादा पिछड़ा साबित करने की होड़ सी मच गई है। हरेक वर्ग “आरक्षण की मीठी खीर” खाना चाहता है। बाबा साहेब अंबेडकर ने खुद भी कहा था कि “आरक्षण को लम्बे समय के लिए नहीं चलाया जा सकता।” वे आरक्षण को स्य़ाथी रूप से दिए जाने के सख्त खिलाफ थे।इसीलिए शुरु में संविधान में यह व्यवस्था मात्र 10 वर्षों तक के लिए ही थी l बाबा साहब वर्ग विहीन और जाति विहीन समाज की कल्पना कर रहे थे। यही बात तो स्वामी विवेकानंद, डॉ० राजेंद्र प्रसाद और लोकनायक जय प्रकाश नारायण भे करते थे। इन सारी बातों के चलते संविधान और संविधान के निर्माताओं के कई सपने बिखरे भी। पर अब डॉ राजेंद्र प्रसाद और बाबा साहेब जैसे नेता अब कहां मिलेंगे? बाबा साहब अम्बेडकर ने तो नेहरु जी की कैबिनेट से इस्तीफा देने के अगले ही दिन अपने सरकारी आवास को छोड़ दिया था। अब इस तरह के और उदाहरण कोई ढूंढकर बता दे।अब तो नेता सरकारी मकानों पर कुंडली मारकर बैठ जाते हैं। नल और दरवाजे भी निकालकर ले जाते हैं।
पिछड़ा होने की चाहत
अब अपने को पिछड़ा, दलित, अति दलित साबित करने की चाह कभी खत्म ही नही होने वाली लम्बी रेस चल रही है। इस सोच को खाद-पानी देने में कुछ राजनीतिक दलों ने अपना पूरा योगदान दिया। जाहिर है, पिछड़ा और अति पिछड़ा होने के फेर में संविधान की मूल भावना को आहत ही किया जाता रहा है। बेशक, अगर हम सख्ती से संविधान की मूल भावना के अनुसार चले होते तो देश आज कई और बुलंदियों को छू रहा होता।
आपको यह जानकार हैरानी होगी कि संविधान सभा के सदस्यों को एक बैठक में भाग लेने का भत्ता मात्र 45 रुपये मिलता था। वे खुद इस राशि को ज्यादा बताते हुए इसे कम करने का प्रस्ताव लेकर आए थे। और अब तो जन प्रतिनिधि,चाहे सांसद हों या विधायक, लगातार अपनी पगार और सुविधाएं बढ़ाने की कोशिशों में जुटे ही रहते हैं। पर अब राजनीति के संसार में कदम रखने वालों के लिए निजी स्वार्थ ही अब सर्वोपरि हो गया। राजनीति एक सफेदपोश पेशा हो गया है। अब समाज सेवा करने के भाव से सियासत में आने वाले लगातार घट रहे हैं।
आधी दुनिया के सपने
और अगर बात आधी दुनिया की यानि नारियों की करें तो इस लिहाज से भी संविधान ने उन्हें भरपूर अधिकार दिए खुद मुख्तार होने के लिये। उन्हें मर्दों के साथ ही मताधिकार दिया गया। जबकि अमेरिका और ब्रिटेन में औरतों को मर्दों के कई वर्षों बाद मताधिकार मिला। आज तो ज्यादातर राज्यों में पंचायतों में 30 फीसद कहीं-कहीं 50 प्रतिशत स्थान औरतों के लिए आरक्षित हैं। देश के लाखों गांवों में महिलाएं गावों में पंच धर्म का निर्वाह कर रही है।ये नारी सशक्तिकरण के रास्ते में एक मील का पत्थर साबित हो रहा है। देखिए, अगर औरतों की स्थितियों में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ तो कमी संविधान की नहीं है। इसके लिए हमारा पुरुष प्रधान समाज ही दोषी माना जाएगा। जब समाज का औरतों को लेकर रुख बदलेगा तो उनकी हालत और सुधरेगी।विधान सभाओं और संसद में नारियों के आरक्षण का मामला हर बार किसी ना किसी कारण अटक ही जाता है, जो इस गणतंत्र के लिये चिंता का विषय है।
इन सब कठोर तथ्यों के बावजूद हमारे संविधान ने देश को विश्व की बड़ी सैन्य और आर्थिक शक्ति के रूप में खड़ा किया है। अगर हमारे जनप्रतिनिधि जनता और देश के प्रति और ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करें तो देश को अन्य कई लाभ हो सकता हैं। भारत के गणतंत्र बनने के अब तक के सफर की उपलब्धियों पर कोई भी नागरिक गर्व कर सकता है। और जब आप संसद की कार्यवाही देख रहे होते हैं, तो सच में गर्व का अनुभव क सकते हैं कि संसद में अब भी समाज के अंतिम छोर का व्यक्ति भी गर्व पूर्वक बैठा है। यही तो गांधी जी का सपना था।
आर.के. सिन्हा
(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)