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गांधी दृष्टि और पर्यावरण विमर्श

गांधी जी ने अपनी जीवन यात्रा पहले पूरी की, ‘पर्यावरण’ शब्द बाद में अस्तित्व में आया; यही कोई 20वीं सदी के छठे दशक में। पर्यावरण चुनौतियों का उभार, उनकी चिंता, चिंताओं को सामने रखकर विश्व पर्यावरण दिवस मनाने का संयुक्त राष्ट्र संघ का निर्देश, पर्यावरण संरक्षण के नाम पर संगठनों की स्थापना, आंदोलन, एक विज्ञान और तकनीकी विषय के रूप में पर्यावरण की पढ़ाई… ये सभी कुछ बहुत बाद में सामने आए। लिहाजा, गांधी साहित्य में ’वातावरण’ शब्द का उल्लेख तो है, किंतु ’पर्यावरण’ शब्द का नहीं। यह कहना उचित ही है; बावजूद इसके, गांधी जी की 105वीं जयंती के दिन साहित्य अकादमी ने पर्यावरण विमर्श को गांधी दृष्टि से देखने संबंधी आलेख पाठ करने और सुनने हेतु हमें आमंत्रित किया है। यह सुखद भी है और गांधी दृष्टि को गहराई से जानने की साहित्य अकादमी की उत्तम लालसा का परिचायक भी। इसके लिए अकादमी बधाई और आभार… दोनो की पात्र है।

मैं अपने आलेख का पाठ, पर्यावरण विमर्श के विरोधाभासी चित्रों से शुरु करता हूं; किसी की निंदा करने के लिए नहीं, बल्कि समय का सच सामने लाने के लिए। आखिरकार गांधी जी, अपने समय में यही तो कर रहे थे।

गांधी जी की प्रबल धारणा थी कि धरती, किसी एक व्यक्ति के भी लालच की पूर्ति के लिए नहीं है। ऐसे में  ‘कौन बनेगा करोड़पति’ कार्यक्रम द्वारा एक ओर करोड़ों लोगों को एक झटके में करोड़पति बनने के लालच के लिए प्रेरित करना और दूसरी ओर धरती को मां की भांति पोषित-संरक्षित करने का निवेदन करना; वह भी गांधी जी के 125वीं जयंती के मौके पर ! यह विरोधाभास, वर्तमान समय, समाज व हमारे व्यवहार का सच भी है और जानकारी के बावजू़द पर्यावरणीय चिंताओं का समाधान हासिल न कर पाने का एक बुनियादी कारण भी।

आइए, एक और चित्र से रुबरु होते हैं।

बिहार राज्य की सरकार, आज के दिन जल-जीवन-हरियाली अभियान की शुरुआत कर रही है। इसके संचालक और समाज के विरोधाभासी रवैये पर गौर कीजिए। पटना का राजेन्द्र नगर, गंगा के हिस्से की ज़मीन पर कब्जा कर बसा है। नगरीय जल संरचनाओं की भमि पर कब्जे हैं। ये कब्जे पटना की जल-निकासी और गंगा की प्रवाह मार्ग में खुद में एक बड़ा अवरोध हैं। इससे सीखकर जल-जीवन-हरियाली अभियान के कार्यसूत्रों में सुधार करने की बजाय, दोषारोपण और पल्लाझाड़ राजनीति का प्रदर्शन करने को आप क्या कहेंगे ? बिहार को ऐसी सक्षम आबादी का प्रदेश माना जाता है, जो कि बाढ़ के साथ तैरना ही नहीं, जीने की क्षमता भी रखती है। ऐसे में बाढ़ आने पर पटना निवासियों द्वारा अपनी समस्या का समाधान खुद करने की बजाय, छोटी-छोटी मदद के लिए सरकार की ओर ताकना !! जिस गांव के सिर पर जितना पानी बरसता है, उसी से अपना जीवन चलाने की सीख की बजाय, केन्द्र सरकार द्वारा पानी के लिए परावलम्बी व परजीवी बनाने वाली नल-जल योजना को ले आना; बिजली-डीजल-तेल आदि पर कम से कम निर्भरता की बजाय, हरित साधनों से सही, अधिक से अधिक उत्पादन का लक्ष्य!

जब तक ऐसे विरोधाभासी चित्र मौजूद रहेंगे; समस्या के मूल कारण का निवारण करने की बजाय, विकल्प प्रदान करना हमारी प्राथमिकता बनी रहेगी। गांधी को बार-बार आना पडे़गा सच का आईना दिखाने।

यदि आज गांधी जी ज़िंदा होते तो क्या वैश्विक तापमान में वृद्धि के लिए कोयले से बिजली, ईंधन से चलने वाले वाहनों, उद्योगों, पराली, कुछ रसायन अथवा विकिरण फेकने वाले उपकरणों को कोसते ? क्या वह जल-संकट का सारा ठीकरा जलवायु परिवर्तन के माथे फोड़ते ? नहीं; सच को सामने रखने से पहले वह घडी देखते। यदि कुछ समय शेष होता तो अपनी गाड़ी को बीच रास्ते से वापिस लौटा देते और पैदल चलकर साहित्य अकादमी के इस सभागार में ठीक ढाई बजे प्रवेश करते और बताते कि तापमान वृद्धि का मूल कारण, उपभोग में अतिवादिता को अपनी शान समझने और ऐसी शान वालों को सम्मान की नज़र से देखने की वर्तमान कालखण्ड की प्रवृति है।

जितना अधिक उपभोग, उतना अधिक कार्बन उत्सर्जन, उतना अधिक कचरा, प्रकृति से उतनी अधिक छेड़छाड़, जैव विविधता का उतना अधिक क्षरण। 30 करोड़ की अमेरिकी आबादी द्वारा 25 करोड़ कारों की सवारी, कुल 24 करोड़ परिवारों की आबादी वाले भारत में 80 करोड़ मोबाइल यानी प्रति परिवार तीन से अधिक मोबाइल, इक्का-बैलगाड़ी-साईकिल को कबाड़ में रखकर मोटरसाईकिल और फिर मोटर साईकिल से ड्राईवर फ्री मोटर हासिल करने की दौड, अधिक से अधिक कमाई हेतु अपनी सेहत के नाश को नज़रअंदाज कर मिट्टी-पानी को नसेड़ी बनाने के जारी उपक्रम, आवश्यकता नहीं, बल्कि जेब के हिसाब से बिजली-पानी का उपभोग तथा पोशाक कपडे़, जूते, मकानों की संख्या जुटाने की भूख और इस भूख की पूर्ति के लिए इंसान हो या प्रकृति…किसी के भी शोषण, अतिक्रमण और प्रदूषण से कोई परहेज नहीं की अनैतिकता।

इसी तरह जल-संचयन, जल-निकासी और जलोपयोग में अनुशासन के बीच असंतुलन को जल संकट के मूल कारण के रूप में रेखांकित किया जाता है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के ढाबों में खाने के एक से मेनू, भिन्न मौसम-ताप के बावजूद से इमारतों के एक से डिज़ाइन, एक सा मैटीरियल से इस अंसतुलन का गहरा रिश्ता है। बारिश की बूदों को संजोने की बजाय, पुरखों द्वारा संजोए पाताली पानी को खींचकर बोतलों में बंद करने, उससे मुनाफा कमाने, बांधों-नहरों-नदी जोड. जैसी परियोजनाआंे, अपनी ज़रूरत के पानी के लिए समाज द्वारा सरकार की ओर ताकने के वर्तमान चित्र को जैसे ही सामने रखेंगे, समझ में आ जाएगा कि भारत का जल-संकट प्राकृतिक से ज्यादा, हमारी लोकतांत्रिक गिरावट और दूसरे के संसाधनों के कब्जा करने की शैतानी प्रवृत्ति वाले आर्थिक साम्राज्यवाद के ताज़ा दौर का दुष्परिणाम है। वह बीमारों और कमज़ोरों के लिए शौचालय अवश्य चाहते थे, लेकिन गांवों में मिट्टी से सम्भव निष्पादन को प्राथमिकता पर रखने की बजाय… उसे सोनखाद में बदलने के स्थान पर मल को धरती की नसों में उतारने अथवा उसे ढोकर नदी किनारे स्थित मल शोधन संयंत्रों के भरोसे छोड़ देने के हिमायती कभी नहीं थे। गांधी जी गांवों को शहरों में तब्दील कर देने के ख़तरों से वह वाकिफ थे। इसीलिए वह भारत को गांवों को देश बना रहने देने के हिमायती थे।

गांधी, युगदृष्टा थे। गांधी जी ने तत्कालीन यूरोप को देखकर, उपभोग में अतिवादिता के वर्तमान चित्रों को आज से 110 वर्ष पहले ही देख लिया था। शारीरिक श्रम की बजाय, बटन दबाते ही पानी, पोशाक, गाड़ी, अख़बार, दुनियाभर की जानकारी, खरीददारी के अनियंत्रित दुष्परिणाम उनके जेहन में थे। इसीलिए गुलामी जैसी बड़ी चुनौती के उस दौर में भी अपने रचनात्मक कार्यक्रम को जन-जन के बीच ले जाने के काम में जुटे रहे। उन्होने 1909 में ‘हिंद स्वराज’ नामक पुस्तक के रूप में एक शिक्षा और अपेक्षा भारत के सामने रखी। श्रम, संयम, सादगी, सदुपयोग, स्वावलम्बन और स्वराज को समाधान के सूत्र रूप में प्रस्तुत किया। एकादश व्रत को ज़रूरी मानकर पहले खुद अपनाया और फिर प्रत्येक सत्याग्रही के आचरण के लिए ज़रूरी बताया। सदुपयोग और पुर्नोपयोग को समाधान मानते हुए पेन्सिल के छोटे से छोटे टुकडे को भरपूर इस्तेमाल किया; पढे़ जा चुके अखबार का लिफाफा बनाने, डाक में आए पुराने लिफाफों के कोरे हिस्से को लिखने में इस्तेमाल करने अथवा उलटकर पुनः डाक लिफाफे के रूप में उपयोग करने से वह कभी नहीं झिझके। वह अपने अंतिम दम तक चेताते रहे कि यह सभ्यता ऐसी है कि अगर धीरज धरकर बैठे रहेंगे तो सभ्यता की चपेट में आए लोग खुद की जलाई आग में जल मरेंगे। निगाह डालिए। आज यही हो रहा है। मध्य-पूर्व के देशों में फैली अशांति और जारी पलायन की शुरुआत धार्मिक विभेद अथवा आतंकवादी गतिविधि के रूप में नहीं, बल्कि इज़राइल द्वारा जॉर्डन व फलिस्तीन तथा टर्की द्वारा सीरिया के हिस्से के पानी पर नाजायज़ कब्जे के कारण हुई। इथोपिया विवाद, सोमालिया से जबरन पलायन जैसे अफ्रीकी कष्टों का मूल कारण भी पानी ही है। यूरोप के मेयर, उनके नगरों के नए रिफ्युजी अड्डों में तब्दील होने के कारण परेशान हैं।

गांधी जी होते, तो भारत में घुसपैठ को संबंधित राष्ट्रों की प्राकृतिक बदहाली से जोड़कर देखने की कोशिश करते। पलायित आबादी को उसके मूल निवास स्थान में लौटाने के लिए उन स्थानों की प्राकृतिक खुशहाली सुनिश्चित करने में सहयोग करते। अतिवादी उपभोग पर लगाम लगाने के लिए सबसे पहले शहरीकरण पर लगाम लगाते। पानी के बाज़ार के खिलाफ प्याऊ को औजार बनाते।भूजल की कंगाली रोकने के लिए तालाब खोदने निकल पड़ते; बटन दबाते ही पानी उगलने वाले समर्सिबल पर सब्सिडी देने की बजाय, कम बारिश वाले इलाकों में कम पानी में तैयार हो जाने वाली फसले उगाने में जुट जाते। यदि वह राष्ट्रपति होते तो विशाल भवन को छोड़कर दिल्ली के किसी गांव में  रहने लग जाते। एक साधारण नागरिक मात्र होते तो स्थानीय जरूरत के सभी स्थानीय संसाधनों के प्रबंधन का दायित्व व अधिकार सीधे-सीधे लोकल सेल्फ गवर्नमेन्ट…स्थानीय स्व-सरकार यानी ग्राम पंचायतों और नगर निगमों को सौंप देने की मांग को लेकर अड़ जाते। हम भी अड़ जाएं और फिर देखें कि क्या होता है ?
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अरुण तिवारी

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