भारत में होने वाले हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी धन की आवक एक बड़ा प्रश्न बनकर उभर रहा है। उच्चतम न्यायालय ने भी इस विषय में हस्तक्षेप किया है। एक याचिका पर विचार करते हुये न्यायालय का कहना है कि चुनावी बॉन्ड के जरिये हासिल किए गए चुनावी चंदे का हिसाब अब सीलबंद लिफाफे में निर्वाचन आयोग को सौंपा जाएगा। चुनावी चंदे में पारदर्शिता का मामला अब तूल पकड़ने लगा है। राजनीति में शुद्धता की चाहने वाले लोगों के लिए गत वर्ष की दो खबर और उनका संयोजन भी एक चौकाने वाला समीकरण प्रस्तुत करता है। पहली खबर के अनुसार केंद्र सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय में दिये गए शपथ पत्र के अनुसार देश में कुल 1765 सांसद एवं विधायक हैं जिनके ऊपर विभिन्न अदालतों में 3045 आपराधिक मामले दर्ज़ हैं। यदि इसका औसत निकाला जाता है तो यह प्रत्येक पर दो मुक़दमे का बैठता है। दूसरी खबर में 1976 के बाद से राजनैतिक दलों को मिलने वाले विदेशी चंदों का हिसाब देने एवं उनकी जांच पर संसद ने रोक लगा ली थी। 2017-18 में राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में से 95 प्रतिशत भाजपा को मिला है। चुनावी बांड नामक इस खेल पर अब उच्चतम न्यालय की सख्ती के बाद चुनावों में प्रयुक्त अनैतिक धन, उसकी आवक के रास्ते, संसद में दागी एवं विदेशी चंदे के नाम पर लोकतन्त्र में चल रही लूट एक बड़ा खतरनाक समीकरण पेश कर रही है। इन सबकी भट्टी से निकले लोग जब संसद एवं विधानसभा में जाते हैं तो चुनाव में निवेश किए गए धन के कारण वहाँ घोटाले करते हैं। अनैतिक धन उगाही के मार्ग ढूंढते हैं। हम लोग संसद में बैठे लोगों से जनहित के कानून पास होने की उम्मीदें लगाएँ रहते हैं और ये लोग सिर्फ धन की बंदरबांट को कैसे छुपाया जाए उसके कानून बनाते रहते हैं। इस वजह से जनता के मन मस्तिष्क में पूरी की पूरी राजनैतिक व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है।
-अमित त्यागी
वैसे तो सत्ता और विपक्ष के पास धन की आवाजही लगी रहती है पर चुनावों के दौरान सियासत में धन की आवाजाही तेज़ी पकड़ लेती है। हालांकि, सत्ता और सियासत का धन से पुराना रिश्ता रहा है किन्तु उदारीकरण के बाद जब भारत का बाज़ार खुला। उसके बाद से धन के प्रभाव में कॉर्पोरेट हितैषी नीतियाँ बनने की गति बढ़ गयी। कॉर्पोरेट द्वारा धन की एक बड़ी मात्रा राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दी जाने लगी। अब यह समझना कोई मुश्किल काम नहीं है कि क्यों कोई व्यक्ति या संस्था बिना किसी मुनाफे के धन देगा। सबका इसके पीछे कोई न कोई स्वार्थ छिपा होता है। इस स्वार्थ से किसके हित पिसते हैं यह भी समझना मुश्किल नहीं है। सीधे सपाट शब्दों में कहें तो सिर्फ और सिर्फ भारत की आम जनता के हित इसमे पिस जाते हैं।
इस धन का राजनीतिक दल चुनाव में उपयोग करते हैं। मतदाताओं के बीच बंटने वाली शराब, नकदी एवं अन्य उपहार इस धन से खरीदे जाते हैं। चुनावी मौसम में चुनाव आयोग बेनामी नकदी की भारी मात्रा में जब्ती करता है। इसकी खबरें हम लगातार पढ़ते भी रहते हैं। लोकसभा चुनाव 2019 में 10 अप्रैल तक 2519 करोड़ की नकदी एवं अन्य चीज़ें चुनाव आयोग द्वारा ज़ब्त की जा चुकी हैं। इसमे नकदी की मात्रा 655 करोड़ के आसपास है। इसमे शराब, नशीली वस्तुएं 1105 करोड़ रुपये की हैं। यदि इसकी तुलना 2014 के चुनावों से करें तो 2014 में इन दिनो तक 1200 करोड़ की संपत्ति ज़ब्त हुयी थी। यानि कि सिर्फ पाँच साल में ही यह आंकड़ा 1200 करोड़ से 2519 करोड़ तक पहुँच गया है। अब चूंकि इतना धन तो प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई दे रहा है इसलिए यह भी साफ है कि राजनीतिक दलों को देशी और विदेशी, दोनों रूप में भरपूर चंदा मिल रहा है। 2018 में विदेशी चंदे के लिए बने कानून के द्वारा अब राजनीतिक दलों से कोई इस बारें में पूछ भी नहीं सकता है। कहने के लिए तो सत्ता और विपक्ष में वैचारिक लड़ाई हमेशा चलती है। विचारधारा के नाम पर सभी राजनैतिक दल एक दूसरे के कपड़े फाड़ने से भी परहेज नहीं करते हैं। पर जब बात दोनों के फायदे की हो तो क्या सत्ता पक्ष और क्या विपक्ष सब एक हो जाते हैं। मार्च 2018 में जब पूरा देश फूलपुर और गोरखपुर के चुनावों में व्यस्त था तब संसद में मौजूद सभी राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों ने विदेशी चंदे का हिसाब न देने वाले विधेयक को संसद में इतनी शांति से पास करा लिया कि कहीं कुछ भी हँगामा नहीं हुआ। कोई चर्चा-परिचर्चा नहीं हुयी। कोई वाक-आउट नहीं हुआ।
सिर्फ इतना ही नहीं हुआ। भारत में जब भी कोई कानून बनता है तब वह उस दिन से लागू होता है जिस दिन राष्ट्रपति उस पर मुहर लगाते हैं। इस कानून को बैकडेट में 1976 से लागू किया गया। यानि कि किसी भी दल को 1976 के बाद से किसी भी विदेशी चंदे का हिसाब अब नहीं देना होगा। न ही किसी चंदे की जांच हो सकती है। चुनाव सुधार एवं काले धन पर बात करने वाले नेताओं के संदर्भ में एक बात तो साफ समझ लेनी चाहिए कि धन की लूट पर सभी राजनैतिक दल एक हैं।
अब सबसे पहले विदेशी चंदे को समझते हैं। संसद में 1956 में इस बात पर चर्चा हुयी थी कि वामदलों को सोवियत संघ से धन मिल रहा है। सोवियत संघ से अपनी दोस्ती के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने इस विषय पर खामोशी बरकरार रखी। सिर्फ वामपंथियों को धन मिलता हो ऐसा भी नहीं है। 1974-75 में इन्दिरा गांधी ने आरोप लगाया था कि गैर वामपंथियों को भी विदेश से धन मिलता है। उस समय के राजनैतिक गलियारों में चर्चा थी कि किसी व्यक्ति द्वारा धन लेने से मना करने पर उसे ईमानदार नहीं समझा जाता था बल्कि ऐसा माना जाता था कि उसे पहले ही खरीदा जा चुका है। ईसाई मिशनरियों को भी बाहर से बहुत ज़्यादा पैसा मिलता रहा है। इस पैसे का उपयोग ये मिशनरी धर्मांतरण के लिए करती हैं ऐसा 1956 में नियोगी कमीशन ने भी माना था। भारत को तोड़ने एवं हिन्दुओं में फूट डालकर राज करने के विदेशी षड्यंत्र में हमारे अपने लोग पूरी तरह शामिल थे। 1991-92 के दौरान जब सोवियत संघ का विघटन हो चुका था तब वहाँ एक सूची मिली जिसमे विदेशी दलों को दिये जाने वाले चंदे की रकम का ज़िक्र था। उसके अनुसार भारत के वामपंथियों को 5 लाख अमेरिकी डालर सालाना चंदे के रूप में दिये जाने का उल्लेख था। इस तरह से विदेशी ताकतों के भारत में पैठ के सबूत समय समय पर मिलते रहे हैं। भारत के प्राकृतिक एवं मानव संसाधनों को लूटने के क्रम में भारत की भ्रष्ट नौकरशाही, राजनेता एवं विदेशी ताकतों ने एक गठजोड़ बनाया। काले धन के द्वारा सत्ता का दुरुपयोग किया। सत्ता संभालने के क्रम में अपराधियों को पहले पोषित किया गया एवं बाद में उन्हे संरक्षित किया गया। कालांतर में जब इन अपराधियों को सत्ता का स्वाद लग गया तब यह लोग स्वयं सफेदपोश बन गए। राजनीति में आ गए। इन्होने चुनाव लड़ा और सत्ता में व्यवस्थित हो गए।
मतदाता के पास बहुत बड़ी शक्ति होती है। उसका मत एक हथियार है जिसके द्वारा वह बुरे प्रत्याशियों का समूल नाश कर सकता है। इस हथियार के प्रयोग में मतदाता अक्सर चूक जाता है। इसकी वजह से दागदार आपराधिक प्रवृत्ति के लोग सत्ता में आ जाते हैं। चूंकि इन अपराधियों को राजनैतिक दलों का संरक्षण प्राप्त होता है इसलिए अपराधी प्रवृत्ति के लोग किसी न किसी दल के चुनाव चिन्ह पर मैदान में आते हैं। 2018 में एक मुक़दमे पर सुनवाई के दौरान जब केंद्र सरकार ने आपराधिक मुकदमों के लोगों की सूची पेश की थी तब इसमे उत्तर प्रदेश के सांसदों एवं विधायकों पर सबसे ज़्यादा मुक़दमे लंबित पाये गए थे। उत्तर प्रदेश के 248 सांसद/विधायकों पर मुकदमों की संख्या 539 थी। 28 राज्यों के इस ब्योरे में दूसरे पर तमिलनाडु, तीसरे पर बिहार, चौथे पर पश्चिम बंगाल एवं पांचवे पर आंध्र प्रदेश रहे । वाम और कांग्रेस का गढ़ माने जाना वाला केरल जैसा छोटा प्रदेश साक्षरता दर में शत प्रतिशत है। वह भी आपराधिक मामलों में बहुत आगे पाया गया। अब हमारे लिए इससे ज़्यादा शर्म की क्या बात होगी कि जिन लोगों पर भारत का कानून बनाने की ज़िम्मेदारी है वह ही कानून उल्लंघन के दोषी पाये जाते हैं। अब चूंकि संसद में इस तरह के लोग विराजमान हैं इसलिए हमें कई मायनों में विचार की आवश्यकता है। चाहें विदेशी चंदे का कानून हो या चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था का कानून। ये कानून संसद से ही पास किए गए।
चुनावी चंदे बनाम चुनावी बांड का खेल :
चुनावों में दिये जाने वाले चंदे का मुद्दा पिछले दो दशकों से कुछ ज़्यादा ही चर्चा में आया है। 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170 वी रिपोर्ट में राजनीतिक दलों की लाचारी को स्पष्ट किया था। विधि आयोग की उस रिपोर्ट के अनु0-6(3.1) में कहा गया था कि “सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार बढ़ता चला जा रहा है। लोगों के राजनीति में आने और चुनाव लड़ने की इच्छा की प्रमुख वजह है उनकी रातों रात अमीर बनने की इच्छा।” अब दो दशक पहले जब विधि आयोग की रिपोर्ट चुनाव और राजनीति को पैसा कमाने का माध्यम बता चुकी है तो तबसे अब तक तो स्थिति और भयावह ही हुयी है। 2017 में सरकार द्वारा चुनावी बॉन्ड की एक योजना शुरू की गयी। इस योजना के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की निर्धारित शाखाओं से एक हज़ार, दस हज़ार, एक लाख, दस लाख, एक करोड़ के चुनावी बांड खरीदकर अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को दे सकता है। इस संदर्भ में एक शर्त यह भी है कि ये बांड सिर्फ उसी दल को दिये जा सकते हैं जिसे पिछले चुनाव में एक प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त हुये हों। इस बांड में चंदे देने वाले का नाम गुप्त रखा जाता है। हालांकि, स्टेट बैंक के पास बांड के खरीदार की जानकारी होती है किन्तु वह इसे सार्वजनिक नहीं करता है। सिर्फ आपराधिक मुक़दमे एवं न्यायालय के आदेश पर ही खरीदार का नाम सार्वजनिक किया जा सकता है।
यहाँ तक देखने में यह योजना अच्छी लगती है। इस योजना में दलों को मिलने वाले चंदे की जानकारी होने का आभास होता है। किन्तु इसके प्रावधानों का विस्तार से अध्ययन करने पर इसके अंदर छुपे तथ्य उजागर होते हैं। जैसे इसके पहले लागू व्यवस्था में कंपनी कानून में प्रावधान है कि केवल वही कंपनी चंदा दे सकती है जिसने पिछले तीन सालों में लाभ कमाया हो। इसके साथ ही वह कंपनी अपने लाभ का सिर्फ 7.5 प्रतिशत ही चंदे में दे सकती है। कोई भी कंपनी अगर किसी राजनीतिक दल को चंदा देती है तो उसे उस दल का नाम और चंदे की राशि बताना भी अनिवार्य होता था। जैसे ही चुनावी बांड की योजना प्रारम्भ हुयी वैसे ही ये दोनों प्रावधान हटा दिये गए। अब चाहें कोई भी कंपनी, चाहे वह नुकसान में ही क्यों न हो, वह जितना पैसा चाहे, उतना पैसा किसी भी दल को दे सकती है। अब चूंकि नाम बताने की अनिवार्यता समाप्त हो गई है इसलिए किस कंपनी ने किस दल को कितना पैसा दिया है यह भी नहीं पता चलेगा। कोई कंपनी बिना मुनाफे के भी अगर किसी राजनीतिक दल को चंदा देती है तो इसके पीछे उसके कुछ बड़े निहित स्वार्थ अवश्य छिपे होंगे इसे तो सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी समझ सकता है। अब बांड आने के पहले ज़्यादा पारदर्शिता थी या बांड आने के बाद। इसको बताने की आवश्यकता नहीं है।
अब इस योजना का एक और पहलू देखिये। चूंकि बांड सिर्फ स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से लिए जा सकते हैं इसलिए अन्य बैंक इस क्षेत्र से पहले से ही वर्जित हैं। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया वित्त मंत्रालय के आधीन संस्था है। वित्त मंत्रालय के किसी आदेश को बैंक न माने ऐसा संभव नहीं है। हालांकि, आधिकारिक तौर पर तो स्टेट बैंक बिना किसी अदालती आदेश के जानकारी उपलब्ध नहीं करा सकता है किन्तु सत्ताधारी वित्त मंत्रालय के माध्यम से जानकारी नहीं प्राप्त कर पायेंगे। ऐसा भी भरोसा संभव नहीं है। इस कथन की पुष्टि तथ्यों के आधार पर भी होती दिखती है। 2017-18 के आंकड़े बताते हैं कि इस दौरान 220 करोड़ के चुनावी बांड बिके जिसमे 210 करोड़ के बांड सिर्फ सत्ताधारी भाजपा को मिले। यह कुल बांड का 95 प्रतिशत है। अब यह साफ है कि चुनावी बांड सत्ताधारी दल के लिए सबसे ज़्यादा मुनाफे का सौदा है। उससे भी भी बड़ी बात यह है कि यह बांड किसने दिये हैं यह बताना भी सत्ताधारियों के लिए जरूरी नहीं है।
चुनावी चंदे में सब दलों में है एकजुटता :
जब यूपीए की सरकार थी तब उसने घोषणा की कि वह राजनीतिक चंदे की प्रक्रिया में पारदर्शिता लाएगी। इसके लिए इलेक्टरोल ट्रस्ट योजना लायी गयी। इस योजना के अंतर्गत कांग्रेस और भाजपा द्वारा एक इलेक्टोरल ट्रस्ट द्वारा करोड़ों का चंदा भी लिया गया। जब जांच हुयी तब ज्ञात हुआ कि वह ट्रस्ट एक विदेशी कंपनी के सम्पूर्ण नियंत्रण में संचालित था। इसके बाद 2014 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन तथ्यों पर एक फैसला दिया कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ने विदेशी मुद्रा कानून का उल्लंघन किया है। इसके बाद न्यायालय ने भारत सरकार को दोनों दलों पर कार्यवाही का निर्देश दिया। सरकार ने कार्यवाही की बात तो दूर विदेशी मुद्रा कानून में संशोधन के प्रयास तेज़ कर दिये। जब संशोधन के प्रयास सफल नहीं हुये तब एक ऐसे कानून में संशोधन करके उसे लागू कर लिया गया जिसे आठ साल पहले रद्द किया जा चुका था। इसके बाद यह मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन हो गया। एक संस्था की याचिका पर इस पर उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सभी राजनीतिक दल इस बांड के द्वारा प्राप्त चंदे का विवरण सीलबंद लिफाफे में 30 मई तक निर्वाचन आयोग में जमा कराएं। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय का राजनीतिक दल कितना सम्मान करते हैं यह देखना भी रोचक होगा।
यदि समाधान की तरफ विचार करें तो यह तो तभी संभव है जब चंदे का हिसाब पारदर्शी हो। इसके लिए इसे सूचना के अधिकार के आधीन लाना होगा। केन्द्रीय सूचना आयोग जून 2013 में इस विषय पर अपना निर्णय भी दिया है कि राजनीतिक दल सूचना के अधिकार के डायरे में लाये जाएँ। इस निर्णय को मानने से सभी राजनीतिक दल खुल कर मना कर चुके हैं। अब यह मामला भी उच्चतम न्यायालय में लंबित है। चूंकि चुनावी चंदे और उसके द्वारा मिलने वाले धन से नेताओं के जल्दी अमीर बनने की ख्वाइश पूरी होती है तो कोई भी नेता इसमे सुधार की बात नहीं करना चाहता है। सत्ता के ऐब सब सरकारों में एक जैसे ही होते हैं। अब वह चाहे यूपीए की सरकार रही हो या एनडीए की। जनता की गाढ़ी कमाई के दूध की मलाई तो शायद सत्ताधारी ही खाते रहेंगे।
चुनावी चंदे का विवरण (करोड़ में ) | ||
वर्ष | कांग्रेस | भाजपा |
2011-12 | 356.28 | 309.45 |
2013-14 | 598.06 | 673.82 |
2014-15 | 593 | 970 |
2016-17 | 225 | 1034 |
2017-18 | 199 | 1027 |
भाजपा, कांग्रेस को होने वाली आय का विवरण करोड़ में ) (2017-18 के आयकर रिटर्न और सालाना ऑडिट के आधार पर ) | |||||
कूपन /बैंक ब्याज | अनुदान और चंदा | फीस, सब्सक्रिप्शन | अन्य आय | कुल आय | |
भाजपा | 31.00 | 989.00 | 5.00 | 2.00 | 1027 |
कांग्रेस | 110.37 | 32.45 | 25.36 | 30.95 | 199.1 |
पिछले दो दशकों में हुये कुछ महत्वपूर्ण चुनाव सुधार | |
एक्ज़िट पोल पर प्रतिबंध
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जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के तहत चुनाव आयोग ने मतदान शुरू होने से लेकर मतदान समाप्त होने के आधे घंटे बाद तक एक्ज़िट पोल को प्रतिबंधित कर दिया है। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में चुनाव के दौरान एक्ज़िट पोल के परिणाम प्रकाशित करने पर दो वर्ष का कारावास या जुर्माना अथवा दोनों सज़ा हो सकता है। |
चुनावी खर्च पर सीलिंग | लोकसभा सीट के लिये चुनावी खर्च की सीमा को बढ़ाकर बड़े राज्यों में 70 लाख कर दिया गया है वहीं छोटे राज्यों में यह सीमा 28 लाख तक है। |
पोस्टल बैलेट के माध्यम से मतदान | सरकारी कर्मचारियों और समस्त बलों को चुनाव आयोग की सहमति के बाद पोस्टल बैलेट के माध्यम से मतदान करने की अनुमति है। विदेशों में रहने वाले ऐसे भारतीय नागरिकों को मतदान का अधिकार है जिन्होंने किसी अन्य देश की नागरिकता हासिल नहीं की है और उनका नाम किसी भी निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची में दर्ज हो। |
नोटा
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यह व्यवस्था मतदाता को किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में वोट नहीं देने और मतदाता की पंसद को रिकॉर्ड करने का विकल्प देती है। इसके साथ ही मतदाओं को चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करने हेतु भारत सरकार हर वर्ष 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में मनाती है। यह सिलसिला 2011 से शुरू हुआ। |
चुनाव सुधार पर अब तक बनी समितियाँ |
Ø दिनेश गोस्वामी समिति (चुनाव सुधार पर )
Ø वोहरा समिति ( राजनीति के अपराधीकरण पर ) Ø इंद्रजीत गुप्ता समिति ( चुनावों के राज्य वित्तपोषण पर बनी। Ø एमएन वैंकट चलैया समिति ( विधि आयोग, चुनाव आयोग, संविधान की समीक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट) Ø वीरप्पा मोइली समिति ( शासन में नैतिकता पर बनी ) Ø एपी शाह समिति (विधि आयोग की रिपोर्ट पर बनी) |
बॉक्स : राष्ट्रिय चुनावी कोश का गठन हो : एसवाई कुरैशी
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी चुनावी चंदे की पारदर्शिता पर कुछ सुधारों की बात करते हैं। वह कहते हैं कि मेरा मानना है कि कोई भी सुधार अच्छा सुधार होता है किन्तु चुनावी बांड वाले सुधार पर मैं अपनी राय बदलने को मजबूर हूँ। जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29(ए) में संशोधन के बाद कंपनियों द्वारा करोड़ों रुपये का भुगतान अब मुक्त रूप से किया जा सकता है। अब जब इसे चुनाव आयोग के सामने रखने की जहमत भी नहीं उठानी है तो क्या यह लोकतन्त्र का मखौल नहीं उद रहा है। यह सही है कि कोई भी कॉर्पोरेट सत्ताधारी को चंदा देने से परहेज नहीं करेगा। वह सबको समान चंदा देने का धौंग तो कर सकते हैं। अब चूंकि यह दिखावा खत्म हो गया है और दानदाता की पहचान सुरक्षित है इसलिए ही सत्ताधारी दल को 95 प्रतिशत चंदा मिला है। इन सबमे पारदर्शिता लाने के लिए अब राष्ट्रिय चुनाव कोश का गठन किया जाना चाहिए जिसमे सभी करमुक्त योगदान दे सकें। कॉर्पोरेट चंदे पर रोक लग सके। यह धनराशि पार्टियों को प्राप्त मतों के प्रतिशत के अनुपात में वितरित कर दी जाए। इससे दानदाता की गोपनियता बरकरार रहेगी और काले धन पर भी रोक लगेगी।
बॉक्स : ईमानदारी चाहिये तो ईमानदार चुनिये भी।
-अशित पाठक
सत्यं बृहद ॠतं उग्रं दीक्षा, तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति”।।
अथर्ववेद के इस श्लोक में स्पष्ट उदघोष है देश के राजनीतिज्ञ एवं युवा कैसे होने चाहिये। अर्थात् जिस राष्ट्र में देशभक्त, सत्यनिष्ठ, प्रचंड छात्रतेज..धर्मानुष्ठान एवं कर्तव्यपालन के गुणों से युक्त प्रत्येक शुभ कार्य को दक्षता पूर्वक संपन्न करते हैं तथा यथार्थ ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना रखते हैं। मातृभूमि या राष्ट्र के पालन पोषण करने में समर्थ होते हैं, वही अपना भूत वर्तमान और भविष्य में सब तरह से पोषित करने वाली मातृभूमि की रक्षा करके उसकी उन्नति के विस्तृत स्थान एवं अवसर प्रदान करें। यदि यह भावनाएँ हमारे राजनेताओं में होंगी तो वह कभी धन लोलुप नहीं होगा किन्तु ऐसा धरातल पर है कहाँ? अब चूंकि आज कल चुनाव का माहौल चल रहा है इसलिए सारी पार्टियां सिर्फ सत्ता प्राप्ति युद्ध के लिये मैदान में उतरी हुई हैं। जी हां सिर्फ सत्ता के लिये और इस सत्ता के लिये सब कुछ कर रही हैं।
हिन्दू मुस्लिम और राष्ट्रवाद का उन्माद, जातियों का बेमेल बुआ बबुआ का गठबंधन और करोड़ो रूपये का चुनाव के व्यापार में बेहिसाब इन्वेस्टमेंट। इसके बिना तो लोकतंत्र का चुनाव असम्भव है क्योंकि पैसा बांटना है। शराब पिलानी है, और जाने कितने जाति धर्म के ठेकेदारों को खरीदना है। यही तो लोकतंत्र है। अभी कुछ दिन पहले एक राष्ट्रीय चैनल ने कुछ बड़े नेताओं का जो चुनाव लड़ने की जुगत में थे का स्टिंग किया जिसमें सभी इस बात का दावा करते नजर आ रहे हैं कि 15 से 20 करोड़ चुनाव में खर्च होगा। एक पूर्व सांसद ने तो यह तक कह दिया कि 2014 में उन्होने 15 करोड़ खर्च किये थे फिर भी हार गए इस बार बता रहे दुगना खर्च होगा क्योंकि जिस पार्टी से टिकेट माँग रहे वो उनको करोड़ो में खरीदना पड़ेगा, अब चुनावी व्यापार में दुबारा दांव लगाना है तो इतना इन्वेस्टमेंट तो मामूली बात है, अब प्रश्न यह उठता है कि जो उम्मीदवार 15 से 20 करोड़ चुनाव में खर्च करेगा वो सेवा के लिये तो अपनी जेब से पैसा तो लगाएगा नही निश्चित है उसका गणित है कि 20 करोड़ खर्च कर सत्ता के गलियारों में यदि उसकी दुकान सज गई तो इस व्यापार में मुनाफा अंधाधुंध है और इस व्यापार में करना ही क्या है। सिर्फ देश और देशवासियों को संवैधानिक शक्तियों का अनैतिक अमर्यादित प्रयोग कर आराम से ताल ठोककर लूटना ही तो है। जब इस लूट की पोल खुल जाए तो बेशर्मी से दांत फैलाकर बोल देना है यह विरोधियों की साजिश है। अब तो राजनीति और राजनीतिज्ञों की भाषा भी अमर्यादित, आचरण भी अमर्यादित,और विचारधारा का स्तर। उसकी तो कल्पना ही न कीजिये क्योंकि राजनीति में विचारधारा सिर्फ पार्टीयों के संविधान में ही सिमटी हुई रह गई है वास्तव में पता ही नही चलता कि शाम तक जय श्रीराम की विचारधारा के नारे लगाने बाला सुबह तक, कब जय भीम के विचार का जयघोष करने लगे। या फिर कोई पक्का गाँधीवादी शाम होते होते गोडसे की विचारधारा का समर्थन करते नजर आ जाये। और छोड़िये बात समाजवाद की जो सिर्फ एक परिवारवाद का विचार ही बन गया है और दलितों के उत्थान की देवी तो वाकई में बेशुमार धन दौलत की देवी बन गई है। बेचारा दलित केवल उनकी तिजोरी के वोट की दौलत बन गया है। कुल मिलाकर विचारधारा सिर्फ जनता को वोटबैंक बनाने के लिये है बाकी नेताओं का चेक तो जब चाहे किसी की विचारधारा बाली बैंक में 24 घण्टे कैश हो जाता है।
कुछ लोग कहते है कि सत्ता की सियासत एक वैश्या की तरह है और कब किसके होठो से लग जाये पता नही परन्तु मेरा मानना है कि राजनीति देश का भविष्य तय करती है। इस राजनीति की इस हद तक गिरावट इस देश के भविष्य के लिये सही नही है। अब जनता को केवल वोट देने तक ही नही सीमित रहना चाहिये बल्कि इस राजनीति में सक्रिय योगदान भी लेना चाहिये। एक बड़ी पहल करनी चाहिये कि केवल पार्टियों के द्वारा थोपे गए राजनीतिक व्यापारियों को वोट न देकर स्वयं अपने बीच से अपना प्रत्याशी खड़ा करना चाहिये जो देशसेवा के लिये राजनीति में आये न कि राजनीतिक व्यापार के लिये। क्योंकि राजनीति सेवा है व्यापार नही। मेरा मानना है कि देश के उन युवाओं को आगे आना चाहिये जो अपना आदर्श नेता जी सुभाष चंद्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री जी को मानते हैं। आज इस देश को खासतौर से राजनैतिक क्षेत्र में ईमानदार नेतृत्व की आवश्यकता है और इसके लिये जनता को यह समझना पड़ेगा कि यदि “ईमानदार चाहिये तो ईमानदार चुनना भी पड़ेगा”, और जाति धर्म के आधार पर बेईमान लुटेरे माफियाओं का सम्पूर्ण बहिष्कार करना पड़ेगा। जैसे हमें अपने शरीर, घर, धन, दौलत से प्रेम होता है और उसको हम लुटने व नष्ट होने नहीं देते हैं वैसे ही हमें अपने देश, देश की भूसम्पदाओं, जल, जंगल, जमीन, जड़ी-बूटियों व किसानों एवं जवानों से प्रेम होना चाहिए तथा किसी भी कीमत पर देश को लुटने व बरबाद नहीं होने देना चाहिए।
बॉक्स : आपराधिक प्रवृत्ति, काला धन एवं पारदर्शिता विहीन राजनैतिक दल
-अमित त्यागी
आपराधिक प्रवृत्ति, काला धन एवं पारदर्शिता जैसे सवाल सिर्फ सुनने में अच्छे लगते हैं। वास्तविकता के धरातल पर इस पर न राजनैतिक दल गंभीर हैं न ही जनता। राजनैतिक दल जीतने के लिए जाति और धर्म आधारित राजनीति करते रहते हैं। जनता अपनी ही जाति और धर्म के लोगों को वोट देती है। दोनों के द्वारा अपराध और आपराधिक प्रवृत्ति प्राथमिकता में ही नहीं होता है। जीत के समीकरण बनाने के क्रम में भारतीय वैश्विक रूप में कितना अपमान सहते हैं उसका अंदाज़ा अन्तराष्ट्रिय स्तर की रिपोर्टों से पता चलता है। विश्व आर्थिक मंच ने भ्रष्टाचार को भारत में कारोबार का सबसे बड़ा रोड़ा माना है। ट्रांसपेरेंसी इंटेरनेशनल ने भारत को एशिया-प्रशांत में सबसे भ्रष्ट देश कहा है। मानव विकास सूचकांक में दुनिया के 188 देशों में भारत का स्थान 131 है। भारत का सरकारी तंत्र मूलभूत सुविधाएं, बेहतर स्वास्थ्य एवं रोजगारपरक शिक्षा दिलवाने के स्थान पर स्विस खातों को भरने में लग गए। चूंकि सत्ता और व्यवस्था में बैठे लोग दागी, आपराधिक प्रवृति के और विदेशी चंदे से पल्लवित थे इसलिए जनता का हित उनकी प्राथमिकता में था ही नहीं।
2002 में उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया कि चुनाव में नामांकन के समय हर उम्मीदवार को उससे जुड़े प्रत्येक विवरण को सार्वजनिक करना होगा। सरकार द्वारा इसे निष्प्रभावी करने के लिए कानून लाया गया तो 2003 में उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश को निष्प्रभावी करने वाले कानून को रद्द करते हुये अपना पुराना फैसला बरकरार रख दिया। लिली थॉमस और लोकप्रहरी बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालय ने दोषी साबित होने के बावजूद संसद या विधानसभा की सदस्यता बरकरार रखने वाली जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा-8(4) को असंवैधानिक ठहरा दिया। 2013 में मुख्य चुनाव आयुक्त बनाम जन चौकीदार वाद में उच्चतम न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के उस फैसले पर अपनी मुहर लगा दी जिसके अनुसार ऐसी व्यवस्था दी गयी कि जेल में रहते हुये कोई चुनाव नहीं लड़ सकता है। 27 सितंबर 2013 को उच्चतम न्यायालय के आदेश पर ईवीएम में एक अतिरिक्त बटन नोटा लगाने का आदेश हुआ। इसके अनुसार अगर मतदाता की अपेक्षों पर कोई भी उम्मीदवार खरा नहीं उतरता है तो वह ‘नन ऑफ थे अबव’ का विकल्प चुन सकता है। नोटा के 15 साल बीतने के बाद आज भी यह स्पष्ट नहीं है कि अगर नोटा को सर्वाधिक मत मिल जाते हैं तो क्या वहाँ फिर से चुनाव कराये जाने चाहिए। जनता ने भी राजनेताओं को कोसा तो बहुत है किन्तु कहीं भी नोटा की शक्ति का आभास नहीं कराया है। कुछ अन्य प्रयास भी हुये जिसमे केन्द्रीय सूचना आयोग के द्वारा राष्ट्रिय दलों को आरटीआई के दायरे में लाना शामिल रहा। जुलाई 2013 में उच्चतम न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देशित किया कि वह राजनैतिक दलों के साथ मशवरा करके ऐसा मसौदा तैयार करे जिसमे दलों के द्वारा चुनाव के समय घोषणा पत्रों के माध्यम से दिये जाने वाले मुफ्त के उपहारों का क्रियान्वयन हो सके।
इन सब विषयों और समस्या का समाधान कानून बनाने से नहीं जनता की जागरूकता से होगा। जनता को संविधान के मूल अधिकारों, राज्य के नीति निर्देशक तत्वों एवं इन सबसे पहले संविधान की मूल भावना को आत्मसात करना होगा। संविधान संशोधन की प्रक्रिया में स्विज़रलैंड जैसे देश की तरह सहभागी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मॉडल तैयार करना होगा। सहभागी लोकतान्त्रिक व्यवठा में जनता सीधे कानून के निर्माण में भाग लेती है। पर उसके लिए पहले जनता का जागरूक और विवेकशील होना आवश्यक है। जनता को अपनी संकीर्ण सोच से बाहर आना होगा। इसके लिए जागरूकता कार्यक्रम चलाने होंगे। सिविल सोसाइटी को मजबूत होना होगा। तकनीक के इस्तेमाल से जन-जन तक आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों से होने वाली हानियों का प्रचार करना होगा। लोकतान्त्रिक प्रणाली को मजबूत करने के क्रम में आपराधिक प्रवृति मुक्त विधायिका एवं काला धन मुक्त राजनीति की तरफ धीरे धीरे ही सही, कुछ तो आगे बढ़ना होगा। शायद, तभी रूल ऑफ ला इंडेक्स में जो भारत का निम्न स्थान है वह 62वे स्थान से कुछ सुधर जाये। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा 1594 उम्मीदवारों के शपथपत्रों का विश्लेषण किया गया। इनमें 21 फ़ीसदी उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 14 फ़ीसदी ऐसे उम्मीदवार हैं जिन पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। |
चुनावी मैदान में खड़े 25 फ़ीसदी उम्मीदवार करोड़पति हैं। सिर्फ तीसरे चरण के उम्मीदवारों की औसतन संपत्ति करीब 3 करोड़ रुपये हैं। |
Ø 340 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज
Ø 230 उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज Ø 392 उम्मीदवार करोड़पति Ø उम्मीदवारों की औसतन संपत्ति 2.95 करोड़ रुपये |