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छोटे दलों की बढ़ती सक्रियता रोचक बनती राजनीति

 

देश भर के राजनीतिक खानदानों में वर्चस्व की एक जंग मची हुयी है। लालू, मुलायम, करुणानिधि, चौटाला के परिवारों में सत्ता के वह ऐब अब सतह पर आ गए दिखते हैं जो क्षेत्रीय दलों के शासन काल में जनता भुगतती थी। सत्ता की आदत ही कुछ ऐसी होती है कि उसके बगैर रहना अहम को ठेस पहुंचा देता है। क्षेत्रीय दलों से अलग होकर ये लोग अब स्थानीय वोट कटवा दल बन कर रह गए हैं। कहीं यह दल कांग्रेस की बी टीम हैं तो कहीं भाजपा की। बड़े दलों द्वारा छोटे दलों को फंडिंग भी की जाती है। इस तरह से कांग्रेस मुक्त भारत के बाद क्षेत्रीय दलों से मुक्त राज्य की तरफ भारत की राजनीति बढऩे लगी है। अपने वर्चस्व को बचाने के लिए क्षेत्रीय दल अब राष्ट्रीय दलों के मुद्दों में भी सेंध लगाने लगे हैं। अयोध्या और राम मंदिर पर आकर सारा और सबका गणित टिकने लगा है। 

अमित त्यागी

राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों की बढ़ती भूमिका केंद्र की राजनीति को कमजोर करती है। अल्पमत सरकारों के दौर में क्षेत्रीय दलों द्वारा केंद्र में शासन करने वाले दलों पर दबाव बनाया जाता रहा है। हालांकि, क्षेत्रीय दल होने से राष्ट्रीय दल भी नियंत्रित रहते हैं किन्तु सत्ता अब व्यापार बन गयी है। इसलिए न तो क्षेत्रीय दल और न ही राष्ट्रीय दल जनता के सरोकारों पर ध्यान देते हैं। दोनों ही समय समय पर अपने अपने हिसाब से एक दूसरे का इस्तेमाल करते रहते हैं। 2019 की तैयारी में छोटे दलों द्वारा आपस में गठबंधन करके एक बड़ी सौदेबाजी को अंजाम देना शुरू हो गया है। एससीएसटी कानून से सवर्णों में जो नाराजगी देखी गयी थी उस पर भी कई क्षेत्रीय दलों ने नजऱें गड़ा दी थीं। कई तरह के आंदोलन हुये। राजा भैया ने सवर्ण वोटों पर अपनी नजऱ गड़ाते हुये एक नए दल बनाने की घोषणा कर दी। काफी समय से हाशिये पर चल रहे प्रवीण तोगडिय़ा ने राम मंदिर के मुद्दे पर जनता में एक चिनगारी भरने की कोशिश की। अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दू परिषद नाम से संगठन बनाकर विश्व हिन्दू परिषद के वर्चस्व को खुली चुनौती दी। अयोध्या में अपनी शक्ति भी उन्होंने प्रदर्शित की। राजनीतिक दल बनाने का आह्वान भी किया। मुलायम सिंह और अखिलेश यादव के झगड़े में पिसे शिवपाल यादव ने स्वयं को बचाने के लिए एक नया सेकुलर मोर्चा बना लिया। अब शिवपाल और अखिलेश आमने सामने आ खड़े हुये हैं। मुलायम सिंह किसके खेमे में हैं इसके बारे में तो बड़े बड़े विश्लेषक भी नहीं बता पाते हैं। जब जब वह अखिलेश के साथ दिखते हैं तब वह शिवपाल का भला कर रहे होते हैं और जब वह शिवपाल का साथ देते हैं तब अखिलेश फायदे में आ जाते हैं। शायद, यही राजनीति का तरीका रहा है मुलायम सिंह यादव का जिसमें औरों के अव्यवस्थित रहने की स्थिति में वह व्यवस्थित रहते हैं। वह महागठबंधन के पैरोकार भी दिखते हैं और विरोधी भी।

छोटे और क्षेत्रीय दलों के द्वारा राजनीति में एकजुटता दिखाकर स्वयं के हित साधने में कुछ भी नया नहीं है। 1952 में देश में पहली लोकसभा के लिए चुनाव हुये तो कांग्रेस इकलौता और सर्वस्वीकार्य दल था। 1967 तक कांग्रेस की स्थिति बेहद मजबूत रही। 1967 में जब विपक्ष के छोटे दलों को लगा कि अब कांग्रेस में पहले जैसी मजबूती नहीं है तब उन्होंने संयुक्त होने का फैसला किया। इसके फलस्वरूप दस प्रदेशों में संयुक्त विधायक दल की सरकारें बन गईं। चूंकि, इस सरकार में शामिल ज़्यादातर विधायक कांग्रेस के बागी ही थे तो ये सरकारें ज़्यादा लंबे समय तक अस्तित्व में न रह सकीं। इसके बाद कांग्रेस का विभाजन हो गया और इन्दिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस एक बड़ा घटक दल बन गया। इन दो घटकों को इंडिकेट और सिंडिकेट कहा गया। इसके बाद 1971 में जब चुनाव हुये तब विपक्ष के दलों को लगा कि उनका संयुक्त होना उनके लिए लाभकारी है। इस तरह वह संयुक्त होकर कांग्रेस को हरा सकते हैं। लोकसभा चुनाव जीतने के लिए इक_े हुये इन विपरीत ध्रुवों ने अपना नाम ग्रैंड अलाइन्स रखा। इस अलाइन्स ने अपना कोई भी प्रधानमंत्री उ मीदवार घोषित नहीं किया। किसी एक बड़े चेहरे को इन्दिरा गांधी के सामने आगे नहीं किया गया। ये दल सोच रहे थे कि एक बार जीत जाये तो बाद में आपस में सौदेबाजी से प्रधानमंत्री बना लेंगे। इनकी यह सोच लॉप हो गयी। ये लोग चुनाव हार गए। कमजोर दिखने वाली इन्दिरा गांधी प्रचंड बहुमत के साथ जीत गईं। संयुक्त विपक्ष का दांव इन्दिरा गांधी के पक्ष में काम कर गया। इसके बाद आपातकाल के बाद इन्दिरा गांधी काफी कमजोर हो गईं थीं। जय प्रकाश नारायण अपने पूरे शबाब पर थे। उनका जेपी आंदोलन देश की दशा और दिशा निर्धारित करने वाला लगने लगा था। इस आंदोलन की छांव में विपक्षी दल एकजुट हुये। आज की भाजपा के तत्कालीन प्रारूप जनसंघ भी उस विपक्ष में शामिल हुयी। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और अटल जी विदेश मंत्री। चूंकि, विपक्ष में वैचारिक समानता नहीं थी इसलिए 1979 आते आते वह संयुक्त विपक्ष टूट गया। सरकार गिर गयी। इसके बाद 1980 में इन्दिरा गांधी प्रचंड बहुमत से सत्ता में वापस आयीं। इसके बाद 1989 में कांग्रेस से टूट कर गए वीपी सिंह के नेतृत्व में संयुक्त विपक्ष एक हुआ किन्तु 11 महीनों में सरकार गिर गयी। यह वह दौर था जब देश में मण्डल-कमंडल की राजनीति शुरू हुयी। देश की राजनीति जाति-धर्म में इस तरह बांटी गयी जिसकी आंच में देश आज भी जल रहा है। भाजपा, कांग्रेस, क्षेत्रीय दलों सभी ने देश की जनता को बांटने की आग में घी का काम किया। देश में अल्पमत की सरकारें बनती रही और 2014 में जाकर देश को एक दल के बहुमत की सरकार मिली। 1990 और 2014 के बीच जिन जिन नेताओं ने क्षेत्रीय दलों का नेतृत्व किया उन सबके परिवारों में आज वर्चस्व की जंग मची हुयी है।

पारिवारिक कलह से परेशान क्षेत्रीय क्षत्रप 

मुलायम, लालू, चौटाला, करुणानिधि यह वह नाम हैं जो अपने अपने प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों के बड़े नाम रहे हैं। क्षेत्रीय राजनीति को इन लोगों ने बहुत पनपाया था। आज इनके परिवारों में आपस में खींचतान मची है। लालू यादव और चौटाला आज जेल में हैं। सबसे पहले अगर करुणानिधि की बात करें तो करुणानिधि की मृत्यु के बाद उनके दोनों बेटों स्टालिन और अलागिरी की लड़ाई अब सड़क तक आ चुकी है। जब करुणानिधि जीवित थे तब उन्होंने अपना वारिस स्टालिन को घोषित कर दिया था। अलागिरी को पार्टी से बाहर कर दिया गया था। उस समय स्टालिन पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष थे और आज वह पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष हैं। करुणानिधि के जाने के बाद अब अलागिरी डीएमके के अंदर प्रवेश चाहते हैं और इसलिए उनके और स्टालिन के बीच में घमासान मचा हुआ है। चूंकि स्टालिन पार्टी के अध्यक्ष हैं इसलिए अलागिरी सिर्फ हाथ पैर ही मार पा रहे हैं। अलागिरी का तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में अच्छा प्रभाव है इसलिए उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का नुकसान तो डीएमके को होना तय है। इसी तरह का समीकरण एआईडीएमके में जयललिता की मौत के बाद का है। शशिकला एवं उनकी विरासत संभालने का दावा करते रहते हैं।

अगर हरियाणा की तरफ देखें तो वहां पूर्व उपप्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल का परिवार बड़ा राजनीतिक कद रखता रहा है। उनके बेटे ओमप्रकाश चौटाला भी हरियाणा के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उनके मुख्यमंत्री रहते उन पर भ्रष्टाचार के खूब आरोप लगे और आज वह जेल में हैं। उनके दोनों बेटे अजय चौटाला और अभय चौटाला आपस में लगातार लड़ रहे हैं। ओमप्रकाश चौटाला चाहते हैं कि अभय चौटाला पार्टी की कमान संभाले किन्तु अजय चौटाला को यह निर्णय हजम नहीं हो रहा है। अजय चौटाला स्वयं इस समय जेल में बंद हैं। अजय चौटाला के बेटे और ओम प्रकाश चौटाला के पुत्र दिग्विजय चौटाला वर्तमान में सांसद भी हैं। यह पारिवारिक लड़ाई इतनी ज़्यादा बढ़ चुकी है कि अभी कुछ समय पूर्व जब ओमप्रकाश चौटाला जेल से पेरोल पर वापस आये तो उन्होंने अपने बेटे अजय और पौत्र दिग्विजय को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। ओमप्रकाश चौटाला की कोशिश जेल से पार्टी चलाने की है जिसे वह अभय चौटाला के जरिये नियंत्रित करना चाहते हैं।

क्षेत्रीय दलों के एक बड़े नेता लालू यादव के परिवार में भी एक घमासान मचा हुआ है। मुसलमान और यादव के गठजोड़ के द्वारा तीन बार मुख्यमंत्री रहे लालू यादव के ऊपर भी भ्रष्टाचार के खूब आरोप लगे। चारा घोटाले में वह जेल के अंदर हैं। नितीश कुमार से गठबंधन करके वह बिहार की सरकार में तो आ गए थे किन्तु नितीश कुमार को भाजपा ले उड़ी। अब लालू यादव का दल विपक्ष में हैं और लालू जेल में। उनकी समस्या यहीं तक सीमित नहीं हैं। उनके परिवार की हालत और भी ज़्यादा खस्ता बनी हुयी है। नितीश सरकार में साथ रहने पर उन्होंने अपने दोनों बेटों तेजस्वी और तेज प्रताप को कैबिनट मंत्री बनवा दिया था। तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री भी बन गए थे। तेजप्रताप यादव और तेजस्वी के बीच की पारिवारिक कलह अब सार्वजनिक हो चुकी है। तेजप्रताप यादव की शादी बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रहे दारोगा राय की प्रपोत्री ऐश्वर्या राय से हुयी है। ऐश्वर्या स्वयं राजनीति में स्थापित होना चाहती हैं। ऐसे में पारिवारिक कलह घटने के स्थान पर लगातार बढ़ रही है। लालू की बेटी मीसा भारती राज्यसभा सांसद हैं। यानि कि पूरा लालू परिवार किसी न किसी ओहदे पर है और वह स्वयं जेल में हैं।

इन सब परिवारों में सबसे महत्वपूर्ण और दिलचस्प लड़ाई मुलायम सिंह यादव के परिवार में हैं। अखिलेश यादव और शिवपाल यादव में सपा की विरासत को लेकर शुरू हुयी जंग में अब शिवपाल ने अपना अलग सेकुलर मोर्चा बना लिया है। दोनों के बीच लड़ाई की शुरुआत 2012 में हुयी थी। समाजवादी सरकार बनने के क्रम में शिवपाल का योगदान ज़्यादा बड़ा था। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि शिवपाल और मुलायम सिंह ने ही सपा की बुनियाद रखी और उसे उसके मुकाम तक पहुंचाया। शिवपाल सहकारिता के बड़े खिलाड़ी रहे हैं और उसी के माध्यम से सपा ने प्रदेश में सत्ता प्राप्त की। 2012 में पूर्ण बहुमत मिलने के बाद शिवपाल चाहते थे कि वह मुख्यमंत्री बने किन्तु तब मुलायम सिंह ने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बना दिया। इस दौरान खनन और ठेकों के भ्रष्टाचार के खूब आरोप लगे। चार साल तक तो अखिलेश यादव खामोश रहे किन्तु चार साल बाद उन्होंने अपनी सरकार के सारे भ्रष्टाचार शिवपाल के माथे रख दिये और खुद पाक साफ बन गये। शिवपाल मन मसोस कर रह गये। इस दौरान नेताजी शिवपाल का हाथ थामे दिखते रहे और आश्चर्यजनक रूप से अखिलेश यादव मजबूत होते गये। जब तक शिवपाल यादव को अखिलेश-मुलायम का खेल समझ आता वह राजनीतिक पंगु बनाए जा चुके थे। अब वह लोकसभा की तैयारी कर रहे हैं। अमित शाह का हाथ उन पर रखा हुआ लगता है। भाजपा ने ऐसे असंतुष्टों के जरिये 2019 में बड़ा खेल करने की तैयारी शुरू भी कर दी है।

असंतुष्टों की रेल में बना भाजपा का खेल

 

भाजपा के आलाकमान को चुनाव प्रबंधन करना बखूबी आता है। जब जब भाजपा और मोदी से लोगों का आकर्षण थोड़ा कम होता है। जब जब थोड़ा वोट बैंक खिसकता दिखता है तब तब भाजपाई दूसरे दलों के वोट बैंक में सेंध लगा लेते हैं। क्षेत्रीय दलों के अंदर चल रही गुटबाजी और फूट का फायदा उठाते हुये उनके असंतुष्टों और बागियों से भाजपा का भला हो जाता है। जैसे शिवपाल यादव से भाजपा का ही भला होने जा रहा है। सपा से टिकट के दावेदारों में जिसको सपा से टिकट नहीं मिलेगा वह शिवपाल के खेमे में चला जाएगा। उसे जितने भी वोट मिलेंगे वह सपा के ही कटेंगे। मुसलमान और यादव के गठजोड़ के आधार पर राजनीति करने के कारण शिवपाल और सपा दोनों की पकड़ इसी वोट बैंक पर ज़्यादा है। यह दोनों वर्ग ही भाजपा का वोट बैंक नहीं है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में राजा भैया की स्थिति है। एससीएसटी एक्ट को भुनाने के लिए राजा भैया मैदान में कूद गए। सवर्णों की भाजपा से नाराजगी देखते हुये राजा भैया ने 2019 का सपना देखना शुरू कर दिया। पांच बार विधायक रहे निर्दलीय राजा भैया ने नयी पार्टी के लिए प्रक्रिया भी शुरू कर दी है। इसके बाद जब योगी आदित्यनाथ ने नाम बदलने का क्रम शुरू किया तब भाजपा के पक्ष में हिन्दुत्व की लहर बनना शुरू हो गयी। पहले इलाहाबाद को प्रयागराज एवं इसके बाद फैजाबाद का नाम अयोध्या कर दिया गया। इसके द्वारा राम मंदिर मुद्दा स्वत: गरमा गया। प्रवीण तोगडिय़ा द्वारा राम मंदिर मुद्दे पर उत्तर प्रदेश की राजनीति में जो हलचल पैदा की गयी वह अन्य दलों को भी रास आ गयी। शिवसेना और उद्धव ठाकरे ने भी इस मुद्दे को लपकने में देर नहीं लगाई। अयोध्या में राम मंदिर के सहारे शिवसेना अब महाराष्ट्र के बाहर निकलने की तैयारी कर रही है। पार्टी को इस बात का पूरा अंदाजा हो गया है कि महाराष्ट्र में अब भाजपा नंबर-2 का दल बनकर नहीं रहने वाली है।  इसलिए अस्तित्व बचाए रखने के लिए अब शिवसेना ने अयोध्या का मुद्दा थामा है। इस बात की भनक संघ और भाजपा को पहले ही लग चुकी थी। विजयादशमी के मौके पर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे 25 नवंबर को अयोध्या जाने का ऐलान करते कि उससे पहले ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग कर दी। मोहन भागवत के इस बयान ने उद्धव ठाकरे की रणनीति पर पानी फेर दिया और इसके बाद से उद्धव ठाकरे के निशाने पर संघ प्रमुख भी आ गए।

राम मंदिर का मुद्दा होने जा रहा सब पर हावी

2019 के चुनाव अब राम मंदिर पर आकर टिक गए हैं। अयोध्या में संतों का जमावड़ा और विश्व हिन्दू परिषद की गतिविधियां इसकी गवाह हैं। क्षेत्रीय दलों की सरगरमियां अब खुद के अस्तित्व को बचाने पर टिक चुकी हैं। लोकसभा चुनाव से पहले मंदिर निर्माण का मुद्दा क्यों गरमाया हुआ है? क्या बीजेपी इन चुनावों में हिंदुत्व के सहारे है? यह विश्लेषण का विषय हो सकता है। लेकिन पर्दे के पीछे की कहानी कुछ और ही है। दरअसल हालात को भांपते हुए आरएसएस से जुड़े संगठन विश्व हिंदू परिषद ने 25 नवंबर को धर्म संसद का ऐलान कर दिया था। इसके बाद पूरे देश से लाखों कार्यकर्ताओं को अयोध्या पहुंचने का ऐलान कर दिया गया।  जितनी तेजी से उद्धव ठाकरे 25 नवंबर को अयोध्या आने के पहले बयान और कार्यक्रम कर रहे थे उसी तरह वीएचपी भी उत्तर प्रदेश और आसपास के राज्यों में सक्रिय हो चुकी थी। धर्मसंसद को देखते हुए शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का एक दिन पहले ही यानी 24 नवंबर को अयोध्या पहुंचने का कार्यक्रम बना लिया। उत्तर प्रदेश में शिवसेना का कैडर मजबूत नहीं था इसलिए ठाकरे के साथ महाराष्ट्र से शिवसैनिक भी लाये गए। इस पूरी कवायद के पीछे सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई है ताकि जनवरी में जब कोर्ट इसकी तारीख तय करने के लिए बैठे तो उसको इस मुद्दे की अहमियत के बारे में भी बताया जा सके। अब इस मुद्दे के द्वारा भाजपा और अन्य क्षेत्रीय दल अपनी अपनी आस लगाएं बैठे हैं। क्षेत्रीय दलों के अंदर का घमासान जितना रोचक है उससे ज़्यादा रोचकता अब उनके राजनीतिक इस्तेमाल में आने लगी हैं। अब क्षेत्रीय दलों का बोया हुआ राष्ट्रीय दल काटने जा रहे हैं। भाजपा की एक और विजय को अमित शाह के कुशल प्रबंधन की जीत ही माना जाएगा।

जम्मू-कश्मीर विधानसभा : क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षा

पर चला राज्यपाल का चाबुक

भाजपा और पीडीपी की सरकार गिरने के बाद से ही जम्मू कश्मीर में खिचड़ी पकनी शुरू हो गयी थी। पीडीपी, नेशनल कान्फ्रेंस और हुर्रियत सरकार बनाने का प्रयास कर रहे थे। एक दूसरे के धुर विरोधी ये दल किस विचारधारा के आधार पर जुड़ रहे थे कहा नहीं जा सकता है। सबसे पहले जम्मू-कश्मीर में पीडीपी नेता महबूबा मु ती ने कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा करने वाला पत्र फैक्स से राज्यपाल को भेजा जो उस दिन छुट्टी होने के कारण रिसीव नहीं हुआ। महबूबा मु ती ने राज्यपाल सत्यपाल मलिक को लिखे पत्र में कहा कि राज्य विधानसभा में पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी है, जिसके 29 सदस्य हैं। आपको मीडिया की खबरों में पता चला होगा कि कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस ने भी राज्य में सरकार बनाने के लिए हमारी पार्टी को समर्थन देने का फैसला किया है। नेशनल कान्फ्रेंस के सदस्यों की सं या 15 है और कांग्रेस के 12 विधायक हैं। अत: हमारी सामूहिक सं या 56 हो जाती है। महबूबा के बाद पीपुल्स कांफ्रेंस के लीडर सज्जाद लोन ने भी बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। सज्जाद लोन ने दावा किया कि उन्हें बीजेपी के 26 विधायकों के अलावा 18 अन्य विधायक भी समर्थन कर रहे हैं और यह आंकड़ा बहुमत का है। सज्जाद लोन ने राज्यपाल सत्यपाल मलिक को लिखे पत्र में कहा कि उनके पास सरकार बनाने के लिए जरूरी आंकड़ें से अधिक विधायकों का समर्थन है। इस तरह दोनों ओर से दावेदारी की खबरें आने के बाद राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने विधानसभा भंग कर दी।

जम्मू-कश्मीर में जब पीडीपी की अगुवाई में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के बीच गठबंधन की खिचड़ी पकने लगी, तभी बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की इस मसले पर बैठक हुई थी। महासचिव राम माधव सज्जाद लोन को समर्थन देकर बीजेपी के सपोर्ट से सरकार बनाना चाहते थे मगर पार्टी आलाकमान ने किसी भी तरीके से जोड़तोड़ करने से हाथ खड़े कर दिए। उस बैठक में यह भी तय हुआ था कि न तो खुद जोड़तोड़ कर सरकार बनाएंगे और न ही किसी दूसरे को बनाने देंगे। विधानसभा भंग करने के लिए कारणों पर राज्यपाल ने कहा कि बहुमत के लिए सभी पक्षों की ओर से अलग अलग दावें हैं वहां ऐसी व्यवस्था की उम्र कितनी लंबी होगी इस पर भी संदेह है। राज्यपाल ने पत्र में कहा ‘जम्मू कश्मीर में इस वक्त नाजुक हालात में सुरक्षा बलों के लिए स्थाई और सहयोगात्मक माहौल की जरूरत है। ये बल आतंकवाद विरोधी अभियानों में लगे हुए हैं और अंतत: सुरक्षा स्थिति पर नियंत्रण पा रहे हैं। राज्यपाल की ओर से विधानसभा भंग करने का उठाया गया कदम राज्य में छह महीने के भीतर विधानसभा चुनाव का मार्ग प्रशस्त करता है।

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