Shadow

जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है

जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है. लोग भूल गए हैं कांग्रेस के जमाने की लूट खसोट को…लोग भूल गए हैं उस सरकार को जो हिंदुओं के दमन के लिए देश में साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक लाने वाली थी…
फिर भी 1997 से 2004 की वह वाजपेयी जी की सरकार याद है, जिसने अल्पमत में होते हुए भी, ममता माया जयललिता की ड्रामेबाज़ी के बीच 5 साल देश को सही दिशा में चलाया था. संसद में बहुमत ना होने पर भी दोनों सदनों की संयुक्त बैठक करके POTA जैसा कड़ा कानून पास कराया था. जिसने पूरी दुनिया को ठेंगा दिखाते हुए परमाणु परीक्षण किया और सारे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों को कुशलता से झेला. जब हमने पाकिस्तान से कारगिल में युद्ध लड़ा और जीता और संसद पर हमले का जवाब सीमा पर सेना को चढ़ा कर आपरेशन पराक्रम के रूप में दिया जिससे सालभर तक पाकिस्तान की चड्ढी गीली रही…
वह सरकार भी परफेक्ट नहीं थी…सिर्फ बहुमत ही आधा अधूरा नहीं था, इच्छा शक्ति भी कहीं कहीं से दरकती नज़र आई जब वाजपेयी जी भी अपने हजपेयी अवतार में हरे हरे सद्भावना रथ में नज़र आये, आडवाणी जी को जिन्ना की मजार पर प्यार उमड़ आया…हिन्दू मन की वह स्वाभाविक नरमी और प्रतिद्वंदी से प्रशंसा खोजने की पुरातन कमजोरी नज़र आई और एक भ्रमित नेतृत्व की कीमत हमने 10 साल के देशद्रोही कुशासन से चुकाई.
फिर भी उस अल्पमत की सरकार के 5 वर्षों में याद करने को बहुत कुछ था…उसके मुकाबले मोदी जी की बम्पर बहुमत वाली 56 इंची सरकार इच्छा शक्ति के मामले में कहाँ टिकती नज़र आती है? हम इस सरकार का क्या याद करेंगे? मैडिसन स्क्वायर और वेम्बले स्टेडियम के वे मेगा शो? या तीन तलाक़ पर छेड़ी हुई आपकी बहस? या कश्मीरी भटके हुए मासूमों को राह दिखाने के लिए दिया गया आपका लाखों करोड़ का पैकेज जिसके बदले में हमारे जवान थप्पड़ और पत्थर खा रहे हैं?
स्वच्छ भारत के नारों और बुलेट ट्रेन के प्रयासों का क्या परिणाम दिखा है अबतक जमीन पर? जो योग दिवस संयुक्त राष्ट्र में मनाया जा रहा है, वह योग हमारे स्कूलों के पाठ्यक्रम में भी स्थान पायेगा क्या? सौ स्मार्ट सिटी कितनी स्मार्ट हुईं? शासन में, व्यवस्था में, देश में करेंसी नोट छोड़ कर अबतक क्या बदला है? क्या बदलने वाला है? क्या बदलने की योजना है? क्या ब्रेकिंग इंडिया शक्तियों को कुचलने की कोई इच्छा शक्ति किसी को नज़र आई है? क्या मीडिया को संयम और ईमानदारी से देशहित में पत्रकारिता करने की जिम्मेदारी तय करने के प्रयास हुए हैं? होने वाले हैं? कहीं दूर दूर तक आपकी प्राथमिकता में हैं?
वाजपेयी जी की सरकार इससे कम बहुमत के बावजूद इससे कहीं बहुत बेहतर थी…फिर भी 2004 में हम हार गए और देश को विखंडन के द्वार पर खड़ी करने वाली शक्तियां सत्ता में आ गईं. आप इसके लिए चाहे तो जनता को और जनता की मनोवृत्ति को जितना चाहिए दोष दे दीजिए. पर जनता की मनोवृत्ति तो वही है…और इस मनोवृति के बावजूद इसी जनता ने एक मौका भी दिया है…तो उस जनता की मनोवृत्ति को सुधारने के ही क्या उपाय हुए हैं? क्या सिर्फ मन की बात सुनकर सबका मन बदल जायेगा? क्या शिक्षा में राष्ट्रीयता और सनातन संस्कृति के तत्वों को प्रधानता दी गई है? क्या मीडिया की राष्ट्रविरोधी बोली पर लगाम लगाए बिना आप राष्ट्रनिर्माण की भाषा जन जन तक पहुंचा पाएंगे, नेशनलिस्ट नैरेटिव को स्थापित कर पाएंगे?
या बस एक मन की बात ही बची है मन बहलाने को…कहीं जनता इस का जवाब फिर बेमन से ही ना दे दे…

राजीव मिश्रा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *