सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव नतीजों को लेकर कांग्रेस कितनी आशावान थी, इसका अंदाजा पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी की 21 मई की प्रेस कांफ्रेंस से चलता है। चुनाव नतीजे आने के ठीक दो दिन पहले राहुल गांधी ने जिस आत्मविश्वास से कहा था कि उन्होंने नरेंद्र मोदी के भागने के सभी रास्ते बंद कर दिए हैं, उससे ही साबित होता है कि पार्टी सत्ता में वापसी को लेकर कितनी आश्वस्त थी। पार्टी की इस आशावादिता को कुछ दिन बाद आई खबरों ने भी जाहिर किया, जिसमें कहा गया है कि पार्टी की आंकड़ा विश्लेषण करने वाली टीम ने 184 लोकसभा सीटें जीतने का अनुमान जताया था, जिसके चलते कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी सलाहकार मंडली पूरे उत्साह में थी। यहां तक कि पार्टी ने भावी मंत्रिमंडल के लिए नाम भी तय कर लिए थे। जिसमें गृहमंत्री पद के लिए द्रविड़ मुनेत्र कषगम के नेता स्टालिन का नाम तय करके उन्हें फोन भी कर दिया गया था। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने भले ही चुनाव न लड़ा हो, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उन्हें भी फोन करके सरकार में शामिल होने और महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए कह दिया था। चुनाव नतीजों के प्रति पार्टी की आशावादिता का इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पार्टी ने राष्ट्रपति को भेजने के लिए दो चि_ियां भी लिखकर रख ली थीं। जिनमें एक में जहां सरकार बनाने का दावा पेश किया जाना था, वहीं दूसरे में गठबंधन के सहयोगियों से समर्थन का पत्र था। पार्टी को कितना आत्मविश्वास था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ इस्तेमाल की जाने वाली भाषा से भी इसे समझा जा सकता है। लेकिन 23 मई को जब ईवीएम का पिटारा खुला तो कांग्रेस के सारे सपने बिखर गए। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की किंचित सफलता मान सकते हैं कि उन्होंने 2014 के मुकाबले 2019 में महज आठ सीटें ज्यादा हासिल कीं। लेकिन यह जीत पार्टी का उत्साह बढ़ाने के लिए काफी नहीं है। सबसे चिंताजनक पहलू यह रहा कि 1980 से कांग्रेस का लगातार गढ़ रही उत्तर प्रदेश की अमेठी सीट से पार्टी हार गई। राहुल गांधी यहां से लगातार 2004 से सांसद थे। इसके पहले 1998 से 2004 तक उनकी मां और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी यहां से चुनी जाती रहीं। दिलचस्प यह रहा कि जब राहुल गांधी राजनीति के सर्वोच्च शिखर पर आए, अध्यक्ष रहते यहां से हार गए। उनकी इज्जत तो केरल और पंजाब ने रख ली, जहां से पार्टी को क्रमश: 19 और 7 सीटें मिलीं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का शिराजा खड़ा होने से पहले ही बिखर गया।
लगातार दो लोकसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस की उम्मीदों को जोरदार झटका लगना स्वाभाविक ही है। 25 मई को जब कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पार्टी की हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया। लेकिन पूरी कार्यसमिति उनके इस्तीफे की वापसी के पीछे पड़ी हुई है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मनाते रहे। उन्हें मनाने के लिए उनकी मां के घर दस जनपथ और उनके घर तुगलक लेन के साथ ही कांग्रेस मुख्यालय पर प्रदर्शन होते रहे। लेकिन 30 मई को राहुल गांधी ने साफ कर दिया कि वे कांग्रेस अध्यक्ष पद से दिया अपना इस्तीफा वापस नहीं लेंगे। उन्होंने पार्टी से कह दिया है कि वह अपने लिए नया अध्यक्ष चुन ले। हाल के दिनों में देश के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की खबर कांग्रेसी हलकों से निकली। लेकिन उस पर अभी पुष्टि करने वाला कोई नहीं है। इस बीच गांधी परिवार के पुराने वफादार और नजदीकी मणिशंकर अय्यर ने 23 जून को बयान दिया है कि कांग्रेस का अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर का हो सकता है। इस बयान से जाहिर है कि अब राहुल गांधी की जिद्द के सामने कांग्रेस का प्रथम परिवार भी झुकने की तैयारी में है। यानी कांग्रेस पार्टी अब गांधी नेहरू परिवार से बाहर का कोई नया अध्यक्ष चुनने के लिए मन बना रही है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि कांग्रेस की अंदरूनी कामकाज में गांधी परिवार की भूमिका खत्म हो जाएगी। मणिशंकर अय्यर ने कहा है कि भले ही गैर गांधी परिवार से कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुना जाए, लेकिन गांधी परिवार को कांग्रेस में अपनी भूमिका निभानी पड़ेगी।
कांग्रेस और गांधी-नेहरू परिवार के बारे में कहा जा सकता है कि कांग्रेस संतरे की तरह है। जिसके नेता संतरे की फांक की तरह एक-दूसरे के साथ होते हुए भी अलग-अलग हैं। जबकि गांधी-नेहरू परिवार उसका छिलका है। जैसे ही वह छिलका अलग होता है, कांग्रेस बिखरने लगती है। कांग्रेस की राजनीति पर इंदिरा की पकड़ बढऩे के बाद से निश्चित तौर पर गांधी-नेहरू परिवार ही कांग्रेस को एक सूत्र में बांधे रखने वाला रहा है। 1991 में पी वी नरसिंह राव और 1995 में सीताराम केसरी के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस में बिखराव बढ़ा। नरसिंह राव तो राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के चलते हासिल सत्ता के चलते कांग्रेस को बांधे तो रख सके, लेकिन जब उनका भी नाम घोटालों में आने लगा तो मजबूरी में उन्हें सीताराम केसरी को पार्टी की अध्यक्षता सौंपनी पड़ी। इसके बाद हुए 1996 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ा दल बनकर उभरी। कांग्रेस की सीटें कम हुईं। लेकिन कांग्रेस को समर्थन देने से सभी गैर भाजपाई दलों ने इनकार कर दिया। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत के प्रयासों से देवेगौड़ा की अगुवाई में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी, लेकिन सीताराम केसरी खुद प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगे। उन्होंने देवेगौड़ा सरकार से समर्थन वापस ले लिया। लेकिन उनके नाम पर गैर भाजपा दलों में सहमति नहीं बनी तो उन्हें हारकर इंद्रकुमार गुजराल को समर्थन देना पड़ा। बाद में राजीव हत्या के लिए गठित जैन कमीशन में तत्कालीन सरकार में शामिल डीएमके के नेताओं के नाम आने के कथित आरोप में कांग्रेस ने वह सरकार भी गिरा दी। इसके बाद सीताराम केसरी का भी पतन हो गया। कांग्रेस में जिन नेताओं पर उन्होंने भरोसा किया था और नरसिंह राव के चलते जो नेता कांग्रेस छोड़ गए थे, उन कमलनाथ, माधवराव सिंधिया, अर्जुन सिंह आदि ने उन्हीं सीताराम केसरी को अपदस्थ करके सोनिया गांधी को अध्यक्ष बना दिया था। सोनिया के अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी 1998 और 1999 के लगातार दो चुनाव हारी, लेकिन 2004 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के बैनर तले सत्ता में जोरदार वापसी की और लगातार दस साल तक सत्ता में रही। अव्वल तो इस बीच कांग्रेस को और ज्यादा मजबूत होना था, लेकिन कांग्रेस मजबूत नहीं हो पाई।
कांग्रेस ने पहले माना कि उसकी बुरी गत गठबंधनों के जरिए हुई, इसलिए उसने पहले तो गठबंधन की राजनीति से किनारा किया, लेकिन बाद में शिमला की कार्यसमिति की बैठक में पार्टी ने गठबंधन की राजनीति को युगीन सच के तौर पर स्वीकार किया और इसका फायदा उसे 2004 के आम चुनावों में मिला। पार्टी भले ही सत्ता में आ गई, लेकिन उसका आधार लगातार छीजता रहा। हर पार्टी के आधार उसके संगठित और प्रतिबद्ध कार्यकर्ता होते हैं। लेकिन पार्टी से लगातार उसके कार्यकर्ता दूर होते रहे। कांग्रेस में नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच दूरियां बढ़ती रहीं। इसका असर चुनाव-दर-चुनाव नजर आता रहा। 2014 में भारतीय जनता पार्टी के उभार के बाद पार्टी ने सिर्फ चार राज्यों में चुनाव जीते हैं, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पंजाब। कर्नाटक में वह दूसरे नंबर की पार्टी है, लेकिन उसकी मजबूरी है कि भाजपा को रोकने के लिए उसे अपने से छोटी हैसियत वाली पार्टी जनता दल सेक्युलर को समर्थन देना पड़ा है।
2017 के विधानसभा चुनावों में जिस तरह राहुल गांधी ने गुजरात में भारतीय जनता पार्टी को टक्कर दी, उससे उनमें गैरभाजपा राजनीति की उम्मीद लगाने वाले विश्लेषक तक भावी प्रधानमंत्री का अक्स देखने लगे थे। राहुल गांधी के तब सलाहकार थे अशोक गहलोत। 16 दिसंबर 2017 को राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद पर हुई औपचारिक ताजपोशी के बाद उनके सलाहकार के तौर पर तेजी से उभरे। माना जाता है कि उनकी ही सलाह पर राहुल गांधी ने वीके हरिप्रसाद, दिग्विजय सिंह, मोहन प्रकाश और सीपी जोशी जैसे नेताओं को कांग्रेस की सर्वोच्च नीति निर्माता और निर्णायक समति कांग्रेस कार्यसमिति से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसके पहले मोहन प्रकाश पर महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों का प्रभार था और वे महासचिव थे। इसी तरह दिग्विजय सिंह कांग्रेस महासचिव के नाते महत्वपूर्ण रणनीतिकार थे, तो वीके हरिप्रसाद के पास छत्तीसगढ़ का दायित्व था। इसी तरह सीपी जोशी असम और बिहार के प्रभारी महासचिव थे। वैसे भी राजस्थान की राजनीति में अशोक गहलोत को सीपी जोशी और मोहन प्रकाश के विरोधी खेमे का माना जाता है। बहरहाल अशोक गहलोत का कद और बढ़ गया, जब भारतीय जनता पार्टी की विकल्पहीनता के चलते मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। लेकिन आम चुनावों में उन्होंने जिस तरह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ की तरह सिर्फ अपने बेटे को जिताने के लिए जोर लगाया, उससे अब राहुल नाराज हैं। हार के बाद हुई पहली कार्यसमिति की बैठक में राहुल ने खुलकर इस पर अपनी राय भी जाहिर की थी। इस वजह से यह मानना कि अशोक गहलोत कांग्रेस के नए अध्यक्ष हो सकते हैं, सही नहीं होगा।
वैसे भी राहुल की बहन और कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा पार्टी की हार से बेहद नाराज हैं। उनकी तुनकमिजाजी की जिस तरह से खबरें कांग्रेस के अंदरखाने से बाहर आती हैं, उससे तय है कि कोई भी कांग्रेस अध्यक्ष बने, वह उनके सामने बौना ही रहेगा। भारतीय जनता पार्टी जिस वंशवाद के लिए कांग्रेस को कोसती रही है, दुर्भाग्यवश वह वंशवाद कांग्रेस की ताकत भी है और लोकतांत्रिक नजरिए से कमजोरी भी है। बहरहाल लोकसभा में जिस तरह पार्टी ने पश्चिम बंगाल के जनाधार वाले नेता अधीर रंजन चौधरी को नेता बनाया है, उससे साफ है कि वह कार्यकर्ताओं को संदेश देना चाहती है कि उसके यहां काम करने वाले कार्यकर्ताओं को ही जगह मिलेगी।
बहरहाल कांग्रेस को अब नौजवान नेताओं की तरफ देखना होगा, उसे पांच साल तक तार्किक ढंग से विपक्ष की भूमिका निभानी होगी। सिर्फ विरोध के लिए विरोध या अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के लिए सरकार का विरोध अब जनता स्वीकार नहीं करने वाली। इसलिए उसे तार्किक विरोध और जरूरत पडऩे पर सरकार के साथ खड़े होने की हिम्मत लानी होगी। कांग्रेस की एक कमजोरी यह है कि उसका मोदी विरोध निजी तक नजर आता है। इसलिए जरूरी है कि वह इससे उपर उठे और राजनीति में बड़ी लकीर खींचने की तैयारी करे। उसे अपनी नीतियां स्पष्ट करनी होंगी। नए कांग्रेस अध्यक्ष को स्पष्टवादी सलाहकार रखने होंगे, जो झूठ-मूठ के कांग्रेस की बढ़ती ताकत को न दिखाते रहे हों। जो जमीनी हकीकत के नेतृत्व को परिचित कराएं। इन पांच वर्षों में कांग्रेस को जरूरी मुद्दों पर सड़क पर उतरना होगा तो कुछ मुद्दों पर सरकार के साथ भी खड़ा होना होगा। तभी उसकी साख बन पाएगी।
उमेश चतुर्वेदी