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जलने की घटनाओं की रोकथाम में मददगार हो सकता है राष्ट्रीय कार्यक्रम

जलने की घटनाओं की रोकथाम, इससे प्रभावित मरीजों के पुनर्वास और उनके गुणवत्तापूर्ण जीवन को सुनिश्चित करने के लिए अब एक राष्ट्रीय कार्यक्रम चलाए जाने पर जोर दिया जा रहा है। नई दिल्ली में आयोजित इंटरनेशनल सोसायटी फॉर बर्न इंजुरीज (आईएसबीआई) के 19वें सम्मेलन में यह बात उभरकर आयी है। इस पांच दिवसीय सम्मेलन में जलने के उपचार, प्रबंधन और पुनर्वास के लिए कार्यरत दुनियाभर के विशेषज्ञ एकजुट हुए हैं।

इस सम्मेलन में मौजूद नई दिल्ली स्थित सर गंगाराम अस्पताल के वरिष्ठ परामर्शदाता और आईएसबीआई के पूर्व अध्यक्ष डॉ राजीव आहूजा ने कहा कि “भारत में हर साल जलने से जख्मी होने के कारण सात से आठ लाख मरीज विभिन्न अस्पतालों में दाखिल होते हैं। बड़े पैमाने पर हो रही जलने की घटनाएं किसी स्वास्थ्य आपदा से कम नहीं हैं। इसीलिए, पीड़ितों की देखभाल के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाये जाने की जरूरत है। जलने से जख्मी होने की घटनाओं की रोकथाम के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू करने से फायदा हो सकता है। इसके अलावा, जलने की घटनाओं से जुड़े आंकड़ों का केंद्रीय रूप से एकत्रीकरण करने से भी प्रभावी रणनीतियों के निर्माण में मदद मिल सकती है।”

जलने से जख्मी हुए मरीजों के ईलाज के लिए उपयुक्त ढांचे की कमी, प्रशिक्षित डॉक्टरों और नर्सों के अभाव, पर्याप्त उपचार व्यवस्था की कमी और महंगे ईलाज पर भी सम्मेलन में चिंता व्यक्त की गई है। डॉ आहूजा ने बताया कि जलने पर उपचार के लिए लोगों को काफी दूर स्थित चिकित्सा केंद्रों में जाना पड़ता है। ऐसे में मरीज की स्थिति गंभीर हो जाती है। लगभग आधे मरीज जलने के छह घंटे बाद उपचार के लिए अस्पताल पहुंच पाते हैं। कई मामलों में तो प्रशिक्षित नर्सों की कमी के चलते मरीजों की देखभाल परिजनों को ही करनी पड़ती है, जिससे संक्रमण का खतरा रहता है।

जलने की घटनाओं में लोगों को न केवल जान गंवानी पड़ती है, बल्कि इससे प्रभावित मरीजों को कई शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक समस्याओं से भी जूझना पड़ता है। जलने की घटनाओं में जीवित बचने वाले मरीजों की दर ज्यादा है। लेकिन, जख्मों से उबरने के बावजूद करीब 70 प्रतिशत लोग पहले की तरह काम नहीं कर पाते। उन्हें शारीरिक एवं मानसिक अक्षमता का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होती है।

आईएसबीआई सम्मेलन में त्वचा दान के बारे में जागरूकता की कमी को लेकर भी विस्तृत चर्चा की गई है। मुंबई स्थित किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल में प्लास्टिक सर्जरी विभाग की अध्यक्ष डॉ विनीता पुरी के मुताबिक, “लोगों को अंगदान या नेत्रदान के बारे में तो जानकारी है, पर त्वचा दान के बारे में जानकारी बेहद कम है। इसका सबसे अधिक असर एसिड हमले के पीड़ितों और जलने से जख्मी हुए मरीजों पर पड़ता है। डॉ आहूजा ने कहा कि देश में मुश्किल से आठ से दस स्किन बैंक हैं। इन स्किन बैंकों के समुचित उपयोग के लिए जरूरी ढांचा उपलब्ध नहीं है। इसी कारण स्किन बैंकों का पूरा लाभ मरीजों को नहीं मिल पाता है।”

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों का हवाला देते हुए डॉ आहूजा ने बताया कि “वर्ष 2017 में दुनियाभर में जलने की घटनाओं के कारण 1,80,000 मौतें हुई थी। जलने की अधिकतर घटनाएं गरीबी से जुड़ी होती हैं। पहले केरोसिन स्टोव पर खाना बनाने के कारण अधिक हादसे होते थे। एलपीजी सिलेंडर का उपयोग बढ़ने से दुर्घटनाएं जरूर कम हुई हैं, पर एलपीजी सिलेंडर के सही तरीके से इस्तेमाल को लेकर जागरूकता अभियान चलाए जाने की जरूरत है। इन घटनाओं की रोकथाम और इससे जुड़ी समस्याओं से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है। जिला स्तर पर रोकथाम एवं जागरूकता प्रसार, नियमित शिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन, रेफरल के तौर-तरीकों में सुधार और उच्च स्तरीय क्षेत्रीय केंद्रों की स्थापना से लाभ हो सकता है।”

आईएसबीआई के अध्यक्ष विलियम जी. सिओफी ने कहा कि इस सम्मेलन का उद्देश्य सीमित संसाधन वाले विकासशील देशों में जलने के उपचार और देखभाल संबंधी सेवाओं में सुधार करना है। इस अवसर पर ‘बर्न बर्डन ऑफ द वर्ल्ड’ शीर्षक से एक तुलनात्मक विश्लेषण भी जारी किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)

उमाशंकर मिश्र

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