डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले सप्ताह मैं भारत के कई शहरों में रहा। वहां कुछ प्रबुद्ध पत्रकारों, कुछ विचारशील प्रोफेसरों और कुछ मंत्रियों ने भी मुझसे पूछा कि क्या अब फिर भारत-चीन युद्ध होगा ? क्या 1962 फिर दोहराया जाएगा ? मुझे जरा आश्चर्य हुआ कि भारत-चीन सीमा पर चल रहे तनाव को लेकर लोग इतने चिंतित क्यों हैं ? शायद रक्षा मंत्री अरुण जेटली के बयान का कुछ असर लोगों के दिमाग पर हो गया हो। जेटली ने चीन को कह दिया था कि ये 2017 है, 1962 नहीं और इसके जवाब में चीनी प्रवक्ता ने कह दिया कि मूढ़मति लोगों, तुम भूतकाल से कोई सबक नहीं सीखते। पिछले तीन-चार दिनों में तनाव इतना बढ़ गया है कि अब हेम्बर्ग (जर्मनी) में ‘ब्रिक्स’ की बैठक में मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग मिलेंगे लेकिन बात भी नहीं करेंगे। उनकी बात होगी या नहीं होगी, इसे लेकर भी दोनों पक्ष एक-दूसरे की टांग खींच रहे हैं। इससे क्या जाहिर होता है ? क्या यह नहीं कि विदेश नीति में राष्ट्रहित सर्वोपरि होता है ? यदि आप उसकी रक्षा नहीं कर सकते तो किसी विदेशी नेता के साथ झूला झूलना, गले लिपटना, हाथ में हाथ डालकर सैर करना, कंधे से कंधा मिलाकर नाचना, उसकी टोपी पहन लेना, उसे अपनी टोपी पहना देना– ये सब बातें कोरा नाटक बनकर रह जाती हैं। हेम्बर्ग में जी-20 की बैठक है लेकिन साथ-साथ ब्रिक्स की भी है। ब्रिक्स के पांच नेताओं में एक शी भी होंगे। मोदी उनसे हाथ पकड़कर क्यों नहीं पूछते कि आपके और हमारे सैन्य अफसर आपस में बैठकर बात क्यों नहीं करते ? अब आपके अखबार सिक्किम को आजाद करवाने की भी बात क्यों करने लग गए हैं ? आप सिक्किम को उठाएंगे तो क्या हम पर तिब्बत को उठाने का जोर नहीं पड़ेगा ? भूटान के उस विवादग्रस्त दोकलाम पठार पर तीनों देश मिलकर बात क्यों नहीं कर सकते ? सामरिक सड़क बनाने का मुद्दा महत्वपूर्ण है लेकिन वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि उसके कारण 21 वीं सदी को एशिया की सदी बनानेवाले दो महान राष्ट्र आपस में लड़ मरें।