Shadow

ट्राइबल डे पर विशेष

प्रवीण शुक्ल
संस्थापक, सेंटर फॉर सिविलाइजेशनल स्टडीज, दिल्ली
आज आदिवासियों- मूलनिवासियों का दिवस है सो आज के दिन उपरोक्त विषय पर चर्चा बड़ी ही उपयुक्त है। भारत मे करीब 400 वर्षों से यह सिद्ध करने की कोशिश की जा रही थी भारत की अधिकांश धन-भूमि संपन्न जातियां विदेशी हैं। दुनिया भर के अभिजात्य वर्ग (इलीट) सदैव से अपने को सामान्य वर्ग से अलग दिखाते रहै है हमारे देश में भी वे कोई अलग नहीं थे, अलग दिखने के लिए खुद को सवर्ण और अन्यों को अवर्ण मानते थे।
जब अंग्रेज और अन्य यूरोपीय भारत आए तो उन्होंने अपनी विजय के लिए भारत की फॉल्टलाइन यानी खामियों को ढूंढना शुरू किया। इसी क्रम में उन्होंने भारत की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था पर शोध किया, मैक्सम्युलर जर्मनी से आ गए व से। उन्होंने पाया कि भारत की एलीट बिरादरी सुविधा संपन्न होने के साथ-साथ सत्ता पर भी आसीन थी, ऐसा नहीं है कि दलित पिछड़ी जातियों के लोग राजा मनसबदार या जमींदार नहीं थे पर अधिकांश रूप से सवर्ण थे।
1600 ईस्वी में भारत में पदार्पण कर इन लोगों ने धीमे-धीमे सामाजिक अध्ययन और राजनीतिक कंट्रोल को बढ़ाया। राजनैतिक सत्ता और जमीनों के इस एकतरफा बंटवारे की फाल्ट लाइन पर ब्रिटिश एवं यूरोपीय लोगो ने विधिवत काम करना शुरू किया। इस काम में यूरोप के कुछ ईसाई धर्म प्रचारकों ने भी साथ दिया जो भारत मे ईसाई धर्म का प्रचार करना चाहते थे।
बदलाव -1 शिक्षा
19वीं शताब्दी में जब ब्रिटिश जब सत्ता में आए तो उन्होंने बड़ी चालाकी से भारतीय गुरुकुल परंपरा जो उस वक्त हिंदू धर्मावलंबियों के हाथ में थी उससे निकाल कर दे अंग्रेजी स्कूल सिस्टम के तहत कर दिया। सरकारी नौकरियों में भर्ती अब इसी व्यवस्था से होनी थी नतीजा बहुत बड़ी संख्या में भारतीय अभिजात्यों ने अंग्रेजियत को अपना लिया। अभिजात्य जो करती हैं सर्वहारा उसे बाद में मां ही लेती हैं।
अंग्रेजियत के मास कंसम्पसन के लिये चन्द वर्षों में हजारों ईसाई मिशन कॉलेज खुल गए लाखों नई रिसर्च इन स्कूल कॉलेज और यूनिवर्सिटी में होने लगी। इन संस्थाओं के हेड ईसाई पादरी थे। उन्होंने तीन काम किये
1) भारत की फाल्ट लाइनों जातिवाद, डाइवर्स भाषा, डाइवर्स समुदाय पर आक्रमण करने के लिए सुनियोजित रिसर्च पेपर लिखे फिर इन रिसर्च पेपरों को पाठ्यक्रम (सिलेबस) में शामिल करवा दिया।
2) भारत का जो ट्रेडिशनल ज्ञान था वह सब रातो रात अनसब्सटेंशिएटिड यानी बिना तर्क के, बिना प्रमाण के लिखा गया मान लिया।
3) भारत की सारी परम्परागत ज्ञान परम्परा भारतीय भाषाओं में थी, अंग्रेजी मॉडल में अंग्रेजी प्रधानता थी सो धीरे धीरे सन 2020 तक हम अपने ग्रन्थ खरीद तो सकते हैं पर पढ़ना नही जानते। मसलन वाल्मीकि रामायण या बुद्धचरित जैसे ग्रन्थ हमारे लिए एलियन भाषा के ग्रन्थ हैं जब तक कोई दूसरा उसे अंग्रेजी या हिंदी में ना समझाए वह समझ नही आएंगे। यह पॉपलुर ग्रन्थ हैं जरा सोचिए सैकड़ो ग्रन्थ ऐसे हैं जिनका अनुवाद (ट्रांसलेशन) हमे नही मिलता हम उनके बारे में जानते नही सो धर्म या पुराने विज्ञान के मामले में चुप ही रहते हैं।
भारतीय ज्ञान विज्ञान 9 वीं शताब्दी तक विश्व का मुख्य ज्ञान भंडार था जिसे बाद में अरबी फारसी ने 15वीं शताब्दी तक आगे बढ़ाया। उसके बाद यूरोपीय रेनेसां के बाद यूरोप ने इसमे विस्तार किया। संस्कृत त्याग विदेशी फ़ारसी अपनाने पर भारत ने ज्ञान परम्परा की अपनी शीर्ष वरीयता खो दी थी उस परंपरा को 17 वी शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा लगभग मृतप्राय घोषित कर दिया।उन्होंने उस वक्त वह ज्ञान परंपरा ही नही बल्कि हर भारतीय पारंपरिक चीजों को भी नीचा दिखाया। गुलामों के वैसे भी कोई अधिकार धर्म या संस्कृति नही होती। इन सबके बावजूद ऐसा कहना बिल्कुल गलत होगा कि इन व्यवस्थाओं से भारत को बहुत अक्सर ही रहा है। इन व्यवस्थाओं का फायदा भी हुआ इनसे उत्पन्न जन जागरण सती जैसी कुप्रथा पर भी रोक लगी और भारत का ज्ञान की ज्ञान परंपरा जो नवी शताब्दी के बाद से रुक गई थी वह पुनः 19वीं शताब्दी में उभर कर आ गई जिसका परिणाम आज कल हम लोग देखें रहे हैं।
बदलाव- 2 मूल संस्कृति से द्रोह और समाज मे दुराव
5 वीं शताब्दी में जब असीरिया,सिस्तान और मकरान (आज के ईरान अफगानिस्तान) पर अरबो का कब्जा हो गया तब उन इलाकों के पारसी भाग कर जब भारत आए तब भारत के राजा ने सांकेतिक तौर पर एक दूध से भरा कटोरा भेजकर बताया कि जिस प्रकार दूध पूरे कटोरे में भरा हुआ हैं और अब उसमे और दूध नही भरेगा इसी प्रकार आपके यहां बसने की जगह मेरे राज्य में नही हैं। पारसियों ने भी बड़ी चतुराई से उस दूध भरे कटोरे में चीनी घोल कर राजा को उत्तर दिया की हम पारसी चीनी की तरह ही आप की आबादी में घुल जाएंगे। इस कहानी के बिल्कुल उलट जब ब्रिटिश भारत में आए तो उन्होंने भारतीयों से कभी भी घुलने मिलने का प्रयास नहीं किया। वे जहां भी गए वहां अपनी संस्कृति को भारतीयों की संस्कृति पर थोप दिया। उनके बनिस्बत जब पारसियों ने गुजरात की भाषा, वहां के लिबास साड़ी कुर्ता और खानपान यहां तक के तिलक को भी आत्मसात कर लिया। ब्रिटिश ने अनुसार भारतीय काफी अनगढ़ – असंस्कृत थे, गुलाम थे। उन्होंने गुलाम शब्द को भारतीय सन्दर्भ में स्थापित कर दिया और पूरी की पूरी अवर्ण आबादी को सवर्णो का गुलाम घोषित कर दिया।
गुलाम का अर्थ दास से लगाया गया जबकि दास भारतीय सन्दर्भ में वस्तुतः इंद्रिय के दासत्व से था। भारतीय विद्वान सोनाली मिश्र लिखती हैं कि भारतीय परंपरा में दास का अर्थ भक्ति भाव से समर्पण कर देना, स्वामी का अर्थ भी मास्टर नहीं है! इसमें समर्पण है, दासत्व का अर्थ slavery नहीं है, यद्यपि अंग्रेजी अनुवाद में उसे slave ही लिया गया है. परन्तु इस शब्द को दास ही लिया जाना चाहिए था। जब हम slavery के इतिहास में जाते हैं तो इसका मूल हमें पश्चिम से मिलता है। दास शब्द का क्षरण हुआ, जब पश्चिम की कुरीतियाँ तथा मुसलमानों का आगमन हुआ। दास शब्द उस परिप्रेक्ष्य में जरा भी प्रयोग नहीं होता था जिस अर्थ में slave या गुलाम का प्रयोग होता था. और यह मैं नहीं कहती, यह ऐतिहासिक तथ्य कहते हैं। अपनी पुस्तक ‘इंटरकोर्स बिटविन इंडिया एन्ड वेटरन वर्ल्ड’ में एच.जी. रव्लिंसन, जो दक्कन कॉलेज, पुणे में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर थे, वह मौर्य काल के समय मेग्स्थ्नीज़ की इंडिका के हवाले से लिखते हैं की ग्रीक सेनापति मेगस्थनीज को भारतीय समाज की एक खूबी ने बहुत प्रभावित किया कि भारतीय समाज में वह slavery नहीं थी जो ग्रीस और रोमन समाज का एक जरूरी हिस्सा थी। slave का अर्थ है बंधक बन जाना, जबरन गुलामी करना! मालिक के इशारे पर नाचना, जबकि भारतीय परिप्रेक्ष्य में दास का अर्थ ह्रदय से भक्तिभाव से समर्पण है। जैसे हनुमानचालीसा में तुलसीदास लिखते हैं
‘राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुवर के दासा’
जब तुलसीदास, या सूरदास ने अपने नाम के आगे दास लगाया तो इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि वह slave थे, अपितु वह ह्रदय से सेवा भाव से समर्पित थे। एक बड़ी आबादी के मन मे सवर्णो की गुलामी का भाव भरने का यथोचित फायदा मिला ज्योतिबा फुले ‘गुलामगिरी’ और पेरियार इंसाफ आंदोलन ले आये। भारतीय परिप्रेक्ष्य में कर्म आधारित विभाजन जरूर था पर उसे गुलामगिरी नही कहा जा सकता था। समाज मे व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु संस्कार तक सब जातियों का समरस समावेश था। वैदिक अनुष्ठानों से लेकर मुंडन, विवाह, पूजा आदि के कार्यक्रम में नाई , धोबी, धाय, धानुक, आदि की प्रमुख भूमिकायें थी, फिर सत्यकाम जाबाल, महाऋषि वाल्मीकि या सत्यवती पुत्र वेदव्यास सब इतने पूज्य और इनके साहित्य का इतना ऊंचा स्थान समाज में नही रहता।
बदलाव 3 – भाषाई व सभ्यागत भेद
बदलाव 4 – धर्म परिवर्तन
जिन मिशनरियों ने भारत की भूमि पर सबसे ज्यादा प्रभाव डाला उनमें प्रथम नाम रॉबर्टो डी नोबिली का आता है। वे सन 1605 में गोवा आए और फिर वही उन्हें ईसाई मिशनरी प्रॉजेक्ट के तहत भारत के मछुआरों को ईसाई धर्म में लाने का काम मिला। सन 1606 में वह भारत की एक आदिजाति परावा समुदाय के भीतर काम करने के लिए तैनात किए गए। उल्लेखनीय है कि 1530 ईस्वी तक बहुत से तमिल हिन्दू, मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचने के लिए पुर्तगालियों की शरण में गए और पुर्तगालियों के प्रभाव में या अधिकार में बपतिस्मा (बैप्टाइज) कर के ईसाई बन गए गए थे। रॉबर्टो ने अपने शोध में यह पाया की परावा अन्य ईसाई कनवर्ट की तरह ही अपना नाम पुर्तगाली भाषा में रखते हैं तथा पुर्तगाली संस्कृति को कुछ कुछ मानते हैं।
क्रमशः
चित्र: अंग्रेजी रिसर्चरों द्वारा पैदा किये आर्य-द्रविड़ विवाद से करीब 4000 साल पहले पंजाब के साहीवाल जिले के हड़प्पा में दबे टीलो में से एक टीले में प्राप्त शिवलिंग का हैं जिन्हें पुरातत्वशास्त्री एम एस वत्स ने खोजा था। यह लिंग हल्के श्याम वर्ण का पॉलिश्ड पत्थर था जो खन्दक एआई , टीले एफ में पाया गया था। Trench Ai, Mound F, Pl. X (c)
Ref : Excavations at Harappa, p. 370)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *