शिक्षा उद्योग है या उद्योगों में सहायक, शिक्षा क्या निजी क्षेत्रों मे गुणवत्तापरक है या सरकारी क्षेत्र में? शिक्षा का स्वरुप क्या हो? ऐसे तमाम प्रश्न थे, जिनके उत्तरों पर गंभीर विमर्श आवश्यक है। या समय की आवश्यकता है। कहीं न कहीं इन सवालों का जबाव समेटे हुए था डायलॉग इंडिया पत्रिका द्वारा लखनऊ में होटल क्लार्क अवध में आयोजित डायलॉग इंडिया एकेडमिया कोन्लेउतव के तीन चरणों का प्रथम चरण। पत्रिका डायलॉग इंडिया द्वारा निजी क्षेत्र के उच्च शिक्षण संस्थानों का विभिन्न मानकों पर मूल्यांकन किया जाता है एवं उसके उपरान्त उन्हें प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि रेटिंग प्रदान की जाती है। उच्च मानकों का उत्कृष्ट पालन करने वाले निजी संस्थानों को पत्रिका द्वारा आयोजित इस समारोह में सम्मानित किया गया था। दिनांक 20 मई को आयोजित हुए इस चरण में मुख्य अतिथि थे विधान सभा अध्यक्ष श्री ह्रदय नारायण दीक्षित, जिन्होनें शिक्षा की उपादेयता पर प्रकाश डाला और उन्होंने इसके साथ शिक्षा के निजी क्षेत्र की महत्ता पर भी बात की। उनके अनुसार निजी क्षेत्र में शिक्षा आज की बात न होकर, प्राचीन काल से चली आ रही परम्परा है। हमारे देश में गाँव गाँव में निज सहयोग से संचालित होने वाले विद्यालय हुआ करते थे। शिक्षा के क्षेत्र में यह अध्ययन अंग्रेजों ने किया था और जब उन्होंने यह पाया कि हर गाँव में निज सहयोग से संचालित होने वाले विद्यालय हैं, जिनका सरकार से कोई लेना देना नहीं, तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ था। तो हमारे देश में निजी क्षेत्रों में शिक्षा का प्रवेश नई बात नहीं है। चूंकि भारत में शिक्षा को जीवन का सबसे अनिवार्य अंग माना जाता रहा है, गुरुकुल की परम्परा रही है, तो कल्याणकारी भाव रखने वाले व्यक्तियों द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र में हस्तक्षेप भी होता रहा है। और अब भी निजी संस्थान शिक्षा को उद्योग न समझ कर उद्योग में सहायक समझें तो भारत को एक बार पुन: विश्वगुरु होने से कोई रोक नहीं सकता। श्री दीक्षित के अनुसार शिक्षा व्यवसाय नहीं हो सकती है। शिक्षा के व्यवसायी करण को रोकने के लिए बनी समिति में कई तरह की शिकायतें उनके सम्मुख आती थी जैसे होस्टल नहीं दे रहे, मगर होस्टल का शुल्क भी निजी शिक्षण संसथान वसूल कर रहे हैं, कई बार मेस के न होने की शिकायत, कई बार शुल्क अधिक लिए जाने की शिकायत, तो ऐसे में कहीं न कहीं निजी क्षेत्रों को स्वयं के आचरण में सुधार की आवश्यकता है। श्री दीक्षित ने शिक्षा के भारतीय स्वरुप पर भी जोर दिया। और उन्होंने विद्यार्थियों से भी स्वअध्ययन करने को कहा। निजी क्षेत्र के उच्च शिक्षण संस्थानों के प्रमुखों को सम्मानित करते हुए श्री दीक्षित ने उनके द्वारा किए जा रहे कार्यों की भी सराहना की। उन्होंने शिक्षा के लिए निजी क्षेत्र के साथ सहयोग के साथ कदम उठाने का आह्वान किया। उनका पूरा जोर केवल इसी बात पर था कि शिक्षा के लिए केवल जूनून आवश्यक है, शिक्षा मूल्योन्मुखी होनी चाहिए, धनोन्मुखी नहीं। जैसे ही धन की तरफ शिक्षा मुड़ेगी अर्थात शिक्षा का उद्योग बनेगा वैसे ही शिक्षा अपने मूल से भटक जाएगी। इसी के साथ उन्होंने निजी शिक्षा के क्षेत्र में डायलोग इंडिया पत्रिका के द्वारा सम्मानित होने वाले शिक्षा संस्थानों से आए प्रतिनिधियों को सम्मानित किया और उनसे गुणवत्ता परक शिक्षा देने का आह्वान किया। डायलॉग इंडिया के द्वारा किए जा रहे इस आयोजन से श्री दीक्षित बहुत ही प्रभावित दिखे और उन्होंने इस कार्यक्रम के चंडीगढ एवं दिल्ली में होने वाले चरणों के सफल आयोजन के लिए बधाई और शुभकामनाएं दीं।
इससे पूर्व कार्यक्रम का शुभारम्भ प्रात: दस बजे गणमान्य अतिथियों की उपस्थिति में दीप प्रज्ज्वलन के द्वारा हुआ था। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे विधान सभा अध्यक्ष श्री ह्रदय नारायण दीक्षित एवं विशिष्ट अतिथि पूर्व सचिव भारत सरकार कमल टाबरी, अमिताभ ठाकुर(आई.जी. उîार प्रदेश पुलिस), प्रो एस के अत्रे (आई आई टी दिल्ली) , कमांडर वीरेंद्र जेटली (आई आई टी खडगपुर), प्रो आर सी सोबती, कुलपति बाबा साहब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय थे।
कार्यक्रम में अतिथियों का स्वागत करते हुए पत्रिका के संपादक श्री अनुज अग्रवाल ने इस रेटिंग के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला।
उनके अनुसार हमारा सर्वे बता रहा है कि शिक्षा के क्षेत्र में बड़े उलट पुलट वाला समय है। उच्च हो या माध्यमिक या फिर प्राथमिक सभी श्रेणियों में बड़े बदलाबो के आगाज़ हो चुके हैं। जो। संस्थान कुछ बर्षों पहले चर्चाओं में थे वो गायब हो चुके हैं और जो चुपचाप अपना काम ईमानदारी और गुणवत्ता के साथ करते रहे, आज शिखर पर हैं। सच्चाई यही है कि देश के निजी संस्थानों की रैंकिंग में टॉप के कुछ खिलाडिय़ों को छोड़ सभी की स्थिति में व्यापक उलटफेर हुआ है। पहली बार सुशासन का चाबुक संस्थानों, कॉलेजो और स्कूलों पर पड़ता और असर करता दिख रहा है। कुकुरमुत्तों की तरह खुलते शिक्षा संस्थानों में जिनमे भेड़ बकरी की तरह छात्र छात्राएं ठूंस दिए जाते थे और भारी भरकम खर्च , कुछ नाटकों और औपचारिकता के बाद वे अगली कक्षा में धकेल दिए जाते थे , इस सुनियोजित लूट और धोखे के खेल को देखना हमारे और हमारी सर्वे टीम के लिए अत्यंत पीड़ादायक होता रहा है। विभिन्न समितियों, विशेषज्ञ समूहों और सर्वो के साथ ही हमारे अपने निष्कर्ष देश की शिक्षा प्रणाली और तंत्र के संबंध में खासे निराशाजनक रहे हैं। वे बताते हैं कि देश में पैदा होने वाले आधे से ज्यादा डिग्रीधारी तो फर्जी हैं और जिनके पास असली डिग्री भी है उनमें से भी 80 से 95 प्रतिशत तक अयोग्य हैं। अगर यह सच है तो हम सचमुच अंधे कुँए में गिर चुके हैं। देश मात्र 10 प्रतिशत योग्य लोगों या शेष 90 प्रतिशत लोगो में से कुछ के व्यवहारिक ज्ञान या पारंपरिक ज्ञान की बदौलत रेंग रहा है। एक छोटे शहर, कस्बे या गांव के छात्र जिसको सरकारी अमले द्वारा दो या तीन सरकारी स्कूलों में पंजीकृत दिखाया जाता है वास्तव में किसी अवैध इस मान्यता प्राप्त निजी स्कूल में खासी महंगी फीस देकर पढ़ते हैं। किंतू अंग्रेजी माध्यम के इन तथाकथित पब्लिक स्कूलों के अधकचरे ज्ञान का 12वी के बाद की प्रतियोगिता परीक्षाओं और उच्च शिक्षा में कोई खास योगदान नहीँ होता। अन्तत: वे ट्यूशन और कोचिंग का मोहताज हो जाते हैं और रट्टू तोता बन शार्टकट तरीकों से एग्जाम ञ्चवालीफाई करने के कोचिंग सिंडिकेट के फार्मूलों के सहारे किसी तथाकथित प्रतिष्टित सरकारी संस्थान का हिस्सा बन जाते हैं और जो नहीँ बन पाते उन्को उच्च शिक्षा के निजी संस्थानों की शरण लेनी पड़ती है। इस सब के बाबजूद ऊपर के आंकड़े जो कहानी बता रहे हैं वो हमें कुछ और गहरा सोचने पर मजबूर कर रहे हैं। अपने सर्वे में हमने पाया है कि देशभर में निजी शिक्षा के क्षेत्र में भूचाल सा आया हुआ है। पिछले दो तीन बर्षों में जबसे सरकार और न्यायालय के साथ ही नियामक संस्थाओं द्वारा सख्ती का चाबुक चलाया गया है सैकडों निजी उच्च शिक्षा के संस्थानों में प्रवेश घट गए या फिर ताले लटकने की नौबत आ गयी है। आधार कार्ड की अनिवार्यता, स्टाफ और छात्रों की बायोमेट्रिक अटेंडेन्स, पेन कार्ड, सख्ती, मानकों और मापदंडों के आधार पर संस्थानो में प्रवेश के प्रावधान, सिंगल एंट्रेंस, केपिटेशन फीस लेने पर सख्ती, ऑन लाईन मॉनिटरिंग,आई टी के प्रयोग ने खेल के नियम ही बदल दिए। अब मात्र मोटा माल बनाने के लिए शिक्षा संस्थान खोलने की सलाह कोई नही देने वाला। लगातार बंद हो रहे संस्थानों की कहानी कुछ ऐसा ही बयां कर रही है। सच्चाई तो यही है कि देश में दो तिहाई इंजिनीरिंग, मैनेजमेंट, मेडिकल और डेंटल संस्थान बहुत ही खराब स्थिति में हैं। अनेक बंद हो गए हैं या बंद होने जा रहे हैं। यहाँ तक कि कई तथाकथित प्रतिष्ठित निजी विश्वविद्यालय भी बंद होने के कगार पर हैं। हाल ही के बर्षों में जो भी इंजिनीरिंग, मैनेजमेंट ,मेडिकल और डेंटल कॉलेज सफल रहे हैं वे निजी विश्वविद्यालय में बदलते जा रहे हैं और अनेक बड़े औधौगिक और व्यापारिक समूहों ने भी अपने अपने विश्वविद्यालय खोले हैं। तुलनात्मक रूप से यह बेहतर परम्परा है क्योंकि पहले के दौर में इस क्षेत्र में निवेश सफल बिल्डरों, शराब के कारोबारियों, भ्रष्ट नेताओं और नोकरशाहो के माध्यम से अधिक आया , जिन्होंने इस क्षेत्र का उपयोग धोखा देकर मोटा माल बनाने में अधिक किया।
सुखद है कि अब वह दौर समाप्ति की और है और गंभीर और गहरे या पुराने सफल खिलाड़ी ही इस क्षेत्र में बचे रहने वाले हैं किंतु अब कुछ नयी चुनोतियाँ मुहबाये सामने खड़ी हैं। उच्च शिक्षा का हमारा मॉडल पूरी तरह से पश्चिम की कॉपी है। इसमें न तो मौलिकता है, न ही देसीपन और न ही राष्ट्रीयता का भाव। देश के पैसो से पला बढ़ा युवक आराम से अपने ज्ञान और खोज को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले कर देता है और गौरवान्वित महसूस करता है। इसमें बड़े बदलाब की आवश्यकता है क्योंकि वह विदेशी ज्ञान के साथ ही विदेशी संस्कृति अपनाने में कोई संकोच नही कर रहा और अपने देश, भाषा और संस्कृति के प्रति उसमें उपेक्षा का भाव भी घर करता जा रहा है। दूसरी बड़ी बात दूनिया में उद्योग और व्यापार तेजी से आईटी और ऑटोमेशन की और बढ़ रहें हैं। आज की तारीख में सभी सफल संस्थान अपने कोर्स, लैब और शिक्षकों को इसी के अनुरूप ढाल भी रहे हैं किंतु इस प्रक्रिया में मानव संसाधनों का प्रयोग उत्तरोत्तर कम होता जा रहा है । जिसकी मार रोजगार सृजन पर पड़ रही है। कुछ बर्ष पहले जिस काम को 10, 20 या 50 इंजीनियर करते थे उसे अब 1,2 या 5 या इससे भी कम लोग कर लेते हैं। ऐसे में बेरोजगारी का संकट मुहबाये सामने खड़ा है। दुनियाभर में भारत के आई टी पेशेवरों के खिलाफ एक अभियान चलाया जा रहा है वो अलग। ऐसे में हमारे नीति निर्माताओं के लिए बड़ी चुनौती है कि कैसे पूरे शिक्षा तंत्र में ऐसे बदलाब किये जाएं जो रोजगार के कुछ नए क्षेत्रों का सृजन कर सकें। हमे रिचर्स के साथ ही इनोवेशन और ऐंटरप्रेनेरशिप के विकास पर तेजी से काम करना पड़ेगा नही तो अच्छे और बुरे संस्थान के लिए किए जाने वाले हमारे सर्वे और आंकड़े धरे के धरे रह जाएंगे।
दीप प्रज्ज्वलन के उपरान्त डायलॉग इंडिया की अखिल भारतीय रेटिंग पुस्तक का विमोचन भी गणमान्य अतिथियों द्वारा किया गया।
इस कार्यक्रम में शिक्षा के क्षेत्र के जुड़े कई प्रश्नों पर चर्चाएँ भी हुईं। चर्चा के दो सत्र थे। प्रथम सत्र में पैनल सदस्य थे पूर्व सचिव भारत सरकार कमल टाबरी, अमिताभ ठाकुर(आई जी उîार प्रदेश पुलिस), जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमती नूतन ठाकुर, एवं डॉ. गिरीश राज तथा डॉ. निशीथ।
प्रथम सत्र में शिक्षा और उद्योग के परस्पर सम्बन्धों पर चर्चा हुई, अर्थात क्या नई तकनीकों के आने से रोजगार के क्षेत्र में कमी आई है या उनसे रोजगार एवं नौकरियों में वृद्धि हुई है? यदि नौकरी कम हुई हैं तो क्या उसके लिए तकनीक जिम्मेदार है या तकनीक का क्रियान्वयन या तकनीकों को सही से समझा नहीं गया है? क्या राजनीतिक विरोध तकनीक के क्रियान्वयन पर असर डालता है और ऐसे में विकास, शिक्षा, तकनीक और हमारा जीवन किस तरह आपस में एक साथ जुड़े हुए हैं। क्या नई तकनीकों ने रोजगार के क्षेत्र की संभावनाओं को कम किया है? इस पर चर्चा की शुरुआत करते हुए डॉ. गिरीश ने कहा कि हमारे यहाँ पहले से ही उद्योग आधारित शिक्षा रही है, मातापिता खेती या अपना कार्य तो करते ही थे, परंतु नए कौशल भी बच्चों को सिखाते थे। इसी प्रकार जब कंप्यूटर एवं अन्य नए पाठ्यक्रम आए तो उनका भी अभिभावकों ने स्वागत किया। तकनीकी विकास किसी भी समाज और सभ्यता के लिए आवश्यक है। जब एक तकनीक आती है, तब वह अकेली नहीं आती बल्कि वह अपने साथ रोजगार के नए साधन और माध्यम लेकर आती है। तकनीक रोजगार समाप्त नहीं करती बल्कि वह रोजगार के नए मौके लेकर आती है। जैसे जब कंप्यूटर आया तो उसने रोजगार के कितने अवसर उत्पन्न किए, यह हम सब आज देख ही रहे हैं। सवाल बस यही है कि आप तकनीक को कितनी जल्दी अपनाते हैं, खुद को तकनीक के अनुसार कितना ढालते हैं।
सत्र का संचालन कर रहे कमांडर वीरेंद्र जेटली ने नास्कॉम की एक रिपोर्ट का उल्लेख किया जिसमें कहा गया था कि भारत में 75त्न विद्यार्थी रोजगार के लायक ही नहीं हैं। ऐसे में क्या कथित विकास और शिक्षा पर प्रश्न नहीं उठाए जाने चाहिए? इस स्थिति में तकनीक आखिर किस तरह अपनाई जाए और क्या हमारे द्वारा तकनीक अपनाए जाने में कोई गलती हुई है?
इस विषय में पूर्व सचिव भारत सरकार कमल टाबरी का कहना था कि तकनीक आएगी तो आएगी, विकास होना है तो होगा ही। आप न ही तकनीक को आने से रोक सकते हैं और न ही विकास की गति को पकड़ सकते हैं। आपको तकनीक के साथ ही चलना होगा। मगर यह आप पर निर्भर करता है कि आप तकनीक को संचालित करते हैं या तकनीक आपको। उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा अपनाए गए मध्य मार्ग को अपनाने की राय दी। उन्होंने तकनीक का सार्थक प्रयोग किए जाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि हाईवे आदि के लिए इतने हरे भरे पेड़ क्यों काट दिए जाते हैं, क्या तकनीक के प्रयोग से उन्हें उठाकर दूसरे स्थान पर नहीं लगाया जा सकता, जबकि ऐसा हो रहा है? हमें तकनीक के अंधाधुंध प्रयोग से बचना होगा। तकनीक के साथ तो हमें चलना ही होगा, हमें शहरीकरण के हिसाब से चलना ही होगा, अब तकनीक और शहरीकरण दोनों ही ऐसे बिंदु हैं, जिनपर आप रुकावट नहीं लगा सकते, मगर हमें विकास और प्रकृति का संतुलन स्थापित करना होगा।
चर्चा में श्री अमिताभ ठाकुर ने भी श्री कदम टाबरी जी की बात का समर्थन करते हुए आगे कहा कि जब भी कोई तकनीक आती है तो उसका विरोध होता है। उसका प्रयोग कितना हो, उसकी सीमा कितनी हो, वह गतिहीन न हो, उसका कोई उद्देश्य होना चाहिए, अब चाहे वह विकास विज्ञान से सम्बन्धित हो या फिर कानून से। उन्होंने सूचना के अधिकार के हवाले से अपनी बात को समझाया कि हालांकि सूचना का अधिकार अधिनियम जनता के लिए एक विशेष अधिकार है परंतु इसका दुरूपयोग नहीं होना चाहिए। राष्ट्र की अखंडता और स्वतंत्रता हमेशा ही सूचना के अधिकार से अधिक है। उन्होंने स्वतंत्रता और निजता में भी संतुलन की बात पर जोर दिया।
वहीं नूतन ठाकुर एस जब पूछा गया कि क्या तकनीक ने स्त्रियों के लिए कुछ कार्य आसान किए हैं या उनके लिए रसोई की दुनिया से बाहर के लिए राह आसान बनाई है तो नूतन ठाकुर ने सहर्ष ही इस तथ्य को अपनी स्वीकृति दी कि आज विभिन्न तकनीकों के माध्यम से रसोई में हुए अविष्कारों के कारण ही स्त्रियाँ बाहर की दुनिया में अपने कदम रख पा रही हैं। क्योंकि स्त्रियों का मूल स्वभाव ही घर की तरफ मुडऩा है। वे घर की दुनिया में ही रहना पसंद करती हैं, उनके लिए प्राथमिकता हमेशा घर होता है। जहां पहले वे दिन भर रसोई में ही रहती थीं, अब नई तकनीक के कारण रसोई के कार्य तुरंत ही समाप्त हो जाते हैं और वे सामाजिक भूमिका का निर्वाह अधिक जिम्मेदारी से कर पाती हैं। वे समाज को अधिक समय दे पाती हैं, तो कहा जा सकता है कि तकनीक ने स्त्री सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।
चर्चा को आगे बढाते हुए डॉ वीके सिंह ने कहा कि यदि ऑटोमेशन की बात की जाए तो कहना होगा कि केवल जीडीपी पर जोर न देते हुए हमें संतुलन और समग्रता को सम्मिलित करना होगा। हमें अप्पो दीप भव के सिद्धांत पर चलना होगा।
वहीं दिल्ली आईआईटी के प्रोफेसर श्रीएसके अत्रे ने भी यही कहा कि तकनीक ने स्त्रियों के लिए काम बहुत आसान कर दिए हैं। तकनीक को कई अच्छे कार्यों के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए, प्रयास यही करना चाहिए कि दुरूपयोग न हो। तकनीक बुरी नहीं होती, उसे किस मानसिकता से प्रयोग किया जा रहा है, यह देखना होगा।
उद्योग और शिक्षा के बीच में दूरी पर बात करते हुए डॉ गिरीश ने शिक्षकों को भी नई तकनीक के साथ अपडेट और अपग्रेड होने की आवश्यकता पर बल दिया। उनके अनुसार शिक्षक को यह अवश्य ही पता होना चाहिए कि आखिर इस क्षेत्र में नया क्या हो रहा है।
डॉ निशीथ ने सॉफ्ट स्किल्स पर सवाल का जबाव देते हुए कहा कि उनके संस्थान को दिव्यान्गों के पचास प्रतिशत आरक्षण के कारण जूझना होता है। सॉफ्ट स्किल्स के लिए सीएसआर के अंतर्गत कई कार्यक्रमों का संचालन होता है, मगर सॉफ्ट स्किल्स को संस्थान के स्तर पर संचालित किए जाने की आवश्यकता है।
इस सत्र में हुई चर्चा में जो मूल बात निकल कर आई वह थी विकास और तकनीक के साथ आपसी विश्वास को बढाना, उद्योग और शिक्षा में दूरी को कम करना, शिक्षकों और शिक्षा का सामाजिक सरोकारों से जुड़ा होना। अंधाधुंध विकास की दौड़ से बचना। और जो सबसे बड़ी बात उभर कर आई कि यदि आप प्रश्न उठा रहे हैं, तो केवल प्रश्न उठाने से कुछ नहीं होगा, आपको उसका विकल्प भी प्रस्तुत करना होगा।
चर्चा के उपरान्त समय था निजी क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले एवं डायलॉग इंडिया की रेटिंग में उच्च स्थान हासिल करने वाले संस्थानों को सम्मानित करने का। सम्मानित होने वाले प्रमुख संस्थान थे निजी क्षेत्र में सम्मानित होने वाले संस्थानों में जीएलए विश्वविद्यालय मथुरा, कलिंगा विश्विद्यालय भुवनेश्वर,हिमालयन विश्वविद्यालय अरुणाचल प्रदेश, दिव्यांग के लिए शिक्षा क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए जगद्गुरु रामभद्राचार्य हैंडीकैप्ड यूनिवर्सिटी चित्रकूट, बाबू बनारसीदास विश्वविद्यालय लखनऊ, एरा मेडिकल कॉलेज लखनऊ, हजारीबाग कॉलेज ऑफ डेंटल साइंस एंड हॉस्पिटल, झारखंड, बिड़ला इंस्टिट्यूट, नैनीताल, कृष्णा इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंजीनियरिंग एन्ड टेक्नोलॉजी, गाजियाबाद, ऐ के जी इंजीनियरिंग कॉलेज, गाजियाबाद, आई एम एस इंजिनीरिंग कॉलेज गाजियाबाद, बाबू बनारसीदास नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंजिनीरिंग एन्ड टेक्नोलॉजी, एम पी जी आई कानपुर, एक्सिस ग्रुप ऑफ कॉलेज कानपुर, अम्बालिका इंजिनीरिंग कॉलेज लखनऊ, आर डी इंजिनीरिंग कॉलेज गाजियाबाद आदि।
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में शिक्षा में अभिनवता अर्थात इनोवेशन पर चर्चा एवं विमर्श हुआ। इस सत्र का संचालन दिल्ली आईआईटी के प्रोफेसर एसके अत्रे ने किया था एवं सत्र में सम्मिलित थे प्रोफेसर आशुतोष अग्रवाल, जगद्गुरु रामभद्राचार्य हैंडीकैप्ड यूनिवर्सिटी चित्रकूट के कुलपति प्रोफेसर योगेश चन्द्र दुबे तथा साधना चैनल पर ओपनकोर्ट शो के सूत्रधार पत्रकार नवनीत चतुर्वेदी।
सत्र का आरम्भ करते हुए प्रोफेसर अत्रे ने माननीय प्रधानमंत्री द्वारा अभिनवता एवं मौलिक कार्यों को प्रोत्साहन देने वाली योजनाओं का उल्लेख किया। उनके अनुसार हमें वैश्विक स्तर पर अपडेट होने के लिए नई तकनीक और फिर तकनीक में अपने प्रयोग करने आवश्यक हैं। आखिर तकनीक के क्षेत्र में इनोवेशन या अभिनवता क्यों आवश्यक है?
तकनीक के क्षेत्र में अभिनवता के विषय में बोलते हुए प्रोफेसर आशुतोष अग्रवाल ने इनोवेशन को तकनीक के लिए मूल आधार बताया। उन्होंने कहा कि यदि हम नया कुछ खोजेंगे नहीं, मौलिक कुछ करेंगे नहीं तो आगे नहीं बढ पाएगें। ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि हमारे यहाँ प्रतिभाओं की कमी है या फिर अभिनवता की कमी है, मगर हमारे यहाँ उचित प्रोत्साहन का अभाव है। और यही प्रोत्साहन माननीय प्रधानमंत्री अपनी भिन्न भिन्न योजनाओं के माध्यम से देते हुए आ रहे हैं। मगर हमारे यहाँ अभी यह ही तय नहीं है कि आखिर अभिनवता क्या है? आज हर हाथ में इंटरनेट है, यदि आप इन्टरनेट के माध्यम से कुछ खोजकर लाते हैं तो उसमें मौलिक क्या? उसमें नया क्या है? मौलिक क्या है? सबसे पहले तो नए के लिए आपको क्यों सोचना होगा? अपने आसपास की समस्याओं के लिए हल खोजने होंगे। अभिनवता के लाभों पर बोलते हुए प्रोफेसर श्री अत्रे ने कहा कि इनोवेशन से नौकरी चाहने वाले नहीं बल्कि नौकरी देने वाले लोग सृजित होंगे। अभिनवता का मूल उद्देश्य ही नौकरी रोजगार प्रदाता होना चाहिए। देश के लिए संपत्ति उत्पन्न करना, देश में सम्पन्नता लाना, देश के हित में कार्य करना, देश के हित में अविष्कार करना ही अभिनवता का लक्ष्य होना चाहिए। राष्ट्रहित में अभिनवता का मुख्य स्थान है। हम केवल सेना के माध्यम से ही नहीं बल्कि कई और अन्य माध्यमों से भी अपनी राष्ट्रभक्ति का परिचय दे सकते हैं, अभिनवता की शक्ति यदि देखनी है तो जापान की तरफ देखना होगा। परमाणु हमले में बर्बाद हुए जापान ने कैमरे पर काम करना शुरू किया और आज कई नए उत्पादों में उनकी मौलिकता स्पष्ट देखी जा सकती है। यहाँ तक कि वे देश के लिए औद्योगिक उत्पादन के महत्व को देखते हुए कही हड़ताल नहीं करते हैं। जब इनोवेशन आएगा तभी नौकरियां आएंगी, बिना तकनीक के क्षेत्र में नया किए हुए नौकरी के विषय में सोचा भी नहीं जा सकता है।
चित्रकूट से आए हुए प्रोफेसर योगेश दुबे ने अपने संस्थान के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए सबसे पहले डायलॉग इंडिया के इस कदम को प्रशंसनीय बताया। उन्होंने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में हालांकि कई प्रयास हो रहे हैं, कई कदम उठाए जा रहे हैं, फिर भी दिव्यान्गों के लिए कुछ भी नहीं हुआ था। चूंकि हमारी परम्परा में ही अभिनवता है, कहा भी गया है
मृगस्य रूपे मनुष्याचरति
वर्ष 2001 से पहले दिव्यान्गों के लिए शिक्षा जैसी किसी अवधारणा के विषय में सोचा ही नहीं गया था। सामान्य बच्चों के लिए सोचने वाले कई हैं, परंतु दिव्यांगों के लिए? यही प्रश्न था जो उन्हें बार बार उद्वेलित करता था। दिव्यांग बच्चे बचपन से ही उपेक्षा का सामना करते हैं, उनके मातापिता ही उन्हें छोड़कर चले जाते हैं। तो ऐसे में बिना किसी सरकारी सहायता के उनका संस्थान दिव्यांग बच्चों की प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कार्य कर रहा है। उनके संस्थान में शिशु से लेकर बीसीए, एमसीए तक की शिक्षा है, साधारण बीए से लेकर फाइन आर्ट्स तक की पढाई है। उन्होंने कहा कि एक अक्षमता बच्चों में असाधारण स्तर की किसी दूसरी प्रतिभा को जन्म दे देती है जैसे मूक बधिर बच्चे कला में बहुत ही कुशल होते हैं। उनकी बनाई कलाकृतियाँ बड़े बड़े कलाकारों को भी मात दे देती हैं।
उनके संस्थान के शिक्षक सप्ताह में एक बार आसपास के गाँवों में जाकर दिव्यांग बच्चों को खोजते हैं, और उन्हें शिक्षा के लिए प्रेरित करते हैं।
चर्चा में आगे पत्रकार नवनीत चतुर्वेदी ने आरक्षण के कारण प्रतिभा पलायन पर प्रश्न उठाया।
सत्र के अंत में प्रोफेसर अत्रे ने अभिनवता के क्षेत्र में निरंतर कार्यरत कोइनदसोसाइटी संस्था के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। और साथ ही उन्होंने बताया कि किस तरह अभिनवता के क्षेत्र में कार्य करने के लिए दूसरे देशों के साथ एक्सचेंज कार्यक्रमों का संचालन सरकार के द्वारा किया जाता है।
सत्र में एक दौर दर्शकों के सवालों का भी था, सत्र के उपरान्त दर्शकों ने मौलिकता और अभिनवता के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों पर बात की।
इस कार्यक्रम में सभी विजेता शिक्षण संस्थानों के प्रतिनिधियों ने भी अपने अपने शिक्षण संस्थानों के विषय में परिचय देते हुए गुणवत्तापरक शिक्षा की अपनी प्रतिबद्धता पर बल दिया और कहा कि वे गुणवत्ता से कभी समझौता नहीं करेंगे।
डायलॉग इंडिया के इस कार्यक्रम का सफल संचालन आरजे सुनील शुक्ला ने किया। इस कार्यक्रम को सोशल मीडिया पर भी साइबर सिपाही के माध्यम के प्रसारित किया गया था। साइबर सिपाही के शुभम मंगला ने सभी विजेताओं एवं अतिथियों के साथ बातचीत की।
कायक्रम के अंत में सभी अतिथियों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए डायलॉग इंडिया के ग्रुप एडिटर श्री अनुज अग्रवाल ने उम्मीद की कि निजी शिक्षा की गुणवत्ता भी सरकारी शिक्षा के समानांतर ही रहेगी। इस कार्यक्रम में दिन भर लखनऊ के गणमान्य व्यक्तियों का हस्तक्षेप होता रहा जिसने इस चर्चा को समृद्ध किया।