कोरोना कहर से समूचा भारत संकट में है और इस संकट को तबलीगी जमात ने बढ़ा दिया, इसकी गलती से कोरोना संक्रमण पीड़ितों व मौतों की संख्या बढ़ी है। जमात के अमीर मौलाना साद की इस अक्षम्य गलती से न केवल संपूर्ण भारतीय मुस्लिम समाज को गंभीर संकट में डाला बल्कि साम्प्रदायिक सौहार्द एवं आपसी सद्भावना की भारतीय सांझा-संस्कृति को भी धुंधलाया। जबकि देश का एक बड़ा मुस्लिम समुदाय इस संकट की घड़ी में देश के साथ खड़ा है, अपने-अपने स्तर पर सेवा, सहयोग एवं सहायता के उपक्रम कर रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य ने भी हाल ही में स्वीकार किया है कि मुस्लिम समाज में एक वर्ग ऐसा भी है जो सरकार के निर्देशों का पालन कर रहा है, जमात के लोगों की खोज करने में प्रशासन की मदद कर रहा हैं। उन्होंने मुस्लिम समाज में तबलीगी जमात के सदस्यों का विरोध होने की भी सराहना की।
भारत का एक बड़ा मुस्लिम वर्ग कोरोना मुक्ति के अभियान में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाते हुए सहयोग कर रहा है। राजस्थान के लाडनूं कस्बे का नूर फाउण्डेशन कोरोना लोकडाउन के दौरान घरों के सर्वे से लेकर जरूरतमंदों तक राशन किट उपलब्ध करवाने एवं क्वारण्टाइन केंद्रों पर आइसोलेट मरीजों की देखभाल करने में अपनी अहम भूमिका अदा कर रहा हैं। फाउंडेशन के संयोजक नौशाद अली सिसोदिया के अनुसार तहसील के शिक्षकों के लिए सैकड़ों बोतल सेनिटाइजर, जरूरतमंदों के लिये माॅस्क, कोई व्यक्ति भूखा न सोये इसके लिये खाद्य सामग्री की व्यवस्था लगातार की जा रही है। इस फाउण्डेशन के सेवा-प्रकल्पों की न केवल प्रशासनिक स्तर पर प्रशंसा हो रही है, बल्कि मीडिया एवं आमजन के बीच में भी इन अनूठे सेवा-कार्यों की सराहना हो रही है। इस फाउण्डेशन ने एक मिसाल कायम की है और मुस्लिम समाज को ऐसे सकारात्मक कार्यों में बढ़-चढ़ कर सहभागी बनने को प्रेरित किया है। इसने जाति, वर्ण, वर्ग, भाषा, प्रांत एवं धर्मगत संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानव-धर्म को प्राथमिकता दी है।
बात केवल नूर फाउण्डेशन के सेवा-सहयोग प्रकल्पों की नहीं है, बल्कि समूचे मुस्लिम समुदाय के मानवतावादी सोच की है और बात कट्टर एवं अराष्ट्रीय सोच के परिष्कार की है। जयपुर में भी ऐसी ही मानवता की झलक दिखाई दी। जहां मुस्लिम समाज के लोगों ने हिंदू शख्स का अंतिम संस्कार किया। मरने वाले व्यक्ति का कोई रिश्तेदार नहीं था जिसके बाद मुस्लिम समुदाय के लोगों ने उसकी अर्थी को कंधा दिया। भारत की संस्कृति विविधता में एकता, सहअस्तित्व एवं समन्वय में विश्वास करती है। यहां बहुत-सी कौमें एवं जातियां अपनी-अपनी परम्परा तथा रीति-रिवाजों के साथ आगे बढ़ी हैं। मुस्लिम समाज इस राष्ट्र एवं यहां की सांझा संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। भारत की संस्कृति एवं संस्कार धार्मिक सद्भाव एवं समन्वय के पोषक है। पर यहां धर्म-समन्वय का अर्थ अपने सिद्धान्तों को ताक पर रखकर अपने आपको विलय करना कतई नहीं है। व्यक्तिगत रुचि, आस्था, मान्यता आदि सदा भिन्न रहेंगी, पर उनमें आपसी टकराव न हो, परस्पर सहयोग, सद्भाव एवं सापेक्षता बनी रहे, यह आवश्यक है और यही नूर फाउण्डेशन की पृष्ठभूमि भी है। एक पारिवारिक ट्रस्ट होते हुए भी इसकी सोच राष्ट्रव्यापी है, बौद्धिक एवं उदारवादी परिवार से जुड़े होने के कारण इस फाउण्डेशन ने अपनी बिरादरी के लिये शिक्षा, सेवा, बालिका कल्याण एवं एकता-अखण्डता के काम किये हंै। दो दशक की स्वल्पावधि ने इस परिवार के सदस्यों ने अपनी उदारवादी एवं राष्ट्रवादी सोच से बड़े मुकाम हासिल किये हैं एवं अपने समुदाय की सोच को बदला है।
नूर फाउण्डेशन एक मिशन एवं विजन है जो सभी ओर इंसानियत की बात करता है, सबको बराबर समझने और प्रेम करने की बात की राह दिखाता है। सबको एक समान समझना और गरीबों को खुशियाँ देना ही इसका उद्देश्य है। हजरत मोहम्मद साहब ने यही उपदेश दिया है कि जो लोग साधन संपन्न होते हैं उनका कर्तव्य है कि वे निर्धनों और कमजोरों की यथासंभव सहायता करें। उनकी खुशी निरर्थक है यदि उनके सामने कोई कमजोर निर्धन है जिसके पास खाने-पहनने को कुछ न हो। कोरोना के इस संकटकालीन दौैर में जरूरतमंद की सहायता के लिये तत्पर होने का अर्थ है हर मुसलमान का खुदा से संबंधित होना है या स्वयं का स्वयं के साथ संबंधित होना। यह अवसर परोपकार एवं परमार्थ की प्रेरणा का विलक्षण अवसर भी है, खुदा तभी प्रसन्न होता है जब उसके जरूरतमद बन्दों की खिदमत की जाये, सेवा एवं सहयोग के उपक्रम किये जाये।
फाउण्डेशन के चेयरमैन डाॅ. गुलाब नबी, शिक्षाविद होने के साथ-साथ समाज-सुधारक है, वे तबलीगी जमात की घटनाओं को इस्लाम विरोधी मानते हैं और कहते है कि कोरोना महासंकट का समय नेकी करने और अपने दिल को पाक-साफ रखने का अवसर है, नफरत, द्वेष एवं भेदभाव के बिना मन और कर्म को पवित्र रखते हुए कोरोना मुक्ति के लिये हरसंभव प्रयत्न एवं सहयोग करने का अवसर है। हर मुसलमान के लिए यही फर्ज है। इसी तरह के बुराइयों के विरुद्ध उठे प्रयत्न हमें जिंदगी जीने का नया अंदाज देते हैं, जहां औरों के दुख-दर्द को बाँटा जाता है, बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है। मानव को मानव से जोड़ना है, न कि नफरत एवं द्वेष बढ़ाना है। लाडनूं हिन्दू-मुस्लिम सांझा संस्कृति की एक अनूठी परम्परा का शहर है, जहां के जनजीवन में बिखरे सद्भाव और समन्वय का अर्थ है- मतभेद रहते हुए भी मनभेद न रहे, अनेकता में एकता रहे।
जमात की एक छोटी सी गलती ने पूरे मुस्लिम समाज को ‘कोरोना आतंकवादी’ का रूप दे दिया। आखिर जमात के अमीर मौलाना साद इस संबंध में क्या सोच रहे थे? सारी दुनिया में फरवरी से कोरोना वायरस से फैली महामारी का डंका बज चुका था, चीन में हजारों लोगों की मौत हो चुकी थी। इस महामारी के कदम तेजी से भारत की ओर बढ़ रहे थे। दुनिया को यह पता चल चुका था कि कोरोना वायरस का मर्ज एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आने से फैलता है। मक्का और काबा तक सर्वोच्च मुस्लिम धर्म-स्थल तक बंद हो गये तो फिर क्यों जमात ने धर्म के नाम पर प्रशासनिक पाबंदियों के बावजूद लोगों को गुमराह किया गया, उनका जीवन संकट में डाला गया एवं समूचे राष्ट्र को संकट में झोंक दिया? यह प्रश्न मुसलमानों को भी झकझोर रहा है। सत्य यह है कि मुस्लिम समाज का यह कट्टरपंथी धार्मिक नेतृत्व पिछले कुछ दशकों से स्वयं मुस्लिम समाज को जितना नुकसान पहुंचा रहा है उतना नुकसान कोई और नहीं पहुंचा रहा है। पहले बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी, फिर पर्सनल लॉ बोर्ड और अब तबलीगी जमात वही कर रही है। जब तक मुस्लिम समाज को ऐसे नेतृत्व से छुटकारा नहीं मिलता तब तक मुस्लिम समाज का उद्धार नहीं होने वाला है।
नूर फाउण्डेशन जैसे उदारवादी एवं राष्ट्रवादी उपक्रम मुस्लिम समुदाय पर लगे धब्बों को मिटाने में जुटा है। उसका मानना है कि खुदा के दरबार में सब एक हैं, अल्लाह की रहमत हर एक पर बरसती है। यह कुरान का शाश्वत निर्देश है कि आपदा एवं संकट के दिनों में कोई दुःखी न रहे। यदि पड़ोसी दुःख में है तो उसकी मदद करो। यदि कोई असहाय है तो उसकी सहायता करो। यही धर्म है, यही मानवता है, यही इस्लाम है। जिससे संकट, दुःख और पीड़ा पीछे छूट जाती है। अमीर और गरीब का अंतर मिट जाता है। डाॅ. गुलाब नबी मानना है कि कोरोना महासंकट सम्पूर्ण मानवता पर मंडरा रहा महासंकट है जो हमारे लिये धार्मिकता के साथ नैतिकता और इंसानियत की प्रेरणा का विशिष्ट अवसर भी है। यह अवसर अपने गुनाहों से मुक्त होने, उससे तौबा करने, उससे डरने और मन व हृदय को शांति एवं पवित्रता देने का अवसर है। इस अवसर पर जो सच्चा मुसलमान होगा, उसमें अवश्य ही संयम पैदा होगा, पवित्रता का अवतरण होगा और संकीर्णताओं एवं कट्टरता पर काबू पाने की शक्ति पैदा होगी। एक तरह से त्याग एवं संयममय जीवन की राह पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होगी। समतामूलक मानव समाज की रचना होगी। कोरोना महामारी के कारण हाशिये पर खड़े दरिद्र और दीन-दुःखी, गरीब-लाचार लोगों के दुख-दर्द को हर मुसलमान समझें और अपनी कोशिशों से उनके चेहरों पर मुस्कान लाएं-न कि भारत की सांझा संस्कृति को क्षत-विक्षत करें।
(ललित गर्ग)