गंगा के मैदानी भागों रहने वाली आबादी को आमतौर पर आर्सेनिक के कारण होने वाले रोगों से अधिक प्रभावित माना जाता है। भारतीय शोधकर्ताओं के एक ताजा अध्ययन के दौरान पंजाब के भूजल में भी अब आर्सेनिक के गंभीर स्तर के बारे में पता चला है।
पंजाब के 13000 हजार कूपों या हैंडपंप से एकत्रित किए गए भूजल के नमूनों में से 25 प्रतिशत कूपों के पानी में आर्सेनिक स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के निर्धारित मापदंड से 20-50 गुना अधिक पाया गया है। आर्सेनिक का उच्च स्तर तरण तारण, अमृतसर और गुरदासपुर जिलों में रावी नदी के बाढ़ग्रस्त मैदानों में सबसे अधिक फैला हुआ है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि जिन परिवारों के घर में आर्सेनिक प्रभावित कूप मिले हैं, उनमें से 87 प्रतिशत परिवार डब्ल्यूएचओ के मानकों को पूरा करने वाले सुरक्षित पेयजल वाले अन्य कुओं के 100 मीटर के दायरे में रहते हैं। ऐसे परिवार आर्सेनिक से सुरक्षित आसपास के दूसरे कुओं से पीने का पानी ले सकते हैं।
इस अध्ययन में भारतीय पंजाब के पश्चिमी हिस्से और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत समेत कुल 383 गांवों में स्थित 30,567 जलकूपों से पानी के नमूने एकत्रित किए गए हैं। इन नमूनों का परीक्षण आर्सेनिक किट की मदद से किया गया है। पानी में आर्सेनिक की उपस्थिति और उसकी मात्रा का पता लगाने के लिए उपयोग की जाने वाली यह किट कलर कोडेड स्ट्रिप पर आधारित होती है।
परीक्षण के बाद सर्वेक्षक उस परिवार को उनके हैंडपंप के पानी में आर्सेनिक की स्थिति के बारे में बताते हैं और फिर आर्सेनिक से असुरक्षित हैंडपंप को लाल रंग और सुरक्षित हैंडपंप को नीले रंग की पट्टी से चिह्नित कर दिया जाता है। सर्वेक्षण के दौरान चयनित गांवों में जीपीस का उपयोग भी किया गया था। अध्ययन में शामिल परिवारों की लोकेशन और संबंधित आंकड़ों को उसी स्थान पर जीपीएस में दर्ज किया गया है।
प्रमुख शोधकर्ता डॉ चंदर कुमार सिंह ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “हमने भारतीय पंजाब के 199 गांवों के 13000 हैंडपंप या कूपों का परीक्षण घर-घर जाकर किया है। इससे पहले पंजाब के भूमिगत जल में आर्सेनिक की समस्या के विस्तार के बारे पूरी जानकारी नहीं थी क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर परीक्षण नहीं किया गया था। इस अध्ययन से अब स्पष्ट हो गया है कि पंजाब के बाढ़ग्रस्त इलाके भी आर्सेनिक की समस्या से बुरी तरह प्रभावित हैं।”
एक साल बाद पांच गांवों के कूपों के जल का दोबारा परीक्षण करने पर 59 प्रतिशत कूपों के पानी में आर्सेनिक का बढ़ा हुआ स्तर मिला है। इसके साथ ही एक अच्छी बात यह भी देखने को भी मिली कि दो-तिहाई परिवारों ने परीक्षण के बाद पास के सुरक्षित जलकूपों से पीने का पानी लेना शुरू कर दिया था।
नई दिल्ली स्थित टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, इस्लामाबाद स्थित कायदे-आजम यूनिवर्सिटी और न्यूयॉर्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा यह अध्ययन संयुक्त रूप से किया गया है। अध्ययन के नतीजे शोध पत्रिका साइंस ऑफ द टोटल एन्वायरमेंट में प्रकाशित किए गए हैं। अमेरिका के नेशनल साइंस फांउडेशन, युनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट के अनुदान पर यह अध्ययन आधारित है। इन दोनों संस्थाओं का भी यही निष्कर्ष है कि गंगा के मैदानी भागों के अलावा भारतीय पंजाब और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित सिंधु बेसिन में आर्सेनिक का गंभीर स्तर मौजूद है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले जिन दस रसायनों को चिह्नित किया गया है, उसमें आर्सेनिक भी शामिल है। आर्सेनिक के अलावा इनमें वायु प्रदूषण, एस्बेस्टस, बेंजेन, कैडमियम, डाइऑक्सिन एवं उसके जैसे पदार्थ, अपर्याप्त एवं अत्यधिक फ्लोराइड, शीशा, पारा और खतरनाक कीटनाशक शामिल हैं। डब्ल्यूएचओ ने पेयजल में आर्सेनिक की मात्रा 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तय की है। पीने के पानी में इससे अधिक आर्सेनिक की मात्रा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकती है।
डॉ सिंह ने बताया कि “पेयजल में आर्सेनिक की मौजूदगी कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दे सकती है। इसके कारण त्वचा रोग, तंत्रिका तंत्र संबंधी रोग, पेट की बीमारियां, मधुमेह, किडनी रोग, कैंसर, बच्चों के मानसिक विकास में बाधा, गर्भपात और हृदय संबंधी बीमारियां हो सकती हैं।”
आर्सेनिक के विषैले प्रभाव से फैले त्वचा रोगों और आर्सेनिकोसिस जैसी स्वास्थ्य समस्याओं के रूप में इस संकट की पहचान पश्चिम बंगाल 1980 के दशक में हुई थी। जिन क्षेत्रों को अब तक आर्सेनिक प्रदूषण के खतरे के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील माना जाता रहा है, उनमें बांग्लादेश और भारत (पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, असम, मणिपुर और छत्तीसगढ़) के गंगा-ब्रह्मपुत्र से सटे इलाके शामिल हैं। हालांकि, इस नये अध्ययन से पता चलता है कि पंजाब में भी आर्सेनिक प्रदूषण की गंभीर समस्या है।
शोधकर्ताओं के अनुसार, नजदीकी सुरक्षित कूपों से सामुदायिक आदान-प्रदान पर आधारित पहल के जरिये पीने का पानी लिया जा सकता है। ऐसा करके आर्सेनिक के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। उनका कहना यह भी है कि आर्सेनिक की समस्या के विस्तार का पता लगाने के लिए इससे भी बड़े पैमाने पर अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है।
शोधकर्ताओं में डॉ चंदर कुमार सिंह के अलावा उनके शोध छात्र आनंद कुमार, कोलंबिया यूनिवर्सिटी के एलेक्जेंडर वैन गीन एवं टेलर एलिस, कायदे-आजम यूनिवर्सिटी के जुनैद अली खटक, आबिदा फारुकी, निस्बा मुस्ताक और इश्तियाक हुसैन शामिल थे। (इंडिया साइंस वायर)
उमाशंकर मिश्र