Shadow

परमाणु परीक्षण की जगह गूंजेगी कुम्हारों के चाक की ध्वनि

बदलते दौर में भारत के गांवों में चल रहे परंपरागत व्यवसायों को भी नया रूप देने की जरूरत है। गांवों के परंपरागत व्यवसाय के खत्म होने की बात करना सरासर गलत है। अभी भी हम ग्रामीण व्यवसाय को थोड़ी-सी तब्दीली कर जिंदा रख सकते हैं। ग्रामीण भारत अब नई तकनीक और नई सुविधाओं से लैस हो रहा हैं। भारत के गांव बदल रहे हैं, तो इनको अपने कारोबार में थोड़ा-सा बदलाव करने की जरूरत है। नई सोच और नए प्रयोग के जरिए ग्रामीण कारोबार को जिन्दा रखकर विशेष हासिल किया जा सकता है और उसे अपनी जीविका का साधन बनाया जा सकता है।

इसी दिशा में खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग ने पोखरण की एक समय सबसे प्रसिद्ध रही बर्तनों की कला की पुनःप्राप्ति तथा कुम्हारों को समाज की मुख्य धारा से फिर से जोड़ने के लिये प्रयास प्रारंभ किये हैं। कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन ने मिट्‌टी बर्तन बनाने वाले कारीगरों के सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है। इन्होने मिट्टी बर्तन बनाकर रखे लेकिन बिक्री न होने की वजह से खाने के भी लाले पड़ गए। अब न तो चाक चल रहा है और न ही दुकानें खुल रही हैं। घर व चाक पर बिक्री के लिए पड़े मिट्टी के बर्तनों की रखवाली और करनी पड़ रही है। देश भर में प्रजापति समाज के लोग मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते हैं। ऐसे समय केंद्र एवं राज्य सरकारों के द्वारा ऐसी योजनाओं का लाना बेहद स्वागत योग्य कहा जाएगा.

कुछ समय पूर्व उत्तरप्रदेश में भी ऐसी ही एक योजना लागू की गई थी. मिट्टी के बर्तनों के जरिए अपनी आजीविका कमाने वाले कुशल श्रमिकों के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल से देश भर के प्रजापति समाज के लोगों के लिए एक आस जगी, जिसके अनुसार राज्य के प्रत्येक प्रभाग में एक माइक्रो माटी कला कॉमन फैसिलिटी सेंटर (सीएफसी) का गठन की बात आगे बढ़ी। । सीएफसी की लागत 12.5 लाख है, जिसमें सरकार का योगदान 10 लाख रुपये है। शेष राशि समाज या संबंधित संस्था को वहन कर रही है। भूमि, यदि संस्था या समाज के पास उपलब्ध नहीं है, तो ग्राम सभा द्वारा प्रदान की जा रही है। प्रत्येक केंद्र में गैस चालित भट्टियां, पगमिल, बिजली के बर्तनों की चक और पृथ्वी में मिट्टी को संसाधित करने के लिए अन्य उपकरण उपलब्ध करवाए जा रहे है। श्रमिकों को एक छत के नीचे अपने उत्पादों को विकसित करने के लिए सभी सुविधाएं मुहैया हो रही है। इन केंद्रों के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाने की कोशिश रंग ला रही है।

अब पोखरण में कुम्हारों के परिवारों को इलेक्ट्रिक पॉटर चाकों का वितरण किया गया है। इलेक्ट्रिक चाकों के अलावा, 10 कुम्हारों के समूह में 8 अनुमिश्रक मशीनों का भी वितरण किया गया है। अनुमिश्रक मशीनों का इस्तेमाल मिट्टी को मिलाने के लिये करते है और यह मशीन केवल 8 घंटे में 800 किलो मिट्टी को कीचड़ में बदल सकती है जबकि व्यक्तिगत रूप से मिट्टी के बर्तन बनाने के लिये 800 किलो मिट्टी तैयार करने में लगभग 5 दिन का लंबा समय लगता है। ऐसी योजनाओं के आने से गाँव में अब प्रत्यक्ष रोज़गार का सृजन हो रहा है। खादी आयोग के ऐसे प्रयासों का उद्देश्य कुम्हारों को सशक्त बनाना, स्व-रोज़गार का सृजन करना और मृतप्राय हो रही मिट्टी के बर्तनों की कला को पुनर्जीवित करना है।

कुम्हारों को कुम्हार सशक्तीकरण योजना से जोड़ा जाना उनके लिए बड़ी ख़ुशी और घर पर ही रोजगार का जरिया है। आजकल इस कार्यक्रम से राजस्थान के कई ज़िलों जैसे जयपुर, कोटा, झालावाड़ और श्री गंगानगर सहित एक दर्जन से अधिक ज़िलों को लाभ प्राप्त हुआ है। यही नहीं बाड़मेर और जैसलमेर रेलवे स्टेशनों पर मिट्टी के बर्तनों के उत्पादों का विपणन करने और उसकी बिक्री के लिये सुविधा प्रदान करने का निर्देश भी जारी किया गया है, जिससे कुम्हारों को विपणन में सहायता प्रदान की जा सके। देश भर में 400 रेलवे स्टेशनों पर केवल मिट्टी/टेराकोटा के बर्तनों में खाद्य पदार्थों की बिक्री होती है जिनमें से राजस्थान के दो जैसलमेर और बाड़मेर शामिल हैं और ये दोनों प्रमुख रेलमार्ग पोखरण के सबसे नज़दीक हैं। अब से राज्य इकाई इन शहरों में पर्यटकों के उच्च स्तर को देखते हुए इन रेलवे स्टेशनों पर अपने मिट्टी के बर्तनों की बिक्री में सुविधा प्रदान करने की भरपूर कोशिश करेगी।

भारत भर में कुम्हार परिवार जो कई दशकों से मिट्टी के बर्तनों के निर्माण के कार्य से जुड़े थे, वो काम में कठिन परिश्रम और बाज़ार का समर्थन नहीं मिलने के कारण अन्य रास्तों पर पर मंजिल ढूंढ रहे थे। पर अब उनके लिए राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, जम्मू और कश्मीर, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, असम, गुजरात, तमिलनाडु, ओडिशा, तेलंगाना और बिहार जैसे राज्यों के कई दूरदराज़ इलाकों में कुम्हार सशक्तीकरण योजना की शुरुआत जोर पकड़ रही है। नयी कुम्हार सशक्तीकरण योजना का उद्देश्य कुम्हार समुदाय को मुख्यधारा में वापस लेकर आना है। इस योजना के माध्यम से बर्तनों के उत्पाद का निर्माण करने के लिये मिट्टी को मिलाने के लिये अनुमिश्रक मशीनों और पग मिल्स जैसे उपकरण उपलब्ध कराए जाते हैं। इन मशीनों ने मिट्टी के बर्तनों के निर्माण की प्रक्रिया में लगने वाले कठिन परिश्रम को समाप्त कर दिया है और साथ ही इससे कुम्हारों की आय 7 से 8 गुना ज्यादा बढ़ गई है।

पोखरण (जहाँ पर भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया था) को अब बहुत जल्द ही उत्कृष्ट मिट्टी के बर्तनों का निर्माण स्थल के रूप में जाना जायेगा। परमाणु बम की जगह अब यहाँ कुम्हारों के चाक की ध्वनि गूंजेगी. कुम्हारों को आधुनिक उपकरण और प्रशिक्षण जैसे कार्यक्रमों के द्वारा उन्हें समाज के साथ जोड़ने और उनकी कला को पुनर्जीवित करने का अनूठा एवं सराहनीय प्रयास है। जब हम गांव में नयी और सहायता प्राप्त योजनाओं से ऐसे कारोबार शुरू करते हैं तो उससे सिर्फ हमें ही फायदा नहीं मिलता बल्कि हमारी एक सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी होती है। इन कामों से हम खुद आत्मनिर्भर बनते हैं और तमाम बेरोजगारों के लिए रोजगार के अवसर भी देते हैं। आज बदलते दौर में हर व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने साथ- साथ ही दूसरे लोगों को भी प्रोत्साहित करे। उन्हें खुद के काम करने के प्रति जागरूक करे। इसी से आने वाले समय में ग्रामीण भारत के सशक्तिकरण के सपने को हम पूरा कर पाएंगे।

— डॉo सत्यवान सौरभ,

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *