पर्यावरण का संकट एवं द्रौपदी मुर्मू का संकल्प
-ः ललित गर्ग :-
भारत के 15वें राष्ट्रपति के रूप मंे देश के सर्वाेच्च पद पर, प्रथम नागरिक के आसन पर एक व्यक्ति नहीं, निष्पक्षता और नैतिकता, पर्यावरण एवं प्रकृति, जमीन एवं जनजातीयता के मूल्य आसीन हुए हैं। आजाद भारत में पैदा होकर आजादी के अमृत महोत्सव की बेला में एक ऐसा व्यक्तित्व द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति के आसन पर विराजमान हुई है, जिससे पूरा देश गर्व एवं गौरव का अनुभव कर रहा है। उनके शपथ ग्रहण के साथ देश के जनजाति और वनवासी समुदाय का सिर जिस तरह गर्व से ऊंचा उठा है, वह भारतीय राष्ट्र की नई ताकत और भारतीय राजनीति के नए विस्तार की ओर इशारा करता है। निश्चित ही आदिवासी समुदाय का राष्ट्र की मूलधारा में विस्तार होगा। शपथ ग्रहण के बाद अपने पहले संबोधन में राष्ट्रपति मुर्मू ने आजादी के अमृत महोत्सव को याद किया, जिसे हम कुछ ही दिनों में मनाने वाले हैं। उन्होंने कहा, ‘मेरा सौभाग्य है कि आजादी के 75वें साल में मुझे यह दायित्व मिला है।’ यह तय है कि आजादी का अमृत महोत्सव मनाने एवं आजादी को नये शिखर देने में मुर्मू का सर्वोच्च संवैधानिक पद पर स्थापित होना शुभ एवं श्रेयस्कर है, जिससे सशक्त एवं नये भारत का निर्माण का आधार तैयार हो सकेगा। इससे उस संकल्प और उन सपनों को एक नया आयाम मिला है, जो आजादी की लड़ाई की सबसे प्रमुख भावना थी। हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने जिसके लिए अपना सर्वाेच्च बलिदान दिया।
मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से देश की पर्यावरण एवं प्रकृति से जुड़ी समस्याओं के समाधान की दृष्टि से सकारात्मक वातावरण बन सकेगा। इस बात का संकेत मुर्मू ने बतौर राष्ट्रपति पहली बार देश को संबोधित करते हुए दे दिया है। उससे पहले निवर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने आखिरी राष्ट्र-संबोधन में पर्यावरण के मुद्दे को उठाया। यह एक शुभ संकेत एवं शुरुआत है कि दोनों राष्ट्रपतियों ने अपने कार्यकाल के समापन और आरंभ के इस ऐतिहासिक मौके का इस्तेमाल करते हुए पर्यावरण की ज्वलंत होती समस्या के सवाल को महत्वपूर्ण ढंग से रेखांकित किया। चौदहवें राष्ट्रपति कोविंद ने कहा कि प्रथम नागरिक के रूप में अगर मुझे अपने देशवासियों को कोई एक सलाह देनी हो तो मैं उनसे कहना चाहूंगा कि प्रकृति माता गहरी तकलीफ में हैं और जलवायु संकट इस समूचे ग्रह के भविष्य को खतरे मे डाल सकता है। ध्यान रहे पिछले ही महीने विश्व बैंक की ओर से जारी की गई एनवायरनमेंट परफॉर्मेंस इंडेक्स 2022 में भारत सबसे निचली पांत के देशों में शामिल था। इस सचाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि पर्यावरण संरक्षण के मामले में हम बहुत पीछे हैं और हमें बहुत कुछ करना है। बेहतर होगा कि नागरिक और सरकार दोनों इस मामले में तालमेल बनाए रखते हुए तेजी से आगे बढ़ें और दुनिया के सामने मिसाल पेश करें।
नई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू वनवासी समुदाय से जुड़ी है, उन्होंने प्रकृति एवं पर्यावरण के संकटों को करीब से देखा है, यह भारत की विकराल होती समस्या है, जिसका गहराना जीवन को अंधेरा में धकेलना है, अतः वे इस समस्या के दर्द को गहराई से महसूस करती है, तभी उन्होंने कहा कि मेरा तो जन्म उस जनजातीय परंपरा में हुआ है जिसने हजारों वर्षों से प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर जीवन को आगे बढ़ाया है। मैंने जंगल और जलाशयों के महत्व को अपने जीवन में महसूस किया है। हम प्रकृति से जरूरी संसाधन लेते हैं और उतनी ही श्रद्धा से प्रकृति की सेवा भी करते हैं। जल, जंगल और जमीन इन तीन तत्वों से पृथ्वी और प्रकृति का निर्माण होता है। यदि यह तत्व न हों तो पृथ्वी और प्रकृति इन तीन तत्वों के बिना अधूरी है। विश्व में ज्यादातर समृद्ध देश वही माने जाते हैं जहां इन तीनों तत्वों का बाहुल्य है। भारत भी इसी समृद्धता का देश है, लेकिन इनकी समृद्धता की उपेक्षा के कारण अनेक समस्याएं विकास की बड़ी बाधा बनती जा रही है। बात अगर इन मूलभूत तत्व या संसाधनों की उपलब्धता तक सीमित नहीं है।
आधुनिकीकरण के इस दौर में जब इन संसाधनों का अंधाधुन्ध दोहन हो रहा है तो ये तत्व भी खतरे में पड़ गए हैं। अनेक शहर पानी की कमी से परेशान हैं। आप ही बताइये कि कहां खो गया वह आदमी जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को कटने से रोकता था? गोचरभूमि का एक टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। जिसके लिये जल की एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी। जो वन्य पशु-पक्षियों को खदेड़कर अपनी बस्तियों बनाने का बौना स्वार्थ नहीं पालता था। अब वही मनुष्य अपने स्वार्थ एवं सुविधावाद के लिये सही तरीके से प्रकृति का संरक्षण न कर पा रहा है और उसके कारण बार-बार प्राकृतिक आपदाएं कहर बरपा रही है। रेगिस्तान में बाढ़ की बात अजीब है, लेकिन हमने राजस्थान में अनेक शहरों में बाढ़ की विकराल स्थिति को देखा हैं। जब मनुष्य पृथ्वी का संरक्षण नहीं कर पा रहा तो पृथ्वी भी अपना गुस्सा कई प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दिखा रही है। वह दिन दूर नहीं होगा, जब हमें शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी। इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा। निश्चित ही इन सभी समस्याओं पर मुर्मू की सजगता एवं सतर्कता से देश एक बड़ी राहत को महसूस करेगा।
बेशक राष्ट्रपति हमारे देश के संवैधानिक प्रमुख हैं और वह शासन के रोजमर्रा के कामकाज से ऊपर होते हैं। बावजूद इसके, अगर एक के बाद एक दोनों राष्ट्रपतियों ने प्रकृति एवं पर्यावरण के मसले को अपने भाषण शामिल करने की जरूरत महसूस की तो यह अकारण नहीं हो सकता। पर्यावरण आज इतना बड़ा मसला होता जा रहा है जो हर मनुष्य के जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है। अपनी शुरुआत में ही मुर्मू ने जता दिया कि वे भारत की समस्याओं के समाधान में योगभूत बनेगी, राष्ट्र के इस सर्वाेच्च पद के लिए जिन गुणों की अपेक्षा होती है वे इनमें परिलक्षित हैं। ऐसे व्यक्ति के चयन में सर्वसम्मति नहीं मिली तो इसमें राजनैतिक दलों की अपनी मजबूरियां या आग्रह रहे। मुर्मू के लिए वे कोई चुनौती नहीं दे सके। उन्हांेने केवल अपनी मजबूरियों को औपचारिकता मात्र दी। मुर्मू का शैक्षणिक एवं राजनैतिक जीवन सदैव प्रशंसनीय रहा है, व्यक्तिगत जीवन अनेक संकटों एवं चुनौतियां का साक्षी बना है। आज इस आदर्श महिला पर कोई भी अंगुली नहीं उठा सकता, चाहे उसमें किसी चिन्ह की अंगूठी पहनी हुई हो। मुर्मू का चयन राष्ट्रपति के आसन पर नैतिक मूल्यों का आसीन होना है। यह देश के लिए शुभ शकुन है।
हर विकासशील राष्ट्र को कई बार अग्नि स्नान करता पड़ता है। पर आज हमारा राष्ट्र ”कीचड़ स्नान“ कर रहा है। आतंकवाद, अलगाववाद, सम्प्रदायवाद की समस्याएं विषम बनी हुई हैं। कोई भी राजनैतिक दल बाहर एवं अन्दर से वैसा नहीं है, जैसा उसे होना चाहिए, या जैसा होने का वे दिखावा करते हैं। ऐसी स्थिति में मुर्मू का दायित्व कई गुना बढ़ जाता है। आज इस पद पर किसी चाणक्य की नहीं, आध्यात्मिक मूल्यों को जीने वाले व्यक्ति की जरूरत है। बाबू राजेन्द्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधाकृष्ण, डॉ0 ज़ाकिर हुसैन, डॉ. अब्दूल कलाम जैसी सादगी, विद्वता एवं शैक्षणिकता की विशेषताएं लिए मुर्मू अपने आप में बेजोड़ हैं।
हर चुनाव- चाहे वो दल के रूप में हो या व्यक्ति के रूप में, जनमानस में सदैव नई अपेक्षाएं जगाता है। और अपेक्षाओं की पूर्ति विजयी का लक्ष्य होता है तथा उसे उस कसौटी पर खरा उतरने के लिए अपने को प्रस्तुत करता होता है। इस किरदार की अभिव्यक्ति में उसे अपने देश की संस्कृति तथा अस्मिता की रक्षा करनी होती है। सजगता का तीसरा नेत्र सदैव खुला रखना होता है। संयम और न्याय उनके जीवन का पर्याय बन जाते हैं। तब कहीं ”महामहिम“ का सम्बोधन सम्पूर्णता से चरितार्थ होता है। सम्प्रदायवाद का विषधर अपना फन उठाये हुए डंक मारने को तैयार है। ” द्रौपदी“ तुम्हें इस गरल को पीना होगा। राष्ट्र की एकता भाईचारे के जिस ताने-बाने से बनी है, वह कभी भी उधड़ सकती है। आवश्यकता है संयम की। आवश्यकता है साफ-सुथरी सोच की, साफ सुथरे निर्णय की, साफ-सुथरे न्याय की।