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पैसे और मादक पदार्थों का वोटों पर ग्रहण!

वोट की राजनीति ने पूरा अपराध जगत खड़ा किया हुआ है। मतदान जैसी पवित्र विधा भी आज असामाजिक तत्वों के हाथों में कैद है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान पकड़ी गई नगदी, शराब और अन्य मादक पदार्थों के आंकड़े हैरान करने वाले हैं। कब जन प्रतिनिधि राजनीति को सेवा और संसद को पूजा स्थल जैसा पवित्र मानेंगे? कब लोकतंत्र को शुद्ध सांसें मिलेंगी? कब तक वोटो की खरीद फरोख्त होती रहेगी? सभी दल एवं नेता अभाव एवं मोह को निशाना बनाकर नामुमकिन निशानों की तरफ कौम को दौड़ा रहे हैं। यह कौम के साथ नाइन्साफी है। क्योंकि ऐसी दौड़ आखिर जहां पहुंचती है वहां कामयाबी की मंजिल नहीं, बल्कि मायूसी का गहरा गड्ढ़ा है। चुनाव का समय देश के भविष्य-निर्धारण का समय है। लालच और प्रलोभन को उत्तेजना देकर वोट प्राप्त करना चुनाव की पवित्रता का लोप करना है। इस तरह वोट की खरीद-फरोख्त होती रहेगी तो देश का रक्षक कौन होगा?
पांच राज्यों से अब तक जो आंकडे़ मिले हैं उनमें उत्तर प्रदेश की स्थिति अधिक चैंकानेवाली है। निर्वाचन आयोग के जांच दल ने अकेले उत्तर प्रदेश में करीब एक सौ सोलह करोड़ रुपए नगद, करीब अट्ठावन करोड़ रुपए की शराब और लगभग आठ करोड़ रुपए के मादक पदार्थ बरामद किए हैं। जाहिर है, चोरी-छिपे इससे कई गुना अधिक नगदी, शराब और मादक पदार्थों का प्रवाह हुआ होगा। पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में इस बार अवैध पैसे और मादक पदार्थों का प्रवाह तीन गुना से अधिक हुआ है। इसी तरह उत्तराखंड और पंजाब में भी चुनाव प्रचार के दौरान मतदाताओं को पैसे और नशीले पदार्थ बांटने का चलन पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में काफी बढ़ा है।
राजनीति में चरित्र एवं सेवा के मूल्यों के नितांत अभाव ने अपराधीकरण के जाल को और फैला दिया है। देश में माफिया गिरोह की ताकत और नियंत्रण इतना ज्यादा हो गया है कि राजनीतिक पार्टियों को चुनाव जीतने के लिये इनकी सेवाओं का इस्तेमाल करना ही होता है। एक तरह से राजनीतिज्ञों, अपराधियों तथा प्रशासनिक अधिकारियों के बीच सांठ-गांठ है। उनके पास मजबूत तंत्र है। बाहुबलियों की फौज है। आलीशान मकान है। गुण्डा तत्व हैं। पांच सितारों का आतिथ्य है। जीवित व मुर्दा मांस है। इस प्रकार लूटखसोट का अपना भी एक ‘नेटवर्क’ बन गया है और चुनाव के समय यह नेटवर्क अधिक सक्रिय होकर नंगा नाच करता है। हैरानी की बात है कि चुनाव आयोग एवं अन्य निगरानी एजेन्सियों के बावजूद इन अपराधी तत्वों का नेटवर्क बेधड़क अपना कार्य करता है और हर पिछले चुनाव की तुलना में इनका उपयोग अधिक होता जा रहा है। पंजाब में पैसे और नशीले पदार्थ बांटने एवं अपराधी तत्वों की सक्रियता का यह आंकड़ा पिछले चुनाव से पांच गुना से अधिक है। जबकि इस बार पंजाब में मादक पदार्थों की अवैध बिक्री पर रोक लगाना एक अहम चुनावी मुद्दा था। नशामुक्ति एवं नारी उन्नयन के साथ-साथ राम के रामराज्य, अम्बेडकर के सामाजिक न्याय और गांधी की अहिंसा का जिस प्रकार स्वार्थ सिद्धि के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है, यह भी एक मनोवैज्ञानिक माफियापन ही है, जो वोट हड़पने का भड़काऊ तरीका है।
विधानसभा चुनावों की घोषणा से पहले जब केंद्र ने नोटबंदी का फैसला किया तो माना जा रहा था कि इस बार राजनीतिक दल अपने अनाप-शनाप खर्चों पर अंकुश लगाएंगे, मतदाताओं को रिझाने के लिए नगदी, शराब और दूसरे नशीले पदार्थ नहीं बांटेंगे। मगर इस प्रवृत्ति में बढ़ोत्तरी दर्ज होना चिन्ताजनक होने के साथ-साथ शर्मनाक भी है। राजनीतिक दलों का अपने स्वार्थों के लिये किसी भी हद तक गिर जाना लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अनास्था को ही जाहिर करता है और इस तरह की स्थितियां निर्वाचन आयोग के लिए भी चुनौती है। फिर यह सवाल भी है कि नोटबंदी और राजनीतिक चंदे पर अंकुश लगाने के बावजूद अवैध का प्रवाह रोक पाने में सरकार से कहां चूक हुई? सवाल यह भी है यदि हमारे प्रतिनिधि ईमानदारी से नहीं सोचेंगे और आचरण नहीं करेेंगे तो इस राष्ट्र की आम जनता सही और गलत, नैतिक और अनैतिक के बीच अन्तर कैसे करेंगी? जैसे बुद्धिमानी एक ‘वैल्यू’ है, माफियापन भी एक ‘वैल्यू’ है और मूल्यहीनता के दौर में यह वैल्यू काफी प्रचलित है। आज के माहौल में यह वैल्यू ज्यादा फायदेमन्द है यही कारण है कि इसका प्रचलन दिन-दुना, रात चैगुना बढ़ रहा है।
चुनाव पर खर्च को लेकर निर्वाचन आयोग के स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं, पर शायद ही कोई प्रत्याशी तय सीमा का पालन करता है। इसकी बड़ी वजह यह भी है कि प्रत्याशियों के चुनाव खर्च की सीमा तो तय है, पर पार्टियों का खर्च तय नहीं है, इसलिए प्रत्याशी अपना खर्च पार्टियों के खाते से दिखाकर निर्वाचन आयोग के सवालों से बच निकलते हैं। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के मकसद से राजनीतिक दलों के नगदी चंदे की सीमा तय की गई। यह भी सख्ती की गई कि अगर राजनीतिक दल अपने आय-व्यय का ब्योरा पेश नहीं करेंगे, तो उन्हें आयकर में मिलने वाली छूट से वंचित होना पड़ सकता है। मगर उसका भी कोई असर नजर नहीं आ रहा। इसकी वजह साफ है कि चुनाव के दौरान पार्टियों और प्रत्याशियों को आर्थिक मदद करने वाले अपने काले धन का इस्तेमाल करते हैं। पर सवाल है कि काले धन पर अंकुश लगाने के मकसद से सरकार ने जो सख्त कदम उठाए, उसका असर क्यों नहीं हो पाया। सरकार की नियत पर भी सवाल खड़े होना लाजिमी है।
अपराध परिणाम है, जड़ परिग्रह है, जड़ सत्ता है। और आज की बदली व्यवस्था में काफी अंशों तक जड़ चुनाव है। चुनावों में आश्वासन दिए जाते हैं, दिवास्वप्न दिखाए जाते हैं, किसानों को ऋण मुक्ति का, छात्रों को लेपटाॅप का, व्यापारी को तरह-तरह के करों को हटाने का, पिछड़ी जातियों को नौकरियों में आरक्षण देने का। और ये आश्वासन हमेशा अधूरे रहे। इस वादा-खिलाफी ने भी अपराध वृत्ति को बढ़ावा दिया। जग जाहिर है कि चुनाव के दौरान मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रत्याशी पैसे, शराब, नशीले पदार्थ और साड़ी, कंबल जैसी चीजें बांटते हैं। गरीब और निरपेक्ष मतदाता को पैसे देकर उससे अपने पक्ष में वोट डलवाया जाता है। हालांकि इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए निर्वाचन आयोग के जांच दल निगरानी रखते हैं, पर दूर-दराज के इलाकों में उनके लिए नजर रख पाना आसान काम नहीं है। इस तरह हर चुनाव में वोटों की खरीद-बिक्री से निष्पक्ष और साफ-सुथरे चुनाव का उद्देश्य आधा-अधूरा ही रह जाता है और लोकतंत्र की शुचिता पर प्रश्नचिह्न टंक ही जाता है। पार्टियों और प्रत्याशियों से नियम-कायदों के पालन की अपेक्षा करना बेमानी होता गया है, इसलिए निर्वाचन आयोग से ही उम्मीद की जा सकती है कि इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए वह कोई कठोर कदम उठाए, मजबूत तंत्र बनाये। इसके लिए उसे कठोर दंडात्मक अधिकार मिलने जरूरी हैं। असली बदलाव तो आम आदमी के जागने से आयेगा, यदि वह ठान ले तो एक क्रांति घटित हो सकती है। यदि इस सन्दर्भ में हमारे कदम गलत उठते हैं, हम पैसें, शराब या अन्य प्रलोभन में आ जाते हैं या हम अपने मतदाता होने के दायित्व को ठीक नहीं निभाते हंै तो अच्छे आदमी नेतृत्व से जुड़ नहीं पाते और अयोग्य व्यक्तियों के हाथ में देश का भाग्य सौंप दिया जाता है जिसका परिणाम देश की जनता ज्यादा भुगतती है। क्योंकि इन स्थितियों में हत्या, हत्या के प्रयास, भ्रष्टाचार, घोटाले और तस्करी के आरोपी-अपराधी एवं माफिया तत्व ताकतवर बन कर उभरते हैं और समाज में अराजकता फैलाते हैं।

ललित गर्ग

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