विराग गुप्ता
जम्मू कश्मीर मामले में राज्यपाल के फैसले को अदालत में चुनौती देने के लिए पीडीपी, नेशनल कांफ्रेन्स और कांग्रेस के विधायकों को एकजुट होकर आना पड़ेगा। इन दलों के अंतर्विरोध को देखते हुए ऐसा होना मुश्किल लगता है।
पीडीपी की महबूबा मु ती की तरफ से सोशल मीडिया के जरिए सरकार बनाने के दावों को दरकिनार करते हुए राज्यपाल एस.पी. मलिक ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा को भंग कर दिया। मामला अदालत में जाए तो भी विधानसभा का बहाल होना मुश्किल है। संविधान के अनुसार भारत के सभी राज्यों में विधानसभा का कार्यकाल 5 साल है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्ष होता है।
विधानसभा भंग होने के बाद क्या लोकसभा के साथ ही जम्मू-कश्मीर में चुनाव होंगे? नए चुनावों में अगर किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो खण्डित जनादेश की वजह से क्या विधानसभा फिर भंग होगी? देश के कई राज्यों में इसके पहले भी विधानसभा भंग हुई थीं, लेकिन यह मामला अनूठा है।
सोशल मीडिया से सरकार बनाने का दावा
समाचारों के अनुसार पीडीपी की चीफ महबूबा मु ती ने हालही में राज्यपाल को पत्र लिखा था। इस पत्र के अनुसार उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए राज्यपाल से मिलने का समय मांगा। जम्मू कश्मीर में सर्दियों के समय सरकार और राज्यपाल जम्मू सचिवालय से काम करते हैं, जबकि पूर्व-मुख्यमंत्री महबूबा श्रीनगर में थीं। महबूबा का पत्र राजभवन के फैक्स से नहीं लिए जाने पर नेशनल कांफ्रेन्स के नेता उमर अब्दुल्ला ने भी ट्वीट करके चुटकी ली। इसके बाद महबूबा ने ट्वीट करके कहा कि राजभवन को फैक्स और ई-मेल से पत्र भेजने की कोशिश नाकाम हो गई। इसके बाद राज्यपाल द्वारा संविधान के अनुच्छेद 53 के तहत विधानसभा भंग करने की घोषणा कर दी गई।
राज्यपाल के फैसले को अदालत में चुनौती
पीडीपी और बीजेपी गठबंधन की महबूबा सरकार गिरने के बाद जून, 2018 से राज्य में राज्यपाल शासन लागू है। नियमों के अनुसार 6 महीने की अवधि खत्म होने पर दिसंबर से राष्ट्रपति शासन लगाना होगा। पिछले 5 महीनों से पीडीपी, नेशनल कांफ्रेन्स और कांग्रेस विधानसभा भंग करने की मांग कर रहे हैं और इस फैसले से उनके खेमे में भी खुशी होगी। नेशनल कांफ्रेन्स के सहयोग से सरकार बनाने के प्रयासों से पीडीपी विधायकों में बगावती सुर उभर रहे थे लेकिन विधानसभा भंग होने के बाद इन पार्टियों में दल-बदल की संभावना खत्म हो गई है।
बो मई मामले पर फैसले के बाद राज्यपाल के निर्णय को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। 2005 में बिहार के राज्यपाल बूटासिंह द्वारा विधानसभा भंग करने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया था। जम्मू कश्मीर मामले में राज्यपाल के फैसले को अदालत में चुनौती देने के लिए पीडीपी, नेशनल कांफ्रेन्स और कांग्रेस के विधायकों को एकजुट होकर आना पड़ेगा। इन दलों के अंतर्विरोध को देखते हुए ऐसा होना मुश्किल लगता है। विधानसभा बहाल न होने की स्थिति में, ये सभी दल जल्द और समयबद्ध चुनावों के लिए सुप्रीम कोर्ट से मांग कर सकते हैं।
नए चुनावों के लिए आतंकवाद और पाकिस्तान की चुनौती
विधानसभा भंग करने के पीछे विधायकों की खरीद-फरो त के अलावा, सुरक्षा व्यवस्था की संवेदनशीलता को महत्वपूर्ण कारण बताया गया है। कानून के अनुसार राज्य में 6 महीने के भीतर नए चुनाव कराए जाने चाहिए। सुरक्षा कारणों से राज्यपाल और केंद्र सरकार विधानसभा चुनावों को और ज्यादा टाल सकते हैं, जिसके लिए संसद के दोनों सदनों की मंजूरी भी लेनी होगी। राज्य में हुए हालिया पंचायती चुनावों में कश्मीर घाटी में काफी कम मतदान हुआ। राज्य में लंबे राज्यपाल/राष्ट्रपति शासन की स्थिति में विधानसभा चुनावों में भी पाकिस्तान की शह पर कश्मीर घाटी के अलगाव का खतरा बढ़ सकता है।
आतंक अनुकूल पार्टियों के गठबंधन का आरोप
वर्तमान घटनाक्रम में पीडीपी, कांग्रेस और नेशनल कांफे्रन्स द्वारा संयुक्त सरकार बनाने के प्रयास को बीजेपी ने आतंक अनुकूल पार्टियों का गठबंधन करार दिया है। हकीकत यह है कि कश्मीर घाटी के कट्टरपंथियों के सहयोग के बगैर जम्मू-कश्मीर में किसी भी सरकार का गठन मुश्किल है। आतंकियों से सहानुभूमि रखने वाले सज्जाद लोन ने सरकार बनाने के लिए बीजेपी विधायकों के समर्थन का दावा किया है। पाकिस्तान से ट्रेंड पूर्व-आतंकी मोह मद फारूक खान को पंचायती चुनावों में बीजेपी ने समर्थन दिया था। जम्मू कश्मीर के 2014 के चुनावों में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने पर धुर-विरोधी पीडीपी और बीजेपी ने मिलकर सरकार बनाई थी। इसके पहले नेशनल कांफ्रेन्स भी बीजेपी के साथ एनडीए सरकार का हिस्सा रह चुकी है। तो अब भविष्य में नई सरकार के गठन से राज्य की तस्वीर कैसे बदलेगी, जिसका दावा राज्यपाल की तरफ किया जा रहा है?
धारा 370 और 35ए को चुनौती और नई सरकार का गठन
जम्मू में रोहिंग्या घुसपैठियों के खिलाफ जनाक्रोश है, तो कश्मीर घाटी में भारत विरोधी सुर प्रबल हैं। जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संवैधानिक प्रावधान धारा 370 और अनुच्छेद 35ए को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। सरकार की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों की सुनवाई अप्रैल, 2019 तक टाल दी है। अगले साल देश में लोकसभा के आम चुनाव भी होने हैं। सुप्रीम कोर्ट के सामने नई सरकार का रवैया और दोनों सदनों में बहुमत के आधार पर जम्मू-कश्मीर के संवैधानिक दर्जे पर फैसले के बाद ही कश्मीर में जनतांत्रिक सरकार की बहाली हो सकेगी।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं)
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पाकिस्तान की नजर पंजाब पर?
पिछले कुछ दिनों-ह तों में दुनिया में क्या कुछ हो गया, आपने ध्यान दिया?
सबसे पहले तो अमृतसर में आतंकी हमला हुआ जिसमें 3 मासूम मारे गए और 20 से ज़्यादा घायल हुए।
हमले में जो हैंड ग्रेनेड का इस्तेमाल हुआ वो पाकिस्तान की एक ऑर्डिनरी फैक्टरी में बना है।
इससे पहले इसी 9 नवंबर को रूस में एक अफगान ‘पीस सम्मिट’ हुई जिसे रूस ने आयोजित किया और जिसमें अफगानिस्तान, अफगान तालिबान, भारत, चीन, पाकिस्तान, ईरान और अन्य पांच देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस ‘पीस सम्मिट’ को अमेरिका की सहमति थी और रूस में अमरीकी राजदूत ने इसमें एक ऑब्जर्वर के रूप में शिरक़त की।
सबसे महत्वपूर्ण डेवलेपमेंट ये हुआ कि राज्यपाल महोदय ने जम्मू कश्मीर की विधानसभा भंग कर दी।
अमृतसर आतंकी हमले की प्रारंभिक जांच में इस आशंका की पुष्टि हुई है कि हमलावरों के तार पाकिस्तान की आईएसआई और कश्मीरी मिलिटेंट ग्रुप से जुड़े हुए हैं।
उधर बलोचिस्तान में पाकिस्तान की हालत बहुत नाज़ुक है। हालही में बलोचिस्तान के विभिन्न शहरों में पाकिस्तान विरोधी उग्र प्रदर्शन हुए हैं।
रूस में हुए ‘पीस सम्मिट’ में पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने ये आरोप लगाया है कि अफगानिस्तान साढ़े तीन लाख बलूच विद्रोहियों को हथियार और ट्रेनिंग देकर तैयार कर रहा है। ध्यान रहे कि अफगानिस्तान से लगती पाकिस्तान-बलोचिस्तान सीमा एक खुली सीमा है जिसमें एक ही जाति की जनसं या दोनों तरफ रहती है और खुलेआम आती जाती है। इसी पोरस बॉर्डर का लाभ उठा कर अफगानिस्तान बलूच विद्रोहियों को हथियारों से लैस कर रहा है। ये सब जानते हैं कि अफगानिस्तान के पीछे किसका हाथ है। उधर अफगान तालिबान पुन: सशक्त और संगठित हो रहे हैं। उनके पास न नए रंगरूटों की कमी है और न फंड की। दुनिया भर में पैदा होने वाली कुल अफीम का 90 प्रतिशत उत्पादन अफगानिस्तान में होता है और ये पूरा व्यापार तालिबान के नियंत्रण में है। उधर पाकिस्तान में चलने वाले मदरसों से पढ़े तालिब ही उनके रंगरूट होते हैं। पाकिस्तान नहीं चाहता कि अफगानिस्तान में शांति स्थापित हो क्योंकि वहां शांति होते ही एक्शन बलूचिस्तान में शि ट हो जाएगा। आज पाकिस्तान का रोम रोम कजऱ् में डूबा है और वो दीवालिया होने की कगार पर है। अगर बलोचिस्तान में हालात बिगड़े तो उसे अपनी फौज कश्मीर से हटा कर बलूचिस्तान पर लगानी पड़ेगी। इससे उसकी पकड़ कश्मीर में ढीली पड़ेगी और इतनी औकात उसकी है नहीं कि वो बलूच विद्रोह को डील कर सके। इसलिए उसने फोकस भारत में पंजाब पर शि ट कर दिया है। वो पंजाब में कश्मीर के रास्ते घुसने की फिऱाक़ में है।
कश्मीर में महबूबा, कांग्रेस की मिलीभगत से फिर सरकार बनाने के मंसूबे पाल रही थी जो मोदी जी ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग कर ध्वस्त कर दिया। पंजाब में खालिस्तानी/पाकिस्तानी आतंकवाद से लडऩे के लिए जम्मू कश्मीर पर पकड़ होना बहुत ज़रूरी है।
वैश्विक ाू राजनीति में इस रीजन का महत्व बहुत ज़्यादा बढ़ गया है। इस समय दुनिया के सबसे बड़े दो ‘की प्लेयर’ चीन और भारत इन दोनों के तार बलोचिस्तान से जुड़े हैं। चीन बलोचिस्तान में सीपीईसी बनाकर फंस गया है। इस पूरी भू राजनीतिक उठापटक की थोड़ी बहुत आंच तो पंजाब तक आनी लाज़मी है। मोदी-अजीत डोभाल की बहुत बड़ी भूमिका है इस पूरे भू राजनीतिक युद्ध में।
ऐसे में कांग्रेस यदि अजीत डोभाल पर हमलावर है तो बात समझने की है।
अजित सिंह