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बिहार चुनाव’ मतदाताओं की राजनीतिक समझ का आंकलन करने से चूके राजनीतिक दल

बिहार विधानसभा चुनाव के परिणामों ने एक बार फिर से भाजपानीत एनडीए गठबंधन को सरकार बनाने का मौका दिया है। इस बार की मतगणना के परिणामों ने अंतिम समय तक एनडीए और महागठबंधन दोनों को क्रिकेट के 20-20 मैच की तरह ही आशा निराशा के झूले में झुलाया है।
परिणामों की आधिकारिक घोषणा ने जहाँ सत्ता पक्ष के माथे से पसीना पोंछा वही महागठबंधन की सत्ता पर आसानी से क़ाबिज़ होने की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। इस बार महागठबंधन ने रोजगार, मजदूरों के पलायन आदि को प्रमुख मुद्दा तो बनाया लेकिन वे खुद भी चुनाव प्रचार के दौरान इन समस्यायों के समाधान को लेकर यह स्पष्ट नहीं कर सके कि अगर उनकी खुद की सरकार होती तो कैसे और क्या किया जाता। और इस वजह से भी वे बिहार के मतदाताओं का महागठबंधन की कदाचित-सम्भावित सत्ता में भरोसा जगा पाने में सफल होते नही दिखे हैं। यदि ऐसा नही होता तो जहाँ महागठबंधन को पहले चरण मे 74 में से 47 सीटें मिली, वहीं दूसरे और तीसरे चरण में वह क्रमशः 42 और 21 सीटों तक ही सिमट कर नहीं रह जाता। राजद, कांग्रेस और वामदल ने एकजुट होकर नीतीश कुमार को थका हुआ चुका हुआ बताते हुये तेजस्वी को बिहार के भविष्य के रुप में स्थापित करने की जो असफल कोशिश की उसमे बिहार की जनता का यथेष्ट समर्थन मिलता हुआ नही दिखा है। चुनाव प्रचार के दौरान महागठबंधन के नेताओं ने तेजस्वी की जो चमत्कारिक छवि बनायी उससे भीड़ तो इक्ठ्ठी हुई, मगर ऐसी अनेक सीटे है जिनमे उनके प्रत्याशी महज 18 वोट (सीतामढी से विजयी हुआ आरजेडी  का प्रत्याशी) से लेकर कुछ सौ वोटों की बढ़त पर नाम मात्र के लिए ही जीत पाये हैं।
चुनाव परिणामों की घोषणा हो जाने के बाद पटना मे सरकार के गठन को लेकर सियासी हलचलें बढ़ी हुई हैं। सोमवार को नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं। महागठबंधन के सभी दल इस बात की अंतिम  कोशिश मे लगे हुये है कि किसी तरह जोड-तोड़ करके वे सरकार बनाने लायक विधायक अपने खेमे मे ले आयें। वैसे तो राजनीति मे कब कौन सा चमत्कार हो जाये कहा नही जा सकता है मगर वर्तमान हालातों को देखकर नही लगता कि हम (जीतन मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा), वीआईपी (विकासशील इंसान पार्टी) और जदयू, एनडीए जैसे मजबूत विकल्प को छोड़कर अस्थाई, अस्थिर, कम भरोसे के महागठबंधन का दामन थामेंगे। वैसे राज्य मे चल रही इस हलचल की सुगबुगाहट तो तीसरे चरण के मतदान की समाप्ति के दिन, देर रात्रि से ही दिखाई देने लगी थी जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अन्तरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सुरजेवाला के नेतृत्व मे राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़ के दिग्गज नेताओं को पटना पहुँचने का हुकुम सुनाया था। राज्य में महागठबंधन द्वारा सरकार बनाने की इस कथित कोशिश के पीछे यदि कांग्रेस अपने विधायकों को सरकारी बना पाने की इस मृगमरीचिका के सहारे बाँधे रखने की कोशिश कर रही हो तो कोई अचरज नहीं होना चाहिये क्योकि वो किसी भी कीमत पर एक बार फिर से मध्य प्रदेश और राजस्थान की विधायकों के पाला बदल लेने की घटनाएँ बिहार मे दोहराये जाने की जोखिम नही उठाना चाहेगी। इस बात से शायद ही कोई असहमत होगा कि विगत तीन दशकों से बिहार मे खोई हुई राजनीतिक जमीन को वापिस पाने के लिये कांग्रेस ने 2015 के विधान सभा के चुनावों में, जहाँ नीतीश और लालू की बैसाखी के सहारे 27 सीटें जीती थी वही इस बार भी उसने अपनी चुनावी नाव तेस्जस्वी के सहारे किनारे लगाने की कोशिश की है। लेकिन पिछली बार के मुकाबले में उसे इस बार आठ सीटों का नुकसान ही हुआ है। वहीं उसके जीते हुये प्रत्याशियों मे से 9 प्रत्याशी ऐसे भी हैं जिनकी जीत का अंतर दहाई की संख्या से लेकर पाँच हजार मतो से अधिक का नहीं हैं। यदि इस बार भी कांग्रेस को नीतीश को लेकर बनी हुई नाराजगी का सहारा न मिला होता तो जो तस्वीर अभी उसकी महागठबंधन में दिख रही हैं वो भी न दिखाई दे रही होती।
बिहार के सुशासन बाबू भी इस बात को बखूबी महसूस करते दिख रहे हैं कि उनका विगत का शासनकाल राज्य में वो छाप नही छोड़ पाया जो उनको एक बार फिर से बीजेपी के साथ आँख से आँख मिलाकर कर अपनी शर्तों पर निर्णय ले पाने का अवसर दे सके। चुनाव दर चुनाव राज्य मे भाजपा की होती मजबूत स्थिति के बाद भी प्रधानमंत्री ने बिहार के अगले मुख्यमंत्री के लिये ‘बड़े भाई’ नीतीश के नाम पर मौहर लगा कर छोटे भाई के ‘बड़े दिल’ का परिचय दिया है और वर्तमान के गठबंधन की अविश्वसनीय राजनीति के माहौल में लगातार चरित्रहीन होती जा रही राजनीतिक शैली के विपरीत ईमानदार और वादापरस्त राजनीतिक शैली में एक नयी राजनीतिक पारी खेलने की शुरुआत की है। जबकि इसके विपरीत उनके राजनीतिक साझीदार और ‘बड़े भाई’ नीतीश कुमार पर विगत विधान सभा चुनावों से सत्तालोलुप होने का जो तगमा लगा है उसके चलते उनकी राजनीतिक लोकप्रियता में न केवल कमी आई हैं बल्कि पिछली बार के मुकाबले मे उनकी पार्टी को सत्ताइस सीटों का नुकसान भी उठाना पड़ा है।
ईमानदारी से देखा जाये तो इस बार के चुनाव परिणाम इस बात की तरफ बिना किसी लागलपेट के इशारा कर रहें हैं कि आज बिहार का मतदाता राजनीतिक दलों की मंशा, नीयत और नीति को लेकर संवेदनशील होता दिख रहा है। वह इस बात से असहमत सा दिखता है कि उसके द्वारा चुना गया जनप्रतिनिधि उसके प्रति जवाबदेह न हो। आज बिहार का मतदाता, अपने मतदाता के इस अधिकार बोध के प्रति सजग होना चाहता है कि उसके दीर्घकालिक हितों की रक्षा कहाँ और किससे हो सकती हैं। शायद मतदाता की इसी राजनीतिक सतर्कता के चलते 243 चुने गये विधायकों में से 52 ऐसे भी विधायक हैं जो 12 वोटों से लेकर पाँच हज़ार तक के मतो से बड़ी मुश्किल से जीत हासिल कर पायें हैं। यह आंकड़े इस बात की ओर भी संकेत कर रहे हैं कि उसे न केवल अपना खुद का भविष्य सुरक्षित चाहिये बल्कि वह राज्य का विकास सही मायनों मे होता हुआ देखना चाहता है। अब वह व्यक्तिगत हितों के साथ-साथ राज्य-राष्ट्र के हितों में भी रुचि लेना अनिवार्य समझने लगा है। यदि उसे लालू के बिहार के जंगलराज की याद हैं तो वह नीतीश के शराब की तस्करी की मजबूत होती जमीन को भी लेकर उतना ही चिंतित हैं। मिथलांचल से लेकर कोसी और सीमांचल तक जिस तरह से इस बार शेष बिहार के मुकाबले मे अधिक मतदान हुआ हैं वह आने वाले वर्षों मे राज्य की राजनीति को एक नयी दिशा देता हुआ दिखाई दे सकता हैं। पिछ्ली बार असदुद्दीन ओवेसी को एक भी सीट नही मिली थी मगर इस बार ओवेसी की पार्टी एआईएमआईएम ने 5 सीटे जीत कर राजनीतिक समीक्षकों को सोचने के लिये मजबूर कर दिया हैं कि कहीं मुसलमानों का जदयू, आरजेडी और कांग्रेस से मोह-भंग तो नही हो रहा है।

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