Shadow

भक्त प्रह्लाद और उनका चुनौतीपूर्ण जीवन

भक्त प्रह्लाद विष्णु के सच्चे भक्त थे। वे निष्काम भक्त कहे जाते हैं क्योंकि उन्होंने हमेशा अपने स्वयं के सुख के लिए कभी नहीं सोचा तथा सर्वदा दूसरों के सुख के लिए ही विष्णु भगवान का स्मरण करते रहे। इनके पिता का नाम हिरण्यकश्येपु था। वह एक दुर्जेय राक्षस था। इसके पिता कश्यप तथा माता अदिति नाम से प्रसिद्ध थे। हिरण्यकश्यपु का एक भाई था जिसका नाम हिरण्याक्ष था। हिरण्यकश्यपु को प्रह्लाद के पूर्व भी सन्ताने उत्पन्न हुई थीं जिनमें तीन पुत्र तथा एक पुत्री थी। इनके नाम थे- संल्हाद, अनुल्हाद, ल्हाद तथा चौथा पुत्र प्रह्लाद था। एक पुत्री थी जिसका नाम सिंहिका था। प्रह्लाद की माता (हिरण्यकश्यपु की पत्नी) का नाम कयाधु था। एक बार भगवान विष्णु से अपने भाई हिरण्याक्ष के वध का बदला लेने के लिए कठोर तपस्या कर रहा था। यह देख कर देवर्षि नारद को अत्यधिक चिन्ता हुई। इन्द्र कयाधु को हरण करके ले जा रहा था। मार्ग में उसे नारदजी मिले। उन्होंने इन्द्र को कहा था कि कयाधु गर्भवती है। इसके गर्भ में असाधारण व्यक्तित्व का शिशु पनप रहा है। तब इन्द्र ने नारदजी से कहा कि आप इसे अपने आश्रम में ले जाइए। आश्रम में कयाधु धार्मिक वातावरण में रहती थी। भक्तिमय वातावरण का प्रभाव गर्भस्थ शिशु प्रह्लाद पर भी पड़ा। वहाँ उसने भगवान विष्णु की कथाएँ श्रवण की जिसका प्रभाव उसके सम्पूर्ण जीवन पर परिलक्षित होता है। त्रिलोकीनाथ श्री विष्णु ही उनको राक्षसकुल में जन्म लेने के बाद भी देवत्व की ओर शनै:शनै: अग्रसर करते गए और सम्पूर्ण संसार ही उनके लिए विष्णुमय हो गया-
स वर्द्धमानो विरराज बालै:
सह त्रयीनाथपदेषु भक्त्या।
बालोऽल्पदेहो महतीं महात्मा
विस्तारयन् भाति स विष्णु भक्तिम्।।
श्रीनरसिंह पुराण अध्याय ४१/३२
बालक प्रह्लाद का विद्यारम्भ किया। राजा हिरण्यकश्यप ने उसे देखा। वह बड़ी-बड़ी सुन्दर आँखों वाला बालक हाथ में पट्टी (स्लेट) लिए हुए आ रहा था। उस पर भगवान श्रीकृष्ण का चक्र तथा नाम लिखा था। बालक प्रह्लाद ने श्रीकृष्ण की स्तुति सुनाई। राक्षसराज हिरण्यकश्यपु ने कहा कि ये सब तो मेरे शत्रु हैं-
गृहीत्वा तु करे पुत्रं पट्टिका या सुशोभना।
मूर्ध्नि चक्रांकिता पट्टी कृष्णनामांकित्ताऽऽदरात्।।
श्रीनरसिंह पुराण अध्याय ४१/३६
प्रह्लाद ने भी अपने पिताजी से कहा आप भी सभी पापों का नाश करने वाले श्रीविष्णु भगवान की शरण में जाने का प्रयास करें-
गुरवेऽपि ब्रवीम्येतद्यतो हितकरं परम्।
शरणं व्रज सर्वेशं सर्वपापक्षयंकरम्।।
श्रीनरसिंह पुराण अध्याय ४१/४६
यह सुनकर असुरपति हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद के गुरु को बुलाया और उनसे बड़े ही अपमानजनक शब्दों में वार्तालाप की। सम्राट का पुत्र होकर मेरा बालक मेरे ही शत्रु की प्रशंसा करता रहता है। यह कृत्य अनुचित है, दण्डनीय है। प्रह्लाद जब किशोरावस्था के सोपान पर पहुँचा तो पिताजी हिरण्यकश्यपु ने उसके सामने राज्य शासन का भार सौंपने का प्रस्ताव रखा। भक्त प्रह्लाद ने विष्णु भगवान का गुणगान करते हुए वह प्रस्ताव भी अस्वीकार कर दिया। हिरण्यकश्यप ने क्रोधित होकर आदेश दिया कि इस मूर्ख पर अस्त्र-शस्त्र से वार किए जाए परन्तु महान आश्चर्य यह हुआ कि वे अस्त्र-शस्त्र विपरीत दिशा में जाकर मारने वाले दैत्यों का ही संहार करने लगे। यह देखकर हिरण्यकश्यपु ने विषैले सर्पों को कहा कि वे प्रह्लाद को डस कर मार डालें। इस प्रकार उसको मारने के लिए अनेक प्रयत्न किए गए परन्तु सभी प्रयास निष्फल रहे। दैत्यराज हिरण्यकश्यपु के पुरोहितों ने कहा कि आप अपने क्रोध पर अपना नियन्त्रण रखें क्योंकि भले ही पुत्र कुपुत्र हो परन्तु माता-पिता कभी भी कुमाता-कुपिता नहीं हो सकते-
तदलं देव रोषेण दयां कर्तुं त्वमर्हसि।
पुत्र कुपुत्रतामेति न मातापितरौ कदा।।
श्रीनरसिंह पुराण अध्याय ४२/३८
हिरण्यकश्यपु को तो श्री विष्णु भगवान का जाप पसन्द था ही नहीं। वह उनका कट्टर विरोधी था। उसने आदेश दिया कि प्रह्लाद को जहरीले विशाल सर्पों से बँधवाकर समुद्र के खारे पानी में फिंकवा दिया जाए और उस पर पर्वत की चट्टानें रख दी जाएं-
बबन्धुस्तं महात्मानं फल्गुभि: सर्पंरज्जुभि:।
गरुडध्वजभक्तं तं बद्ध्वाहिभिरबुद्धय:।।
श्री विष्णुपुराण अध्याय ४३/३२
भक्त प्रह्लाद को ऊँचे पर्वतों के शिखर से नीचे फेंका गया। जंगल में वृक्ष से बाँधकर उसके वध के लिए जंगली पशुओं को छोड़ा गया। परन्तु हर समय वह सभी भीषण संकटों से बचकर सुरक्षित वापस आ गया कारण कि वह श्री विष्णु का परम भक्त था। हर संकट की घड़ी में भगवान विष्णु उसकी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करते थे। अंत में हिरण्यकश्यपु ने उसे आग में जलाने की युक्ति सोची। उसकी एक बहिन थी जो प्रह्लाद की बुआ थी उसका नाम होलिका था। वह बालक प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ गई। प्रह्लाद जीवित बच गए और होलिका जल गई। यहाँ भी श्रीविष्णु ने अपने भक्त की सहायता की। इस घटना की स्मृति में ही प्रतिवर्ष हमारे यहाँ होलिका दहन किया जाता है।
तपस्या करके ब्रह्माजी से हिरण्यकश्यप ने वर माँगा था कि न मुझे मनुष्य मार सके न जानवर ही मार सके। न मेरी मृत्यु दिन में हो न मैं रात्रि में ही मरूँ। न कोई मुझे घर में मार सके न घर के बाहर ही मार सके। मुझे मारने में न अस्त्र का प्रयोग हो न ही किसी शस्त्र का प्रयोग किया जाए। इस वर के प्रभाव से उसे अपनी मृत्यु का भय नहीं था। वह अत्यधिक निरंकुश हो गया था। भक्त प्रह्लाद पर उसके पाशविक षड्यंत्र की निरन्तर वृद्धि होती आ रही थी। श्री विष्णु की निरन्तर भक्ति के कारण भक्त प्रह्लाद सुरक्षित बच निकलते थे। एक दिन दैत्यराज हिरण्यकश्यपु अत्यधिक क्रोधित हुआ। उसने प्रह्लाद से पूछा कि क्या तेरे भगवान इस स्तम्भ में भी हैं। प्रह्लाद ने स्वीकार किया कि वे सर्वत्र व्याप्त हैं। इस स्तम्भ में भी उनका निवास है। यह सुनते ही राक्षसराज ने क्रोध में आग बबूला होकर स्तम्भ पर तलवार से वार किया। स्तम्भ में दरार पड़ गई और प्रह्लाद को भगवान के नृसिंह रूप के दर्शन हो गए। नृसिंह दैत्यों से घिरे हुए हैं और उनका वध करते आ रहे हैं। जब सूर्यास्त का समय हुआ तब वे असुर हिरण्यकशिपु को घसीट कर द्वार तक ले गए। उसे अपनी जंघा पर लिटा कर तीक्ष्ण नाखूनों से उसके विशाल वक्षस्थल को विदीर्ण कर दिया-
संध्याकाले गृहद्वारि स्थित्वारौ स्थाप्य तं रिपुम्।
वज्रतुल्यमहोरस्कं हिरण्यकशिपुं रुषा।
नखै: किसलयमिव दारयत्याह सोऽसुर:।।
श्रीनरसिंहपुराण अध्याय ४४/२९
इस प्रकार राक्षसराज हिरण्यकश्यपु का अन्त उसकी इच्छानुसार जो वरदान उसने ब्रह्माजी से माँगा था उसी के अनुरूप न घर में न बाहर, न दिन में न रात में, न शस्त्र से न अस्त्र से, न मनुष्य से न पशु से हो गया। इसके पश्चात् ब्रह्माजी ने भक्त प्रह्लाद को राजा के पद पर अभिषिक्त किया-
ब्रह्मा च दैत्यराजानं प्रह्लादमभिषेचयेत्।
धर्मे रति: समस्तानां जनानामभवत्तदा।।
श्रीनरसिंहपुराण अध्याय ४४/३७
इस वध के पश्चात बुराई का अन्त हो गया। प्रह्लाद जी ने राज पद प्राप्त किया। उनके गृहस्थ जीवन का प्रारम्भ हुआ। उनका विवाह धृति नामक कन्या से हुआ। उनके पुत्र का नाम विरोचन था। विरोचन के पुत्र राजा बलि थे। बलि के पुत्र बाणासुर हुए। उनकी बेटी उषा का विवाह भगवान श्री कृष्ण के बेटे के साथ हुआ।
इस प्रकार राक्षस कुल में जन्म लेने के उपरान्त भी प्रह्लाद राक्षसी प्रवृत्ति से विरत रहे। उनकी सद्वृत्ति हमेशा भगवान विष्णु में रही। इसका प्रमुख कारण नारद मुनि का आश्रम जहाँ उन्होंने गर्भावस्था में ही ऋषि मुनियों की भक्ति और सत्संग सुने। बाल्यावस्था से ही उन्हें सत्संगति प्राप्त होती रही जिसके कारण वे जीवन की हर कठिनाइयों व चुनौतियों को जीतते हुए आगे बढ़ते रहे।

प्रेषक
डॉ. शारदा मेहता

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *