चुनाव आयोग द्वारा हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद टिकिटार्थियों में हलचल तेज हो ही गई है, साथ ही नेताओं और राजनीतिक विश्लेषकों ने भी अनुमान पेश करने शुरू कर दिए हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की मानें तो वो दोनों राज्यों में स्पष्ट बहुमत हासिल करेंगे, महाराष्ट्र में तीन चौथाई यानी 288 में से 216 सीटें और हरियाणा में 90 में से 75 सीटें। वहीं कांग्रेस भी जीत के दावे कर रही है। वो भारतीय जनता पार्टी को राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक विधानसभा चुनावों की याद दिला रही है जब उसने केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नेशनल डेमाक्रेटिक एलायंस (एनडीए) की सरकार होते हुए भी चारों राज्यों में सरकार बनाई थी।
राजनीति में दावे करने और झूठे-सच्चे बयान देने का हक नेताओं को है। अफसोस कोई उनसे पलट कर सवाल भी नहीं करता कि आखिर उनके दावों-बयानों के पीछे क्या तर्क या सबूत हैं? लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर उंगली उठाते रहे, उन्हें भ्रष्टाचारी साबित करने के लिए अदालतों का बेजा इस्तेमाल करते रहे, लेकिन शायद ही किसी पत्रकार ने राहुल गांधी से पूछा कि आखिर आपके पास क्या सबूत हैं? बेहतर होता कि राहुल गांधी आरोपों के साथ ठोस सबूत भी पेश करते। बहरहाल नेताओं के आरोपों की जांच भले ही मुश्किल हो, लेकिन उनकी राजनीतिक हैसियत का अंदाज जमीनी स्तर पर उनकी पार्टी के हालात देख कर अवश्य लगाया जा सकता है।
आइए जरा विभिन्न दलों की नब्ज टटोल कर देखें कि उनके दावे हवा-हवाई हैं या उनमें असल में कुछ दम भी है? शुरूआत करते हैं बड़े राज्य महाराष्ट्र से। पहले बात करते हैं विपक्षी दल कांग्रेस की। जाहिर है प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बालासाहेब थोराट जीत के दावे कर रहे हैं, उन्हें नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के साथ अपने गठबंधन पर पूरा भरोसा है। दोनों दलों ने 16 सितंबर को सीट शेयरिंग फार्मूले का ऐलान किया था जिसके मुताबिक दोनों 125-125 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे और बाकी की सीटें गठबंधन के अन्य सदस्यों को दी जाएंगी। पिछली बार कांग्रेस और एनसीपी को 42 और 41 सीटें मिली थीं। भाजपा ने 122 पर जीत हासिल की थी फिर शिव सेना के सहयोग से सरकार बनाई थी जिसने 63 सीटें हासिल की थीं। तब एनसीपी भी भाजपा को बाहर से समर्थन देने के लिए तैयार हो गई थी। ध्यान रहे पिछली बार चारों दलों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था।
लेकिन इस बार हालात बदल चुके हैं। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस शिव सेना के नरम-गरम रवैये के बावजूद उसके साथ पांच साल सरकार चला चुके हैं और पहले से कहीं ज्यादा मजबूत स्थिति में हैं। इन पांच साल में फडनवीस ने बाहरी चुनौतियों से ही नहीं, अंदरूनी चुनौतियों से भी बखूबी निपटा है। स्वर्गीय प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे की तरह वो भाजपा के संकटमोचक के तौर पर उभरे हैं। उन्होंने पार्टी को नया विस्तार और ऊंचाई दी है। इसका एक उदाहरण मुंबई क्षेत्र है जहां पहले शिव सेना का डंका बजता था। उन्होंने अपनी दक्ष राजनीति से वहां भाजपा के लिए जगह बनाई है। ग्रामीण क्षेत्रों में पहले भाजपा कमजोर समझी जाती थी, वहां भी उन्होंने कांग्रेस और एनसीपी के वरिष्ठ नेताओं को तोड़ कर पार्टी की पहुंच को व्यापक किया है। उन्होंने कांग्रेस के तो पर कतरे ही हंै, उससे भी ज्यादा नुकसान मराठा स्ट्रॉंगमैन शरद पवार को पहुंचाया है जो पहले ही अपनी खराब सेहत तथा बेटी सुप्रिया सुले और भतीजे अजित पवार की वर्चस्व की लड़ाई से जूझ रहे हैं। उन्होंने एनसीपी में बड़ी सेंध लगाई और उसके मराठा आधार को तहस-नहस कर दिया। उन्हें सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब छत्रपति शिवाजी के वंशज और सतारा से एनसीपी सांसद उदयनराज भोसले को स्वयं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने दिल्ली में पार्टी में शामिल किया। भोसले से पहले उनके चचेरे भाई शिवेंद्र सिंह भी भाजपा का हिस्सा बन चुके थे। यही नहीं शरद पवार के दो रिश्तेदार पदमसिंह पाटिल (अजीत पवार की बीवी के भाई) और उनके पुत्र राणाजगजीतसिंह पाटिल भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इनके अतिरिक्त एनसीपी की महिला शाखा की अध्यक्ष चित्रा और वरिष्ठ नेता धननंजय महादिक सहित और भी कई नेता भाजपा की सदस्यता ले चुके हैं।
महाराष्ट्र में मराठा जनसंख्या करीब 30 प्रतिशत है। इनकी सबसे बड़ी मांग आरक्षण की थी। फडनवीस ने उसे भी पूरा किया। इस तरह फडनवीस ने जातीय समीकरणों को भी साधने की पूरी कोशिश की। वो स्वयं ब्राह्मण हैं। सारे जातीय समीकरणों को दरकिनार करते हुए प्रधानमंत्री ने स्वयं उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए चुना था। वो प्रधानमंत्री के विश्वास पर खरे भी उतरे। अपनी विनम्र कार्यशैली और राजनीतिक दूरदृष्टि से उन्होंने लगभग सभी जातीय समूहों को अपने साथ लाने का प्रयास किया है। लेकिन उनका सिर्फ यही प्लस पॉंइंट नहीं है, उन्होंने पांच साल जम कर और लग कर ईमानदारी से काम किया। केंद्रीय योजनाओं के साथ ही राज्य सरकार की योजनाओं को भी लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। उन्होंने समय से पहले ही अपनी तैयारी भी पूरी कर ली थी। जब विपक्षी दल सिर फुटव्वल कर रहे थे वो महाजनादेश यात्रा निकाल रहे थे और गांव-गांव, शहर-शहर लोगों से संवाद कर रहे थे।
एनसीपी की तरह ही कांग्रेस के भी अनेक नेता भाजपा में आ चुके हैं। इनमें कांग्रेस के पूर्व नेता विपक्षी दल राधाकृष्ण विखे पाटिल, उनके पुत्र सुजय विखे पाटिल, पूर्व मंत्री हर्षवर्धन पाटिल, गणेश नायक उनके बेटे संदीप नायक भी हैं। नायक परिवार के साथ तो नवीं मुंबई नगर निगम के सभी कांग्रेसी सदस्य भी भाजपा में शामिल हो गए और निगम पर भाजपा का कब्जा हो गया। कुल मिलाकर विधानसभा चुनावों से पूर्व ही अच्छी खासी तादाद में एनसीपी और कांग्रेस के नेता उनका दामन छोड़ चुके हैं। एनसीपी और कांग्रेस के नेताओं की भगदड़ साफतौर से इशारा कर रही है कि इन पार्टियों की नैय्या डांवाडोल है। जहाज डूबने वाला है और चूहे इसे छोड़ कर भाग रहे हैं।
फडनवीस के शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से अच्छे संबंध रहे हैं, लेकिन उनके नेतृत्व में भाजपा ने शिवसेना के मजबूत गढ़ों में भी सेंध लगाई। इसका ही नतीजा है कि कभी ‘बड़ा भाई’ होने का दंभ भरने वाली शिव सेना आज सिर झुका कर भाजपा की बात मानने के लिए तैयार है। ठाकरे को भाजपा के राष्ट्रीय दल होने का भी पूरा अहसास है। उन्हें पता है कि यदि वो पिछली बार की तरह इस बार भी अलग चुनाव लड़े तो उनकी हालत और खराब हो सकती है। वैसे उनके सामने लोकसभा चुनावों का उदाहरण भी है जहां उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 18 सीटें हासिल कीं जबकि भाजपा को 23 सीटें मिलीं।
भीमा-कोरेगांव कांड के बाद महाराष्ट्र में बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर की वंचित बहुजन अगाड़ी काफी चर्चा में आई। अंबेडकर ने खुल कर नक्सलियों का समर्थन किया। उनकी हसरतें इतनी बढ़ गईं कि उन्होंने लोकसभा चुनावों में कांग्रेस से 50 प्रतिशत सीटों की मांग कर डाली। जब कांग्रेस ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया तो उन्होंने असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस ए इŸोहाद उल मुसलिमीन (एमआईएम) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। उन्हें खुद तो कोई सीट नहीं मिली, लेकिन उनकी वजह से कांग्रेस को पांच सीटों पर करारा झटका लगा। अंबेडकर और ओवैसी विधानसभा चुनाव भी मिलकर लडऩा चाहते थे, लेकिन सीटों पर समझौता नहीं हो सका। इस पर कांग्रेस और एनसीपी ने राहत की सांस ली है क्योंकि ये दोनों पार्टियां भी दलितों और मुसलमानों को लुभाने की कोशिश करती हैं। अंबेडकर और ओवैसी के प्रयोग ने एक बात तो साफ कर दी है कि नक्सली, मुसलमानों और दलितों का जो गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उसका कोई भविष्य नहीं है। ये बात अलग है कि कांग्रेसियों और वामपंथियों ने अब भी इससे उम्मीदें लगा रखी हैं।
तो महाराष्ट्र में एक तरफ भाजपा और शिवसेना का एनडीए गठबंधन है तो दूसरी ओर कांग्रेस और एनसीपी का यूपीए गठबंधन। देखा जाए तो ये चुनाव देवेंद्र फडनवीस बनाम अन्य पार्टियों का है। अब तक नेताओं, कार्यकर्ताओं से जो रिपोर्ट मिल रहीं हैं, उनमें साफ तौर से एनडीए आगे है, फडनवीस का फिर से मुख्यमंत्री बनना तय है।
अब बात हरियाणा की। महाराष्ट्र की तरह ही हरियाणा में भाजपा विपक्षी दलों से कोसों आगे है। हरियाणा की राजनीति में कभी जाटों का दबदबा था। देवी लाल और बंसी लाल जैसे जाट नेताओं ने वहां लंबे समय तक राज किया। उनके साथ बिश्नोई नेता भजन लाल का भी जलवा रहा। पिछले चुनावों में जब भाजपा को बहुमत मिला तो मोदी ने जाट नेताओं को छोड़ अपने पुराने साथी और राष्ट्रीय सेवक संघ के प्रचारक रह चुके पंजाबी मनोहरलाल खट्टर को राज्य की कमान सौंपी। खट्टर के मुख्यमंत्री बनने के बाद तीन बार व्यापक हिंसा हुई, जाट आरक्षण आंदोलन में, राम रहीम मामले में अदालत का फैसला आने के बाद और सतलोक आश्रम में जब पुलिस ने बाबा रामपाल को गिरफ्तार करने के लिए बल प्रयोग किया। इन घटनाओं के बाद खट्टर की काबिलियत पर सवाल उठने शुरू हो गए। कुछ विश्लेषकों ने तो उनकी उलटी गिनती भी शुरू कर दी। लेकिन वो टिक गए। उन्होंने प्रशासन, जमीन आवंटन और सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार खत्म करने और केंद्र और राज्य की कल्याणकारी योजनाओं को आमजन तक पहुंचाने में बहुत मेहनत की जिसका उन्हें अच्छा परिणाम भी मिला। शहरी और ग्रामीण स्थानीय निकायों में भाजपा का तेजी से प्रसार हुआ।
फडनवीस की तरह ही खट्टर को भी विभाजित विपक्ष का लाभ मिला। लोकसभा चुनावों में राज्य की दसों सीटों पर विजय पताका लहराने के बाद उन्हें नया आत्मविश्वास भी मिला। उधर लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस में कोहराम शुरू हो गया। राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा ने आलाकमान को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और राहुल गांधी के करीबी अशोक तंवर को हटाने का नोटिस देने के साथ ही बगावत का बिगुल बजा दिया। लंबे अर्से तक ये मामला अटका रहा। सोनिया गांधी ने अध्यक्ष पद संभालने के बाद अपनी करीबी दलित नेता कुमारी सैलजा को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया और हुड्डा को कांग्रेस विधायक दल का नेता और चुनाव प्रबंधन समिति का चेयरमेन।
सोनिया ने फैसला लेते-लेते काफी देर कर दी। भीतरी कलह और अनिश्चितता के कारण पार्टी में बिखराव शुरू हो गया। ऐसे में अनेक नेताओं ने भाजपा का दामन थामना बेहतर समझा। भूपेंदर सिंह हुड्डा और उनके पुत्र दीपेंदर सिंह हुड्डा दोनों लोकसभा चुनाव हार चुके हैं। भूपेंदर सिंह हुड्डा कहने को तो पार्टी के पोस्टर बॉय हैं, लेकिन भ्रष्टाचार और जमीन घोटालों के आरोपी हुड्डा के सामने अब अस्तित्व बचाने की लड़ाई है। हरियाणा बचाने से पहले उनके लिए महत्वपूर्ण है अपने गढ़ रोहतक, सोनीपत और झझर में जाट मतदाताओं का विश्वास जीतना क्योंकि यहीं से उन्हें आगे बढऩे की शक्ति मिलती है। लोकसभा चुनाव हार चुकी कुमारी सैलजा दलित मतदाताओं को कितना लुभा पाएंगी, ये देखना दिलचस्प होगा। वैसे भी अध्यक्ष पद पर उनका नामांकन उनकी योग्यता नहीं, सोनिया गांधी से नजदीकी के कारण हुआ है। बगावती हुड्डा के तेवरों के बीच वो राज्य में सोनिया के हितों की रखवाली हैं।
उधर कद्दावर जाट नेता और इंडियन नेशनल लोक दल (आईएनएलडी) के संस्थापक स्वर्गीय देवी लाल के बेटे ओमप्रकाश चौटाला और उनके बड़े बेटे अजय चौटाला के शिक्षक भर्ती घोटाले में 2013 में दस साल के लिए जेल जाने के बाद चौटाला परिवार में भी मनमुटाव शुरू हो गया। इसके साथ ही आईएनएलडी में भी बिखराव शुरू हो गया। पिछले साल ओमप्रकाश चौटाला के छोटे पुत्र अभय चौटाला और उनके बेटों दुष्यंत और दिग्विजय चौटाला ने जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) बनाई। जेजेपी ने लोकसभा चुनाव के लिए आम आदमी पार्टी और फिर विधानसभा चुनाव के लिए बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन किया पर दोनों टिक नहीं सके। आज चौटाला परिवार पूरी तरह बिखर चुका है और उसके साथ ही जाट वोट बैंक का मिथक भी। देवी लाल के बड़े पुत्र ओम प्रकाश चौटाला आईएनएलडी के प्रमुख हैं। उनके छोटे पुत्र रंजीत सिंह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं। ओमप्रकाश चौटाला के छोटे बेटे अजय चौटाला ने अपने पुत्रों दुष्यंत और दिग्विजय के साथ जेजेपी बनाई। देवी लाल के सबसे छोटे बेटे जगदीश चौटाला के बेटे आदित्य देवी लाल भाजपा नेता हैं।
बंटे हुए जाट वोट बैंक के बीच खट्टर ने न केवल गैर-जाट वोटरों को साथ लाने की कोशिश की, बल्कि अनेक असंतुष्ट जाट नेताओं को भी अपने साथ जोड़ा। उन्होंने सामुदायिक राजनीति की जगह समावेशी राजनीति का संदेश दिया और ‘एक हरियाणा, एक हरियाणवी’ का नारा दिया। हरियाणा के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में खट्टर का फिर से मुख्यमंत्री बनना आसान लग रहा है, लेकिन क्या वो अमित शाह द्वारा निर्धारित 90 में से 75 सीटें जीतने का लक्ष्य हासिल कर पाएंगे, ये देखना दिलचस्प होगा।
बहरहाल, चाहे महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव हों या फिर उनके साथ होने वाले समस्तीपुर लोकसभा सीट और 64 अन्य विधानसभा सीटों के उपचुनाव, भाजपा को केंद्र की योजनाओं और अनुच्छेद 370 हटाने और तीन तलाक के खिलाफ कानून लाने जैसे निर्णायक फैसलों का लाभ भी अवश्य मिलेगा। दोबारा अध्यक्ष पद संभालने के बाद सोनिया की यह पहली परीक्षा होगी। 2004 में सोनिया, अटलबिहारी वाजपेयी को हटाने में कामयाब रहीं थीं, लेकिन अब 2019 है और मुकाबला मोदी और शाह से है। यही नहीं, उनके पास देवेंद्र फडनवीस या मनोहर लाल खट्टर की टक्कर का कोई नेता भी नहीं है, अगर कोई है भी तो वो भ्रष्टाचार के आरोपों में गले तक फंसा है। फिर, इस दौरान कांग्रेस और वामपंथियों द्वारा प्रचलित राजनीतिक पारिभाषिक शब्दावली और लोगों की सोच और मिजाज भी बदले हंै। अब न तो लोग देशद्रोह को ‘उदारवाद’ मानने के लिए तैयार हैं और न ही इस्लामिक कट्टरता को ‘धर्मनिरपेक्षता’। चुनाव 21 अक्तूबर को होंगे और नतीजे आएंगे 24 को। अगर कोई चमत्कार नहीं हुआ तो परिणाम भाजपा के पक्ष में ही आएंगे।
रामहित नंदन