लोकतंत्र के जिस मॉडल को हमने स्वीकार किया है, वह पश्चिम से आयातित है। ब्रिटेन या अमेरिका जैसे देशों से हमने राजनीतिक व्यवस्था को संभालने के लिए उनके लोकतंत्र को तो अपना लिया, लेकिन पहले ही दिन से हमने बड़ी हिम्मत दिखाई। भारतीय संविधान ने 21 साल की उम्र पूरी कर चुके हर वयस्क नागरिक को मतदान का अधिकार दिया, जो पागल या दिवालिया न हो। इसके लिए न तो जाति को आधार बनाया गया, न ही रंग को और न ही लिंग को। 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो न तो उसके पास आर्थिक संसाधन थे न ही साक्षर नागरिकों का समूह। आजादी के समय भारत की कुल अर्थव्यवस्था करीब दो लाख करोड़ की थी, जबकि साक्षरता दर महज बारह फीसद। शायद यही वजह थी कि पूरी दुनिया ने मान लिया था कि भारतीय लोकतंत्र कुछ ही वर्षों में चरमराकर ढह जाएगा। लेकिन आजादी के आंदोलन के दौरान रचे गए मूल्यों का असर था या फिर भारतीय संस्कृति में पारिवारिकता का समन्वय बोध, यहां लोकतंत्र की जड़ें गहरी से गहरी होती गईं। जातीय आधार और धार्मिक भेदभाव के कुछ अपवादों को छोड़ दें तो भारतीय लोकवृत्त ने लोकतंत्र का जो मूल्यबोध विकसित किया, उसका सानी अब दुनिया भी मानती है।
अमेरिका आज अपने लोकतंत्र का झंडा पूरी दुनिया में लेकर गर्वीले भाव से घूमता रहता है। दुनिया के किसी भी अधिनायकवादी देश में जब वह सैनिक या आर्थिक कार्रवाई करता है तो वह अपने लोकतंत्र की दुहाई देना नहीं भूलता। लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम है कि नारी सशक्तीकरण और सामाजिक समरसता का संदेश देने वाले अमेरिका में महिलाओं को मतदान का अधिकार पिछली सदी के तीस के दशक में मिला, वह भी भारी आंदोलनों के बाद। लेकिन उसकी तुलना में भारत को देखिए। जिस दिन से संविधान लागू हुआ, वयस्क मतदान का अधिकार सबको मिला। भारत के धन्ना सेठ या सेठानी की वोट की कीमत उतनी ही रही, जितनी किसी दूर-दराज की झोंपड़ी में रह रहे व्यक्ति या महिला की होती है।
बहरहाल भारतीय वोटिंग व्यवस्था में करीब दशकभर पहले तक यह मान्यता रही है कि कोई परिवार सामूहिक तौर पर किसे वोट देगा, यह तय उस परिवार का मुखिया करता था। शायद यह अवधारणा ही रही कि कुछ राज्यों में वोट खरीदने का दुष्चलन भी बढ़ा। लेकिन अब यह अवधारणा बदल रही है। अब गारंटी नहीं कि जिसे पति या ससुर ने वोट दिया हो, उसे ही उसकी बहू या पत्नी ने वोट दिया हो। चुनावी सर्वेक्षणों पर काम करती रही संस्था सीएसडीएस का मानना है कि अब महिलाओं का वोटिंग पैटर्न बदल रहा है। अब वे परिवार की बजाय अलग जाकर सोचती हैं। इसकी तसदीक साल 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के एक सर्वेक्षण के नतीजों से भी मिली। करौली जिले में किए गए इस सर्वेक्षण में कांग्रेस ने करीब 40 हजार महिलाओं से बात की थी। उनमें से करीब 75 प्रतिशत का जवाब था कि वे अपने पतियों की सलाह हंसकर सुन तो लेती हैं, लेकिन वोट अपने मन से देती हैं। कहना न होगा कि राजनीतिक दल भी इस तथ्य को समझ गए हैं, इसीलिए वे अब ना सिर्फ महिलाओं के लिए अलग कार्यक्रम बनाने लगे हैं, बल्कि उसका जोर-शोर से प्रचार भी करने लगे हैं। प्रधानमंत्री ने हाल के अपने एक चुनावी प्रचार के दौरान कहा, ”हमारा देश महिलाओं के विकास से महिलाओं की अगुवाई में विकास की तरफ बढ़ रहा है।’’ इसमें विपक्ष भी पीछे नहीं हैं। राहुल गांधी को भी महिला मतदाताओं की अहमियत समझ में आ रही है। शायद यही वजह है कि उन्होंने भी महिलाओं को लुभाने के लिए विधायिका और संसद में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने का वादा कर दिया है।
महिलाओं के मतदान की बढ़ोत्तरी की कहानी हाल ही में हुए चुनाव ने भी जाहिर की है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नगीना सीट पर जहां महिलाओं ने 66.15 प्रतिशत मतदान किया वहीं पुरुषों का मतदान प्रतिशत यहां 61.18 ही रहा। इसी तरह अमरोहा सीट पर महिलाओं ने 71.54 प्रतिशत मतदान किया तो पुरुषों का मतदान प्रतिशत 70.60 रहा। बुलंदशहर में महिलाओं ने 63.94 प्रतिशत वोट डाले तो पुरूषों का मतदान प्रतिशत 61.68 रहा। बुलंदशहर मुस्लिम बहुल इलाका माना जाता है। यहां मुस्लिम महिलाओं ने जमकर वोट डाले। इसी तरह बिहार के गया, औरंगाबाद और नवादा में भी मुस्लिम पुरूषों की तुलना में मुस्लिम महिलाओं के वोट डालने की खबरें सामने आई हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर महिलाओं का बढ़ता यह मतदान किसके पक्ष में जाएगा। वैसे शौचालय क्रांति के साथ ही उज्ज्वला जैसी योजना से महिलाओं का सीधा साबका है, इसके साथ ही अल्पसंख्यक और दलित समूहों की लड़कियों के लिए जिस तरह से सरकारों ने फेलोशिप योजनाएं शुरू की हैं, उसकी वजह से भारतीय जनता पार्टी को लगता है कि महिलाओं का बढ़ता वोट प्रतिशत उसके पक्ष में है। जबकि कांग्रेस का तर्क है कि चूंकि महिलाओं को नोटबंदी के बाद घर चलाने में कठिनाई हुई है, उनके घरों के बच्चे बेरोजगार हुए हैं। इसलिए वे नाराजगी में विपक्षी गठबंधन को वोट दे रही हैं। वैसे वोटर चाहें गांव की हो या शहर की, सबका एक मुद्दा जरूर है महिला सुरक्षा। इस मसले पर भी महिलाएं वोट डाल रही हैं।
भारतीय जनता पार्टी ने पिछले पांच साल में महिलाओं के लिए कई योजनाएं शुरू कीं। जिनमें सरकारी महिला कर्मचारी के लिए मातृत्व अवकाश के दिनों में बढ़ोत्तरी, गर्भवती और दूध पिलाने वाली माताओं को 6,000 रू. के भत्ते को प्रमुख स्थान पर रखा जा सकता है। इसके साथ ही मिशन इंद्रधनुष के तहत गर्भवती महिलाओं को हेल्थ कवर और पोषण अभियान भी चलाया गया है। भारतीय जनता पार्टी ने महिला मतदाताओं के लिहाज से 25 लाख आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं का मानदेय 1,000 रु. से बढ़ाकर 1,200 रु. कर दिया और इसके अलावा 4 लाख रु. का मुफ्त सालाना दुर्घटना बीमा भी दिया है। इसके साथ ही मुस्लिम महिलाओं के हक में तीन तलाक विधेयक और अकेली मुस्लिम महिला को हज पर जाने का कानूनी हक देकर भी पार्टी महिलाओं के समर्थन की उम्मीद कर रही है। कुछ जगहों पर जिस तरह पढ़ी-लिखी मुस्लिम लड़कियों ने खुलकर भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में राय रखी, वैसी मिसाल पहले नहीं मिलती।
भारतीय मतदाताओं में इस बार बड़ी भूमिका नौजवान मतदाता भी निभाने जा रहे हैं। भारत में करीब दस करोड़ युवा मतदाता हैं। इनमें से डेढ़ करोड़ ऐसे हैं, जिनका जन्म इक्कीसवीं सदी में हुआ है और वे पहली बार वोट डालने जा रहे हैं। पहली बार वोटर बने मतदाता में मतदान के लिए बहुत उत्साह होता है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, तमाम दलों की कोशिश इन मतदाताओं को रिझाने की है। 1989 के चुनाव में राजीव गांधी की हार के बारे में कहा जाता है कि उसके पीछे बोफोर्स की दलाली में उनके नाम के शामिल होने की भूमिका या विश्वनाथ प्रताप सिंह की लोकप्रियता से ज्यादा युवा वोटरों में उन्हें लेकर नाराजगी ज्यादा थी। गौरतलब है कि राजीव गांधी ने ही संविधान संशोधन करके वयस्क मताधिकार के लिए उम्र सीमा को घटाकर 18 साल कर दी थी। वैसे भारतीय जनता पार्टी के लिए राहत की बात है कि राजीव गांधी द्वारा चौकीदार चोर का नारा लगाने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति युवाओं में खासा क्रेज है। मोदी सरकार को उम्मीद है कि उसने युवाओं और महिलाओं से जुड़ी योजनाएं मसलन, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, प्रधानमंत्री रोजगार प्रोत्साहन योजना, प्रधानमंत्री सुकन्या समृद्धि योजना और प्रधानमंत्री युवा उद्यमिता विकास अभियान चलाया है, उससे युवाओं में अच्छा संकेत गया है। वहीं कांग्रेस को लगता है कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की जो रिपोर्ट आई है, जिसके मुताबिक कथित तौर पर 45 साल में पहली बार बेरोजगारी दर 6.1 प्रतिशत के उच्च स्तर पर पहुंच गई है, उससे युवा नाराज है और वह भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ वोट डालेगा। हालांकि कांग्रेस ऐसा सोचते वक्त भूल जा रही है कि 27 फरवरी को पाकिस्तान स्थित बालाकोट के आतंकी अड्डे पर भारतीय वायुसेना की सफल कार्रवाई ने युवाओं में भारतीय जनता पार्टी को लेकर सोच बदल दी है। इसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुजुर्ग गन्ना किसान भी मानते हैं कि बेशक गन्ने का भुगतान बाकी है, लेकिन युवाओं में मोदी सरकार को लेकर क्रेज बरकरार है। युवाओं ने सरकारें अतीत में बदली हैं तो समर्थन भी दिया है। बहरहाल भारतीय जनता पार्टी इन दिनों उम्मीदों से भरी है। इसकी एक बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि उसके नेता नरेंद्र मोदी के बरक्स प्रधानमंत्री पद के लिए दूसरा मजबूत दावेदार नहीं है। युवाओं ने चार साल पहले अरविंद केजरीवाल में भी भरपूर आस्था जताई थी। लेकिन जिस तरह उन्होंने राजनीति की बिसात पर पैंतरेबाजी की है, उससे युवाओं का एक बड़ा वर्ग निराश हुआ है। वह दरअसल केजरीवाल से बदलाव की उम्मीद कर रहा था। लेकिन केजरीवाल अलग नहीं, पारंपरिक राजनीति के ही खांचे के सहयोगी निकले।
भारतीय चुनाव तंत्र 1937 के चुनावों से ही जाति और धर्म केंद्रित रहा है। जाहिर है कि इस बार भी जाति और धर्म का छौंका लगाकर तमाम राजनीतिक दल चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन इस बीच हर जातियों में एक ऐसी पीढ़ी भी विकसित हुई है, जो पढ़ी-लिखी है, जिसके हाथ मोबाइल फोन है और उसके जरिए वह दुनिया की दौड़ से भी परिचित है। इसलिए वह पीढ़ी जाति और धर्म से अलग भी सोचने लगी है। इसी वर्ग को लुभाने के लिए इन दिनों हर राजनीतिक दल सोशल मीडिया पर अपनी मौजूदगी को हंगामेदार बनाए हुए हैं। वैसे एक बात और है। मौजूदा चुनाव प्रक्रिया को किसी एक फॉर्मूले की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता है। इसलिए यह कहना कि 23 मई को आने वाले नतीजे यही होंगे, जल्दबाजी ही होगी। क्योंकि मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग अब भी मुखर नहीं है।
वैसे यह भी तय है कि अगर नरेंद्र मोदी की जीत होगी, जिसकी संभावना सबसे ज्यादा है तो भारतीय राजनीति में व्यक्ति केंद्रित चुनाव की तरफ यह चुनाव मजबूत स्तंभ बनकर उभरेगा। जिसके आधार पर भावी चुनावों की भी गति तय होगी।
उमेश चतुर्वेदी