पौराणिक काल में ऐसी कई महिलाएं हुई हैं जिन्हें हम आदर्श और उत्तम चरित्र की महिलाएं मानते हैं, जो भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। लेकिन उनमें से सर्वोत्तम हैं माता सीता। जैसे श्रीराम को पुरुषों में उत्तम पुरुषोत्तम कहा गया है, उसी तरह माता सीता भी महिलाओं में सबसे उत्तम एवं आदर्श नारी चरित्र हैं। धर्मशास्त्रों में ऐसी ही अनेक गृहस्थ और पतिव्रता स्त्रियों के बारे में लिखा गया है, जो आज भी हर नारी के लिए आदर्श और प्रेरणा हैं। अनेक लोग माता सीता के जीवन को संघर्ष से भरा भी मानते हैं, लेकिन असल में उनके इसी संघर्षमय जीवन में आधुनिक हर कामकाजी या गृहस्थ स्त्री के लिए बेहतर, उत्तम और संतुलित जीवन के अनमोल सूत्र समाये हैं। उनकी सत्य निष्ठा, चरित्र निष्ठा, सिद्धांत निष्ठा और अध्यात्म निष्ठा अद्भुत एवं प्रेरक है। वे त्याग, तपस्या, तितिक्षा, तेजस्विता, बौद्धिकता, चैतन्यता, पारिवारिकता एवं पतिव्रता धर्म की प्रतीक हैं, प्रतिभा, पवित्रता, प्रशासन एवं पुरुषार्थ की पर्याय हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार, राजा जनक अकाल एवं सूखे की विकराल स्थिति को देखते हुए स्वयं ही एक बार हल से खेत जोत रहे थे तभी उनका हल किसी चीज से टकराया था। तब राजा जनक ने देखा तो वहां एक कलश प्राप्त हुआ। उस कलश में एक सुंदर कन्या थी। राजा जनक की कोई संतान नहीं थी, वह इस कन्या को अपने साथ लें आएं। जोती हुई भूमि तथा हल के नोक को भी ‘सीता’ कहा जाता है, इसलिए बालिका का नाम ‘सीता’ रखा गया था। फाल्गुण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को सीता धरती से प्रकट हुई। राजा जनक की सबसे बड़ी पु़त्री होने के कारण माता सीता ने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में विवेक, प्रेम, त्याग, समर्पण एवं सत्य को केन्द्रिय भाव बनाया।
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’- मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। ज्योति की यात्रा मनुष्य की शाश्वत अभीप्सा है। इस यात्रा का उद्देश्य है, प्रकाश की खोज। प्रकाश उसे मिलता है, जो उसकी खोज करता है। कुछ व्यक्तित्व प्रकाश के स्रोत होते हैं। वे स्वयं प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी निरंतर रोशनी बांटते हैं। माता सीता ऐसा ही एक लाइटहाउस है यानी प्रकाश-गृह है, जिसके चारों ओर रोशनदान हैं, खुले वातायन हैं। प्रखर संयम, साधना, संतुलन, धैर्य, त्याग और आत्माराधना से उनका समग्र जीवन उद्भासित है। आत्मज्योति से ज्योतित उनकी अंतश्चेतना, अनेकों को आलोकदान करने में समर्थ रही हैं। उनका चिंतन, संभाषण, आचरण, सृजन, पतिव्रता धर्म, मातृत्व, सेवा- ये सब ऐसे खुले वातायन हैं, जिनसे निरंतर ज्योति-रश्मियां प्रस्फुटित होती रही हैं और पूरी मानवजाति को उपकृत किया हैं। उनका जीवन ज्ञान, दर्शन और चरित्र की त्रिवेणी में अभिस्नात है। उनका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक और चुंबकीय है, आंतरिक व्यक्तित्व उससे हजार गुणा निर्मल और पवित्र है। वे शांत, सौहार्द एवं प्रेममय पारिवारिक परिवेश निर्माता हैं, उनके चिंतन में भारत की आध्यात्मिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना प्रतिबिम्बित है। आपकी वैचारिक उदात्तता, ज्ञान की अगाधता, आत्मा की पवित्रता, सृजनधर्मिता, अप्रमत्तता और विनम्रता उन्हें विशिष्ट श्रेणी में स्थापित करती हैं।
माता सीता का विलक्षण व्यक्तित्व यूं लगता मानो पवित्रता स्वयं धरती पर उतर आयी हो। उनके आदर्श समय के साथ-साथ प्रकट होते रहे, उद्देश्य गतिशील रहे, सिद्धांत आचरण बनते थे और संकल्प साध्य तक पहुंचते थे। यदि मन में श्रेष्ठ के चयन की दृढ़ इच्छा हो तो निश्चित ही ऐसा ही होता है। सीता स्वयंवर तो सिर्फ एक नाटक था। असल में सीता ने श्रीराम और श्रीराम ने सीता को पहले ही चुन लिया था। मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को भगवान श्रीराम तथा जनकपुत्री जानकी (सीता) का विवाह हुआ था, तभी से इस पंचमी को ‘विवाह पंचमी पर्व’ के रूप में मनाया जाता है।
यह बहुत ही आश्चर्य है कि वनवास श्रीराम को मिला लेकिन माता सीता भी उनके साथ महलों के सारे सुख, धन और वैभव को छोड़कर चल दीं। सिर्फ इसलिए कि उन्हें अपने पतिव्रत धर्म को निभाना था। इसलिए भी कि उन्होंने सात वचन साथ में पढ़े थे। उस काल में वन बहुत ही भयानक हुआ करता था। वहां रहना भी बहुत कठिन था लेकिन माता सीता ने श्रीराम के साथ ही रहना स्वीकार किया। निश्चित ही पति को अपनी पत्नी के हर कदम पर साथ देना जरूरी है, उसी तरह पत्नी का भी उसके पति के हर सुख और दुख में साथ देना जरूरी है। कोई महिला यदि अपने पति के दुख में दुखी और सुखी में सुखी नहीं होती है, तो उसे सोचना चाहिए कि वह क्या है। आदर्श और उत्तम दांपत्य जीवन शिव-पार्वती और राम-सीता की तरह ही हो सकता है। माता सीता की जीवनयात्रा एक आदर्श नारी, पत्नी, मां, की, एक संस्कारदृष्टि संपन्न मातृत्व एवं प्रेम की तथा एक आदर्श समाज निर्माता की यात्रा है। इस यात्रा के अनेक पड़ाव है। वहां उनकी पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि क्षेत्रों से संबंधित बहुमूल्य दृष्टियां एवं अभिप्रेरणाएं उपलब्ध होती हैं।
माता सीता सिर्फ गृहिणी ही नहीं थीं अर्थात घर में रहकर रोटी बनाना या घर के ही कामकाज देखना। वे प्रभु श्रीराम के हर कार्य में हाथ बंटाती थीं, जहां श्रीराम के कारण उनकी पूर्णता थी, वहीं श्रीराम भी माता सीता के कारण ही पूर्ण होते हैं। श्रीराम जहां रुकते थे, वहां वे तीन लोगों के रहने के लिए एक कुटिया बनाते, खुद के कपड़े धोते, जलाने की लकड़ियां इकट्ठी करते और खाने के लिए कंद-मूल तोड़ते थे। उक्त सभी कार्यों में लक्ष्मण सहित माता सीता उनका साथ देती थीं। माता सीता का जब रावण ने अपहरण कर लिया और उन्हें अशोक वाटिका में रखा तब इस कठिन परिस्थिति में उन्होंने शील, सहनशीलता, साहस और धर्म का पालन किया। इस दौरान रावण ने उन्हें साम, दाम, दंड और भेद की नीति से अपनी ओर झुकाने, लुभाने एवं प्रभावित करने का प्रयास किया लेकिन माता सीता नहीं झुकीं, क्योंकि उनको रावण की ताकत और वैभव के आगे अपने पति श्रीराम और उनकी शक्ति के प्रति पूरा विश्वास था। वे सौम्यता, शुचिता, सहिष्णुता, सृजनशीलता, श्रद्धा, समर्पण, स्फुरणा और सकारात्मक सोच की एक मिशाल हैं।
श्रीराम के वियोग में दुःखी, पीड़ित माता सीता को देखकर हनुमानजी भी बेचैन हो गये और अपनी शक्ति को दिखाकर मां सीता को आश्वस्त किया कि वे तत्क्षण उन्हें श्रीराम के पास ले जा सकते हंै। लेकिन सीताजी ने कहा कि ‘श्रीराम के प्रति मेरा जो समर्पण है, जो संपूर्ण त्याग है, मेरा पतिव्रता का धर्म है, उसको ध्यान में रखकर मैं श्रीराम के अतिरिक्त किसी अन्य का स्पर्श नहीं कर सकती। अब श्रीराम यहां स्वयं आएं, रावण का वध करें। रामजी ही मुझे मान-मर्यादा के साथ लेकर जाएं, यही उचित होगा।
रावण के लोभ ने पहली बार सीता को श्रीराम से अलग किया। दूसरी बार अयोध्या के लोगों की सामान्य सोच एवं नासमझी ने श्रीराम से माता को विलग कराया। लेकिन माता कहां अलग हो पायी? सदैव श्रीराम के साथ और श्रीराम के पूर्व ही स्वर और शब्दों में रहीं। कहते हैं कि भगवती पार्वती ने महादेव से निवेदन किया कि वह कोई ऐसी कथा सुनाये, जो हर प्रकार के दुख और क्लेश में संतुष्टि की प्रेरणा प्रदान करें एवं जीवन को पूर्णता की ओर अग्रसर करे। तब पहली बार इस धरती पर भगवान भोलेशंकर ने माता पार्वती को सीताराम की कथा सुनाई। जीवन के उतार-चढ़ावों, संकटों, झंझावातों और असंतोष में केवल श्रीराम एवं सीता का दाम्पत्य ही शाश्वत शांति और संतोष प्रदान करता है। उनका जीवन कर्म और ज्ञान के बीच के समन्वय का उदाहरण बनकर प्रेम और चरित्र की एक अनुपम मर्यादा स्थापित करता है। यही कारण है भारतीय समाज में माता सीता के माध्यम से जिन आदर्शों की कल्पना की गई है, वे भारतीयों को आज भी उतनी ही श्रद्धा से स्वीकार हैं। ऐसे विलक्षण जीवन और विलक्षण कार्यों की प्रेरक माता सीता पर न केवल समूचा हिन्दू समाज बल्कि संपूर्ण मानवता गर्व का अनुभव करती है। प्रेषकः
(ललित गर्ग)