लिंचिंग
1. झारखंड के सरायकेला में मंदिर में तोडफ़ोड़। गांव की औरतों को रेप की धमकियां।
2. मुरादाबाद में गंगाराम को पीट-पीटकर मार डाला। उनकी नाबालिग बेटी से रेप हुआ।
3. मेरठ के प्रह्लादनगर में मुसलमानों के डर से लोग घर बेच रहे हैं।
4. मेरठ के घंसौली गांव में दलित हिंदू परिवार मंदिर में भंडारा कर रहे थे, गांव के मुसलमानों की भीड़ ने मंदिर में तोडफ़ोड़ की। 4 लोगों को घायल कर दिया।
5. बिहार के वैशाली में पार्षद मोहम्मद खुर्शीद ने बलात्कार में नाकाम होने के बाद 48 साल की एक महिला और उसकी 19 साल की शादीशुदा बेटी का सिर मुंडाकर गांवभर में घुमाया।
6. झारखंड में मंगरू पाहन नाम के जनजातीय हिंदू मजदूर को मोहल्ले के मुसलमानों ने पीट-पीटकर मौत के घाट उतारा।
7. झारखंड के धनबाद में अंतिम संस्कार से लौट रहे लोगों पर मुसलमानों की भीड़ ने हमला कर दिया। 12 लोग बुरी तरह घायल हुए।
सलमान को समझने में अक्सर लोग गलती करते हैं। अक्सर क्या हमेशा गलती ही करते हैं। मुसलमान दुनिया का एकमात्र ऐसा धर्मभिरु प्राणी है जो आजादी की नहीं, गुलामी की चाहत रखता है। हिन्दुओं की तरह उसे मुक्ति नहीं चाहिए। उसे गुलामी चाहिए। नख शिख गुलामी। रोम रोम में गुलामी। जितना वह अपने दीन, अपने फर्ज और अपने आखिरी पैगंबर का गुलाम बनता जाएगा, जन्नत में उसकी जगह पक्की होती जाएगी।
जब आप इस्लाम के इस डिजाइन को समझ जाएंगे तो आपको मुसलमानों का व्यवहार समझने में आसानी हो जाएगी। हर मुसलमान अपने अपने मसलक के मुताबिक कम अधिक इसी मानसिकता से घिरा होता है। जायरा वसीम भी इससे अलग नहीं हो सकती। मुक्ति, आजादी, स्वतंत्र जीवन ये सब इंसानों की चाहत होती है, सच्चा मुसलमान गुलामी की चाहत रखता है। अपने दीन की। अपने ईमान की। अपने तौहीद की। और इन सबकी समझ देनेवाला उस मौलवी मौलाना की जो उन्हें समझाता है कि जन्नत जाने की सीढ़ी कहां से जाती है।
और ये जो जन्नत जानेवाली सीढ़ी है यह हमेशा गुलामी की गली से होकर ही गुजरती है। जायरा वसीम के बारे में ज्यादा कुछ क्या कहें। ये उम्र थोड़ी कच्ची है, लेकिन उसका ईमान उस कच्ची उम्र में ही जाग गया है जिसमें आमतौर पर बच्चे कन्फ्यूज ज्यादा रहते हैं। जाग गया है तो जग जान गया। वैसे भी इस्लाम के बड़े स्कॉलर डॉ इसरार अहमद अक्सर ये कहा करते थे, मुसलमान का ईमान कभी भी जाग सकता है। और जैसे ही ईमान जागता है अच्छा भला बच्चा भी जायरा वसीम बन जाता है।
बुर्का, बोरा, तीन तलाक, चार शादी और दर्जन भर बच्चे। जब तक दारुल हर्ब हिन्दुस्तान दारुल इस्लाम नहीं हो जाता, सच्चे मुसलमान के लिए यही सब ईमान है। बाकी जितना चाहो उतना माथा फोड़ी कर लो, अपने ईमान के ये सच्चे गुलाम कुछ सुनने वाले नहीं हैं।
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तबरेज अंसारी की ‘लिंचिंग’ पर पूरे देश का मुसलमान उबल रहा है। शायद वीडियो देखकर उन्हें विश्वास नहीं हो रहा कि उनके जैसा वहशीपन कोई और भी कर सकता है। दिल्ली में वक्फ बोर्ड ने पांच लाख रूपये की मदद तबरेज अंसारी को भेजी है। साथ में दिल्ली में उसकी विधवा को नौकरी देने का प्रस्ताव भी दिया है।
इसी तरह जंतर मंतर पर महाराष्ट्र से आये कुछ मुसलमानों ने प्रदर्शन करके तबरेज के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त की। लेकिन मेरे मन में एक सवाल बार बार आ रहा है, कि इन लोगों में क्या एक भी आदमी ऐसा नहीं है जो इस बात की तस्दीक करता कि तबरेज क्या करते हुए भीड़ के हाथों मारा गया? क्या तबरेज की जगह कोई हिन्दू होता तो लोग उसे छोड़ देते? चोर कहीं भी पकड़ा जाए भीड़ उस पर कहर बनकर टूटती है। वो ये नहीं देखती कि उसकी जाति और धर्म क्या है। तो फिर तबरेज अंसारी के साथ जो हुआ वो क्या सिर्फ इसलिए हुआ कि वो मुसलमान था?
लेकिन नहीं। यहां तो जिहाद करना है और मुसलमान चोर हो, डकैत हो, हत्यारा हो, रेपिस्ट हो या फिर रेड लाइट जंप करके ही भाग रहा हो, अगर पकड़ा जाता है तो बाकी मुसलमान उसका अपराध नहीं देखते, उसका धर्म देख लेते हैं। और फिर बिना कुछ सोचे समझे इस्लाम के नाम पर उसके साथ खड़े हो जाते हैं। जो समुदाय इतना धर्मांध हो कि अपराधियों के अपराध को छिपाने के लिए धर्म को आड़े रख लेता हो उससे आप किस सुधार की उम्मीद कर सकते हैं?
मथुरा में यादव लस्सीवाले की हत्या करने आयी भीड़ में मुस्लिम महिलाएं भी शामिल थीं। लेकिन क्या मजाल कि कोई एक महिला उसमें से कहती कि तुम लोग ये क्या करने जा रहे हो? अपनी गलती मानों और घर चलो, हमें शांति के साथ जीवन जीना है। लेकिन शांति, प्रेम, भाईचारा ये सब टेक्निकल टर्म हैं जिन्हें सच्चा मुसलमान दूसरों को मूर्ख बनाने के लिए इस्तेमाल करता है। असलियत में इन शब्दों से भी उसका दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है। होता, तो किसी अपराधी के पीछे यूं लामबंद होकर खड़ा न हो जाता।
सच्चा मुसलमान हमेशा जिहाद के लिए तैयार रहता है। मस्जिद से लेकर मदरसे तक और मदरसे से लेकर मोहल्ले तक उसकी तैयारियां जारी रहती हैं।
यूपी पुलिस ने बिजनौर के मदरसे से जिस तरह हथियार और गोले बारुद बरामद किये हैं उससे यह बात साबित होती है कि मदरसों में बम गोले बारूद की कितनी स्वीकार्यता है। लेकिन इससे ज्यादा चौंकाने वाली बात दूसरी है। वहां से एक स्विफ्ट डिजायर कार बरामद हुई है जिस पर शिवसेना लिखा हुआ है। इसी गाड़ी से हथियारों की स्मगलिंग होती थी।
इस बात से आप जिहादी की रणनीतिक मानसिकता का अंदाज लगा सकते हैं कि वो किस स्तर पर तैयारी करते हैं।
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सच्चा मुसलमान गैर मुस्लिमों को खत्म करने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाता है। इसमें एक है, गैर मुस्लिमों की लड़कियों का अपहरण। जहां मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं वहां ये काम बहुत सुनियोजित तरीके प्यार के नाम पर किया जाता है लेकिन जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं वहां ये सब नाटक करने की जरूरत नहीं होती। सीधा अपहरण, धर्म परिवर्तन और शादी। किस्सा खत्म। इसके बाद न कोई कानून काम करता है और न ही समाज उनके सामने खड़ा हो पाता है।
मुस्लिमों के लिए गैर मुस्लिम लड़की का (प्यार से या फिर जबरन) अपहरण एक ऐसा कर्म है जिससे जन्नत के लिए ज्यादा शबाब के प्वाइंट हासिल होते हैं। आप कैसे सोचते हैं ये आपकी प्रॉब्लम है लेकिन वो ऐसे ही सोचते हैं। ये एक प्रकार का जिहाद है जो उनके लिए जन्नत के दरवाजे खोलता है।
पाकिस्तान की पायल जन्नतियों की नयी शिकार है। कराची से अपहरण के बाद उसका धर्म परिवर्तन करके उसे इस्लाम कबूल करवा दिया गया है। एक जन्नती मुसलमान ने उससे शादी भी कर ली है। एक और काफिर का किस्सा खत्म। अब उसकी कोख से जन्नती जाहिल पैदा किये जाएंगे।
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पाकिस्तान के पहले स्वप्नद्रष्टा अल्लामा इकबाल कश्मीरी पंडित थे। उनके दादा रतनलाल सप्रू ने इस्लाम स्वीकार किया और नूर मोहम्मद हो गये। बाद में वो लोग कश्मीर से निकलकर पंजाब में बस गये। आगे का इतिहास ये है कि रतनलाल सप्रू का पोता पाकिस्तान का स्वप्नद्रष्टा बनता है और यही स्वप्न वह मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्ना को दिखाता है।
इकबाल का जो पाकिस्तान उनके मरने के बाद बना उस पाकिस्तान का आज भी कश्मीर घाटी पर दावा बना हुआ है। कारण इकबाल नहीं कारण कुछ और है। इस दावे में दम भरने के लिए बांग्लादेश निर्माण के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर में वहाबियत और देओबंदी इस्लाम का प्रचार किया और कश्मीर को जन्नत से जहन्नुम में तब्दील कर दिया।
उसी जहन्नुम से निकाले गये कश्मीरी पंडितों की अगली पीढ़ी की एक लड़की श्वेता सप्रू ने अभी कुछ दिन पहले कश्मीर घाटी में अपने उस घर का दौरा किया जो उसके पिता छोड़कर जम्मू में बस गये हैं। घर की हालत देखकर उसके आंसू निकल आये। उसका वह वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ। इतना प्रचार हुआ कि उसने अलग से उस वीडियो पर बातचीत की।
श्वेता सप्रू बताती है कि उसे वहां देखकर आसपास के हर आदमी का कान खड़ा हो गया। सब ऐसी नजरों से देख रहे थे कि ये कहां से यहां आ गयी। श्वेता सप्रू की पुश्तैनी संपत्ति पर निगाह लगाये बैठे पड़ोसी मुसलमानों ने उसका कोई वैसा स्वागत सत्कार नहीं किया जिसका दावा कश्मीर के कुछ नेता अपने भाषणों में करते हैं।
श्वेता सप्रू कहती है कश्मीर वैसा नहीं है जैसा बाहर बताया जाता है। वहां कोई ऐसा उसे नहीं मिला जिसके व्यवहार को देखकर उसे महसूस हो कि कश्मीर मुसलमान अपने बिछड़े हुए भाइयों का स्वागत करना चाहते हैं। श्वेता की बातचीत सुनकर लगता है कश्मीर से कश्मीरी पंडितों का निष्कासन स्थाई है। सच्चे इस्लाम ने अपना काम कर दिया है। अब वहां कोई सप्रू तभी दाखिल हो सकता है जब अपना नाम नूर मोहम्मद रख ले। अल्लामा कहे जानेवाले इकबाल की इस्लामिक सनक ने कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को ही हमेशा के लिए बेदखल कर दिया।
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सर पर मैला ढोने का चलन इस देश में मुस्लिम शासक लेकर आये। उन्होंने ही ऐसी अछूत जातियां पैदा की जो सर पर मैला ढोते थे। चार पांच सौ साल तक उनके सर से मैला नहीं उतरा। उसे उतारने का काम किया एक ब्राह्मण ने जिनका नाम है बिन्देश्वर पाठक।
सुलभ शौचालय की शुरुआत इस तरह सार्वजनिक शौचालय के रूप में नहीं हुई थी। उसकी शुरुआत पटना में एक सर पर मैला ढोनेवाले के घर से हुई थी जहां पहली बार बिन्देश्वर पाठक को यह महसूस हुआ कि इस कुप्रथा को खत्म करना मानवता की सबसे बड़ी सेवा होगी। आज भी हो सकता है सिर पर मैला ढोने की प्रथा कहीं हो लेकिन अब यह लगभग समाप्त है और इसका श्रेय किसी सरकार को नहीं बल्कि बिन्देश्वर पाठक के सुलभ आंदोलन को जाता है।
लेकिन हमारे यहां वाममार्गी धूर्तजीवी और उनको बुद्धिजीवी माननेवाले मूर्ख यह कहते नहीं थकते कि अछूत ब्राह्मणों ने पैदा किया। वो आपसे यह सच्चाई छिपाते हैं कि इस देश में सिर पर मैला ढोनेवाले अछूत नवाबों, बादशाहों और मुस्लिम शासकों ने पैदा किये। यही लोग थे जो हिन्दू काफिरों से सिर पर अपना मैला उठवाते थे और फिर उनको अछूत बना देते थे। विजय सोनकर अपनी किताब में तो यहां तक बताते हैं कि जो हिन्दू सवर्ण कन्वर्ट होने से इन्कार कर देते थे उनसे मुसलमानों का मैला साफ करवाया जाता था। इसलिए मध्यकाल में कई ऐसी अछूत जातियां पैदा हुई जिनका उसके पहले उल्लेख नहीं मिलता है।
जिन्हें मेरी बात पर भरोसा न हो वो पाकिस्तान का वर्तमान देख लें जहां जमादार आज भी सिर्फ गैर मुस्लिमों को नियुक्त किया जाता है। मैला ढोने और साफ करने का काम या तो ईसाई करते हैं या हिन्दू। बिना सिर का मोमिन सिर्फ सिर पर मैला करता है और वामी उस मैले को अपने सिर पर पोतकर समाज में दुर्गंध फैलाते हैं।
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असल में इस्लाम में सभी गैर मुस्लिमों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। वहां बराबरी का कोई कांसेप्ट नहीं है। जो मुसलमान नहीं है वह दोयम दर्जे का नागरिक है फिर इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह हिन्दू है, सिख है, ईसाई, बौद्ध है या फिर नास्तिक है। अगर वह मुसलमान नहीं है तो दोयम दर्जे का नागरिक है। इस्लामिक शासन में उसको मुसलमानों जैसा हक अधिकार कभी नहीं दिया जा सकता।
माइनॉरिटी की आड़ में इस देश में लंबे समय से मुस्लिम सुप्रीमेसी का खेल खेला गया है। इस खेल की पटकथा कम्युनिस्टों ने लिखी और हर दल के नेता से उस पटकथा पर अभिनय करवाया। अब राजनीति से पटकथा लेखक गायब हो गये हैं तो पत्रकारिता की आड़ में वही कहानी दोहराना चाहते हैं। मसला माइनॉरिटी का नहीं है। मसला है मुस्लिम सुप्रीमेसी का। सत्ता में कोई रहे लेकिन नीति और नियम में मुस्लिम सुप्रीमेसी बनी रहनी चाहिए।
देश और समाज के सौभाग्य से वह सुप्रीमेसी टूट रही है। इसलिए कॉमरेड बौखलाए हुए हैं। जिहादी तत्व भी बौखलाए हुए हैं। जो जहां है वहीं से जिहाद पर निकल पड़ा है। जैसे भी हो, इस मुस्लिम सुप्रीमेसी को बरकरार रखना है भले ही इसके लिए ‘कानून व्यवस्था’ अपने हाथ में क्यों न लेनी पड़ जाए।
हिन्दुओं की मानसिकता ही दोयम दर्जे के नागरिक जैसी हो गयी है। लंबे समय तक मुसलमानों की गुलामी, फिर ब्रिटिश हुक्मरानों की गुलामी और उससे आजाद हुए तो दोयम दर्जे के वामपंथी बुद्धिजीवियों की गुलामी। स्वतंत्रता के बाद उनका जो स्वाभाविक उभार होना चाहिए था उसे कभी सेकुलरिज्म के नाम पर तो कभी माइनॉरिटी के नाम पर दबा दिया गया।
अति का मुस्लिम तुष्टीकरण और कुछ नहीं हिन्दुओं को गुलाम बनाकर रखने की कवायद है। भारत दुनिया का ऐसा इकलौता अजूबा देश है जहां मेजोरिटी अपने अस्तित्व के लिए एक खास किस्म के माइनॉरिटी से लड़ रही है। यह मेजोरिटी की गुलाम मानसिकता का ही परिचायक है। वरना दुनिया में ऐसा होता नहीं। या तो माइनॉरिटी मेजोरिटी के खिलाफ लड़ती है या फिर उसके साथ जीने की कला विकसित कर लेती है। भारत में उल्टा हो रहा है। बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक के हिसाब से अपना जीवन ढालने की सीख दी जाती है।
शायद इसीलिए मानसिक रूप से हिन्दू आज भी मुसलमान का गुलाम ही है। जो थोड़े बहुत हिन्दू इस गुलाम ग्रंथि से बाहर निकल आये हैं उन्हें यह कहकर खारिज किया जाता है कि वो कट्टरपंथी हैं। खारिज करनेवाले कोई और नहीं, वही वामी कांग्रेसी और कौमी लोग हैं जो हिन्दुओं को मुसलमानों का गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं। जीत किसी की भी हो, वो हार नहीं मान रहे।
हिन्दू अभी भी प्रतिक्रियावादी ही हैं। क्रियात्मक स्वरूप आज भी वामी और कौमी लोगों का है। वो क्रिया करते हैं जिस पर हिन्दू और हिन्दुत्ववादी अपनी प्रतिक्रिया करते हैं। फिर मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक उस क्रिया को किनारे करके प्रतिक्रिया को खबर बना दिया जाता है।
गौ तस्कर पहलू खान से लेकर चोर तबरेज आलम तक मुस्लिम अपने क्रियात्मक स्वरूप में है। लेकिन हमारी चिंता क्रिया पर होने की बजाय उस पर होनेवाली प्रतिक्रिया को लेकर है। किसी समाज को मुर्दा बनाने की यह सुनियोजित साजिश है कि वह हिंसा और अपराध को सिर्फ इसलिए स्वीकार कर ले क्योंकि हिंसा और अपराध करनेवाला किसी खास हिंसक समुदाय से ताल्लुक रखता है। वामियों की इस दूषित नीति का खामियाजा भारत को भुगतना पड़ेगा।
ऐसा लगता है कि मोदी-2 में देश को दंगों से दहलाने की कोई योजना तैयार हो चुकी है। चुनाव में हार की चोट खाये मोमिन अब दंगों से अपनी मौजूदगी दिखाना चाहते हैं।
संजय तिवारी