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मुस्लिम नौकरी करने से ज्यादा देने के बारे में भी सोचें

मुस्लिम नौकरी करने से ज्यादा देने के बारे में भी सोचें

आर.के. सिन्हा

यकीन मानिए कि कभी-कभी बहुत अफसोस होता कि मुसलमानों को उनके रहनुमाओं ने हिजाब, बुर्का, उर्दू जैसे खतरे के वहम में फंसा कर रखा हुआ है। यह बात उत्तर भारत के मुसलमानों को लेकर विशेष रूप से कही जा सकती है। मुसलमानों के कथित नेता यही चाहते हैं कि इनकी कौम अंधकार के युग में ही बनी रहे। वहां से कभी निकले ही नहीं। इसलिए आज के दिन उत्तर भारत के मुसलमानों में जीवन में आगे बढ़ने को लेकर उस तरह का कोई जज्बा दिखाई नहीं देता जैसा हम गैर- हिन्दी भाषी राज्यों के मुसलमानों में देखते हैं। उत्तर भारत के मुसलमान अब भी सिर्फ नौकरी करने के बारे में ही सोचते हैं। जो कायदे से शिक्षित नहीं हैं, वे कारपेंटर, पेंटर, वेल्डर या मोटर मैकनिक बनकर खुश हो जाते हैं। शिक्षित मुसलमान अजीम प्रेमजी (विप्रो), हबील खुराकीवाला (वॉक फार्ड) या युसूफ हामिद (सिप्ला) बनने के संबंध में क्यों नहीं सोचते? यह सच में बड़ा सवाल है।

महाराष्ट्र, गुजरात, बैंगलुरू यानी कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना आदि का मुसलमान बिजनेस में भी अब लंबी छलांगें लगा रहा है। उसे सफलता भी मिल रही है। आप दिल्ली के इंडिया इस्लामिक सेंटर और मुंबई के इस्लाम जिमखाना के माहौल में जमीन-आसमान का अंतर देखेंगे। जहां इस्लामिक सेंटर में कव्वाली के नियमित कार्यक्रम होते हैं, वहीं इस्लाम जिमखाना के सदस्य बिजनेस की चर्चा में मशगूल मिलते हैं। दोनों की प्राथमिकताएं ही भिन्न हैं। इन दोनों के माहौल को देखकर ही पलक झपकते ही समझ आ जाता है कि देश के अलग-अलग भागों के मुसलमानों की सोच में कितना फर्क है। जहां विप्रो आई टी सेक्टर की कंपनी है, वहीं वॉककार्ड तथा सिप्ला फार्मा कंपनियां हैं। इन सबमें हजारों पेशेवर भी काम करते हैं और इनका सालाना मुनाफा भी हजारों करोड़ रुपए का है।

आपको गैर-हिन्दी भाषी राज्यों में दर्जनों उत्साही मुस्लिम कारोबारी तथा आंत्रप्योनर मिल जाएंगे। पर आपको दिल्ली और उत्तर भारत में कोई बहुत बड़ी नामवर कंपनी नहीं मिलेगी जिसका प्रबंधन मुसलमानों के पास हो। राजधानी दिल्ली में कुछ दशक पहले तक देहलवी परिवार शमा प्रकाशन चलाता था। इसकी शमा, सुषमा, बानो समेत बहुत सी लोकप्रिय पत्रिकाएं होती थीं। फिल्मी पत्रकारिता में इनका एक मुकाम होता था। शमीम देहलवी के बाद कुछ सालों तक इन पत्रिकाओं को देहलवी परिवार की सदस्य सादिया देहलवी ने भी देखा। पर ये अपने को वक्त के साथ बदल नहीं सके। नतीजा ये हुआ कि शमा प्रकाशन बंद हो गया। अब राजधानी के कनॉट प्लेस में चल रहे मरीना होटल की बात कर लेते हैं। इसका स्वामित्व भी एक मुस्लिम परिवार के पास है। लेकिन इसके मालिकों ने इसे रेंट पर किसी अन्य कंपनी को दिया हुआ। यानी जिनका होटल है वे रेंट लेकर ही खुश हैं। जबकि किराएदार हर साल मोटा मुनाफा कमाता है। रूह अफजा शर्बत बनाने वली कंपनी हमदर्द ने भी अपने को समय के साथ नहीं बदला। इनके दिल्ली के आसफ अली रोड के दफ्तर में जाकर लगता है कि ये आधुनिक बनने के लिए तैयार ही नहीं है। इसे बुलंदियों पर पहुंचाया था हकीम अब्दुल हामिद ने। पर उनके निधन के बाद उनका कारोबार बिखरता सा जा रहा है। ये स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। काश. हमदर्द मैनेजमेंट ने सिप्ला लिमिटेड से कुछ सीखा होता। सिप्ला भारत की बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी है। सिप्ला हृदय रोग, गठिया, मधुमेह, आदि के इलाज के लिए नामी दवाएं विकसित और निर्माण करती है।

इसकी स्थापना ख्वाजा अब्दुल हमीद ने 1935 में मुंबई में की थी। इसकी एक फैक्ट्री में महात्मा गांधी 1940 के दशक में आए थे। हमीद साहब राष्ट्रवादी विचार के मुसलमान थे। जहां तक विप्रो लिमिटेड की बात है तो यह भारत की तीसरी सबसे बड़ी सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) कंपनी है। आज इसकी टर्न ओवर कोई 600 अरब रुपये प्रतिवर्ष है और मुनाफ़ा कोई 70 अरब रुपये। दरअसल 1977 में जनता सरकार के समय विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने के आदेश के बाद विप्रो के व्यवसाय में असरदार इजाफ़ा हुआ था। आज यह एक बहु व्यवसाय तथा बहु स्थान कंपनी के रूप में उभरी है।

आप उत्तर भारत के आबादी के लिहाज से दो बड़े राज्यों-उत्तर प्रदेश तथा बिहार पर भी नजर डालिए। आपको यकीन मानिए कि हिमालय डग्स के अलावा कोई भी बड़ी कंपनी नहीं मिलेगी जिसका अपनी दुनिया में नाम हो और जिसका मैनेजमेंट किसी मुसलमान व्यवसायी के पास हो। आप जब इस विषय पर किसी मुस्लिम बुद्धीजीवी से बात करते हैं तो वह आमतौर पर एक घिसा-पिटा उत्तर देता है कि देश की आजादी के समय उत्तर भारत का एलिट सरहद के उस तरफ चला गया था। उस समय का असर अब भी दिखाई देता है। कहना न होगा कि इस तर्क को आजादी के 75 सालों के बाद भी मानना असंभव है। इस दौरान देश-दुनिया बदल गई। पर कुछ लोग अब भी 1947 में ही जी रहे हैं। वे आगे बढ़ने या सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। मुस्लिम समाज के चिंतकों, शिक्षकों, संस्थानों को अपने समाज के नौजवानों को प्रेरित करना होगा कि वे नौकरी या छोटा-मोटा काम करके जिंदगी गुजारने की सोच से बाहर निकलें। ये नौकरी करने से अधिक नौकरी देने का वक्त है। इसलिए पढ़े-लिखे मुसलमान युवक-युवतियों को किसी नए आइडिया के साथ कोई नया काम करने के बारे में सोचना होगा। उन्हें समझना होगा कि जब उन्हीं के समाज के नौजवान देश के अन्य भागों में अपने लिए बिजनेस की दुनिया में अपनी प्रतिष्ठित जगह बना रहे हैं तो वे भी किसी से कम नहीं हैं। वे भी सफल हो सकते हैं। नया काम-धंधा शुरू करने वालों को लोन मिलने में भी अब कोई दिक्कत नहीं है। उन्हें बैंकों तथा वित्तीय संस्थानों से सस्ती ब्याज दरों पर लोन भी मिल रहा है। अब गेंद मुस्लिम नौजवानों के पाले में है कि वे आगे आएं और देश की ताकत बनें। उनके पास दोनों विकल्प मौजूद हैं। वे छोटी-मोटी नौकरी करके भी जिंदगी गुजार सकते हैं। अगर वे चाहें तो कुछ बड़ा भी कर सकते हैं। उन्हें रिस्क लेने से भागना या घबराना नहीं चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)

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